ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 144/ मन्त्र 3
युयू॑षत॒: सव॑यसा॒ तदिद्वपु॑: समा॒नमर्थं॑ वि॒तरि॑त्रता मि॒थः। आदीं॒ भगो॒ न हव्य॒: सम॒स्मदा वोळ्हु॒र्न र॒श्मीन्त्सम॑यंस्त॒ सार॑थिः ॥
स्वर सहित पद पाठयुयू॑षतः । सऽव॑यसा । तत् । इत् । वपुः॑ । स॒मा॒नम् । अर्थ॑म् । वि॒ऽतरि॑त्रता । मि॒थः । आद्त् । ईम् । भगः॑ । न । हव्यः॑ । सम् । अ॒स्मत् । आ । वोळ्हुः॑ । न । र॒श्मीन् । सम् । अ॒यं॒स्त॒ । सार॑थिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
युयूषत: सवयसा तदिद्वपु: समानमर्थं वितरित्रता मिथः। आदीं भगो न हव्य: समस्मदा वोळ्हुर्न रश्मीन्त्समयंस्त सारथिः ॥
स्वर रहित पद पाठयुयूषतः। सऽवयसा। तत्। इत्। वपुः। समानम्। अर्थम्। विऽतरित्रता। मिथः। आत्। ईम्। भगः। न। हव्यः। सम्। अस्मत्। आ। वोळ्हुः। न। रश्मीन्। सम्। अयंस्त। सारथिः ॥ १.१४४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 144; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यदा सवयसा शिष्यौ समानं वपुर्युयूषतस्तदिन्मिथोर्थं वितरित्रता भवतः। आदीं भगो न हव्यस्तयोः प्रत्येकः सारथिर्वोढूरश्मीम्नास्मदध्यापनान् समायंस्तोपदेशांश्च समयंस्त ॥ ३ ॥
पदार्थः
(युयूषतः) मिश्रयितुमिच्छतः (सवयसा) समानं वयो ययोस्तौ (तत्) (इत्) (वपुः) स्वरूपम् (समानम्) तुल्यम् (अर्थम्) (वितरित्रता) विविधतयाऽतिशयेन तरितुमिच्छन्तौ सम्पादयितुमिच्छन्तौ। अत्र सर्वत्र विभक्तेराकारादेशः। (मिथः) परस्परम् (आत्) आनन्तर्ये (ईम्) सर्वतः (भगः) ऐश्वर्यवान् (न) इव (हव्यः) होतुमादातुं स्वीकर्त्तुमर्हः (सम्) (अस्मत्) (आ) समन्तात् (वोढुः) वाहकस्याश्वादेः (न) इव (रश्मीन्) (सम्) (अयंस्त) यच्छतः (सारथिः) ॥ ३ ॥
भावार्थः
येऽध्यापकोपदेशका निष्कपटतयाऽन्यान् स्वतुल्यान् कर्त्तुमिच्छया विदुषः कुर्युस्त उत्तमैश्वर्यं प्राप्य जितेन्द्रियाः स्युः ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जब (सवयसा) समान अवस्थावाले दो शिष्य (समानम्) तुल्य (वपुः) स्वरूप को (युयूषतः) मिलाने अर्थात् एक दूसरे की उन्नति करने को चाहते हैं (तदित्) तभी (वितरित्रता) अतीव अनेक प्रकार वे (मिथः) परस्पर (अर्थम्) धनादि पदार्थ की सिद्धि करने की इच्छा करते हैं (आत्) इसके अनन्तर (ईम्) सब ओर से (भगः) ऐश्वर्यवाला पुरुष जैसे (हव्यः) स्वीकार करने योग्य हो (न) वैसे उक्त विद्यार्थियों में से प्रत्येक (सारथिः) सारथी जैसे (वोढुः) पदार्थ पहुँचानेवाले घोड़े आदि की (रश्मीन्) रस्सियों को (न) वैसे (अस्मत्) हम अध्यापक आदि जनों से पढ़ाइयों को (समायंस्त) भली भाँति स्वीकार करता और उपदेशों को (सम्) भली भाँति स्वीकार करता है ॥ ३ ॥
भावार्थ
जो अध्यापक और उपदेशक कपट-छल के विना औरों को अपने तुल्य करने की इच्छा से उन्हें विद्वान् करें, वे उत्तम ऐश्वर्य को पाकर जितेन्द्रिय हों ॥ ३ ॥
विषय
सारथि प्रभु
पदार्थ
१. (सवयसा) = समानरूप से वयस्क हुए हुए, अर्थात् १८ व २५ वर्ष के आयुष्य को प्राप्त हुए हुए युवति व युवक (मिथः) = परस्पर मिलकर (समानम् अर्थम्) = एक ही प्रयोजन को (वितरित्रता) = तैरने की कामनावाले पूर्ण करने के इच्छुक (इत्) = निश्चय से (तत्) = वपुःप्रभु से दिये हुए शरीरों को (युयूषतः) = मिलाने की इच्छा करते हैं-दो न रहकर एक हो जाते हैं। पति-पत्नी परस्पर मिलकर-एक ही बनकर गृहस्थ को सफल बना पाते हैं। २. (आत्) = अब अर्थात् परस्पर एक होकर गृहस्थ को सफल बनाने पर ही ईम् निश्चय से (भगः न) = उपास्य के समान वे प्रभु (हव्यः) = पुकारने के योग्य होते हैं। हम प्रभु की प्रार्थना करते हैं तो वे (अस्मत्) = [अस्माकम् - सा०] हमारे (रश्मीन्) = शरीर रथ की लगामों को उसीप्रकार समयंस्त संयत करते हैं, सँभालते हैं न-जैसे वोळहु: वाहक घोड़ों की (रश्मीन्) = रश्मियों (लगाम) को (सारथिः) = सारथि वश में करता है। जब प्रभु हमारे शरीर रथ के सञ्चालक होते हैं तब भटकने का भय नहीं रहता।
