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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 144 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 144/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    तमीं॑ हिन्वन्ति धी॒तयो॒ दश॒ व्रिशो॑ दे॒वं मर्ता॑स ऊ॒तये॑ हवामहे। धनो॒रधि॑ प्र॒वत॒ आ स ऋ॑ण्वत्यभि॒व्रज॑द्भिर्व॒युना॒ नवा॑धित ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । ई॒म् । हि॒न्व॒न्ति॒ । धी॒तयः॑ । दश॑ । व्रिशः॑ । दे॒वम् । मर्ता॑सः । ऊ॒तये॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ । धनोः॑ । अधि॑ । प्र॒ऽवतः॑ । आ । सः । ऋ॒ण्व॒ति॒ । अ॒भि॒व्रज॑त्ऽभिः । व॒युना॑ । नवा॑ । अ॒धि॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमीं हिन्वन्ति धीतयो दश व्रिशो देवं मर्तास ऊतये हवामहे। धनोरधि प्रवत आ स ऋण्वत्यभिव्रजद्भिर्वयुना नवाधित ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। ईम्। हिन्वन्ति। धीतयः। दश। व्रिशः। देवम्। मर्तासः। ऊतये। हवामहे। धनोः। अधि। प्रऽवतः। आ। सः। ऋण्वति। अभिव्रजत्ऽभिः। वयुना। नवा। अधित ॥ १.१४४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 144; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या मर्त्तासो वयमूतये यं देवं हवामहे दश धीतयो व्रिशोयं हिन्वन्ति तमीं यूयं स्वीकुरुत यो धनुर्विद्धनोरधिक्षिप्तान् प्रवतो गच्छतो वाणानधित सोऽभिव्रजद्भिर्विद्वद्भिस्सह नवा वयुना आऋण्वति ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (तम्) (ईम्) (हिन्वन्ति) हितं कुर्वन्ति प्रीणयन्ति (धीतयः) करपादाङ्गुलयइव (दश) (व्रिशः) प्रजाः। अत्र वर्णव्यत्ययेन वस्य स्थाने व्रः। (देवम्) विद्वांसम् (मर्त्तासः) मनुष्याः (ऊतये) रक्षणाद्याय (हवामहे) गृह्णीमः (धनोः) धनुषः (अधि) उपरि (प्रवतः) प्रवणं प्राप्तान्वाणानिव (आ) समन्तात् (सः) (ऋण्वति) प्राप्नोति। अत्र विकरणद्वयम्। (अभिव्रजद्भिः) अभितो गच्छद्भिः (वयुना) वयुनानि प्रज्ञानानि (नवा) नवानि (अधित) दधाति ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा कराङ्गुलिभिर्भोजनादिक्रियया शरीराणि वर्द्धन्ते तथा विद्वदध्यापनोपदेशक्रियया प्रजा वर्धन्ते यथा च धनुर्वेदवित् शत्रून् जित्वा रत्नानि लभते तथा विद्वत्सङ्गफलविद्विज्ञानानि प्राप्नोति ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (मर्त्तासः) मरणधर्मा मनुष्य हम लोग (ऊतये) रक्षा आदि के लिये जिस (देवम्) विद्वान् को (हवामहे) स्वीकार करते वा (दश) दश (धीतयः) हाथ-पैरों की अङ्गुलियों के समान (व्रिशः) प्रजा जिसको (हिन्वन्ति) प्रसन्न करती हैं (तम्, ईम्) उसी को तुम लोग ग्रहण करो, जो धनुर्विद्या का जाननेवाला (धनोः) धनुष के (अधि) ऊपर आरोप कर छोड़े (प्रवतः) जाते हुए वाणों को (अधित) धारण करता अर्थात् उनका सन्धान करता है (सः) वह (अभिव्रजद्भिः) सब ओर से जाते हुए विद्वानों के साथ (नवा) नवीन (वयुना) उत्तम-उत्तम ज्ञानों को (आ, ऋण्वति) अच्छे प्रकार प्राप्त होता है ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे हाथों की अङ्गुलियों से भोजन आदि की क्रिया करने से शरीरादि बढ़ते हैं वैसे विद्वानों के अध्यापन और उपदेशों की क्रिया से प्रजाजन वृद्धि पाते हैं वा जैसे धनुर्वेद का जाननेवाला शत्रुओं को जीतकर रत्नों को प्राप्त होता है वैसे विद्वानों के सङ्ग के फल को जाननेवाला जन उत्तम ज्ञानों को प्राप्त होता है ॥ ५ ॥

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    विषय

    ध्यान से ज्ञान-रश्मियों की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. दश दसों दिशाओं में रहनेवाली (धीतयः) = ध्यानशील (व्रिश:) = [वश: - द०] प्रजाएँ (ईम्) = निश्चय से (तं हिन्वन्ति) = प्रभु को अपने हृदय में प्रेरित करती हैं। (मर्तासः) = हम मरणधर्मा पुरुष भी (ऊतये) = रक्षा के लिए (देवम्) = प्रकाशमय प्रभु को (हवामहे) = पुकारते हैं। आपत्ति आने पर प्रभु की ओर झुकाव होता ही है। ध्यानशील लोग सदा उस प्रभु का स्मरण करते हैं। २. (सः) = ध्यान किये गये वे प्रभु (धनोः अधि) = धनुष पर से (प्रवतः) = प्रकर्षेण जाते हुए बाणों की भाँति-प्रकृष्ट वेगवाली रश्मियों को (आॠण्वति) = समन्तात् प्रेरित करते हैं और (अभिव्रजद्भिः) = ऐहिक व आमुष्मिक ज्ञेय पदार्थों को प्राप्त कराती हुई इन रश्मियों से (नवा) = नवीन व स्तुत्य (वयुना) = प्रज्ञानों को (अधित) = धारण करते हैं। इन प्रज्ञानों को प्राप्त करके