भावार्थ
भावार्थ- पति-पत्नी परस्पर प्रेम से चलते हैं और पुरुषार्थी बनकर प्रभु को पुकारते हैं तो प्रभु उनके शरीर रथ के सारथि बनते हैं।
विषय
माता, पिता, आचार्य के कर्त्तव्यों का विवेक ।
भावार्थ
माता पिता और आचार्य के कर्त्तव्यों का विवेक । जब ( सवयसा ) समान बल वाले स्त्री पुरुप या माता पिता या पति पत्नी (मिथः) परस्पर ( समानम् ) परस्पर एक दूसरे के लिये एक समान प्रिय, ( अर्थं ) कामना योग्य पदार्थ को वितरण करते हैं तभी वे ( युयूषतः ) परस्पर मिलना चाहते हैं । ( तत् इत् ) उसका ही परिणाम यह ( वपुः ) शरीर उत्पन्न होता है । जिस प्रकार ( सारथिः ) सारथि या कोचवान् ( वोढुः ) रथ को ढोने वाले अश्व के ( रश्मीन् सम् अयंस्त ) रासों को अपने नियन्त्रण में रखता है उसी प्रकार ( अस्मद् ) हमारा ( हव्यः ) पूज्य आचार भी ( भगः ) सुखदायी ऐश्वर्यवान् सूर्य के समान ( इव्यः ) ज्ञानों का प्रदान करने हारा ( आत् ) अनन्तर ( ईम् ) उस उत्पन्न बालक को ( रश्मीन् ) सब वागडोरों को ( सम् अयंस्त ) अपने वश कर के सब उपायों को अपने हाथ में ले ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ३, ४, ५, ७ निचृज्जगती । २ जगती । ६ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे अध्यापक व उपदेशक कपट व छळ न करता इतरांना आपल्यासारखे करण्याच्या इच्छेने त्यांना विद्वान करतात ते उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त करून जितेंद्रिय होतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When two persons of equal age and equal mind wishing to cross over a common problem and achieve a common end, join together in body for mutual love and support, they accept, hold on and support each other as beauty and majesty and accept a tribute of love as fire accepts an oblation of yajna from us, or as a charioteer accepts and holds the reins of the horses.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of teachers and priests go on.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
When two classmates or co-scholars mug up and exchange their notes and arrive at some definite conclusion, each one of them makes optimum use of the knowledge and experience of the teachers and preachers. Like an acceptable or popular wealthy person or like a charioteer who controls his horses through the reins, such a person takes up the challenge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The teachers and preachers who endeavor to make others learned like themselves, give them education without deceit. Consequently, they impart good wealth and control over their senses.
Foot Notes
(युयूषतः) मिश्रयितुमिच्छतः = Try to corroborate. (हम्य:) होतुम् आदातुं स्त्रीकर्तुम् अर्हः = Acceptable or popular.
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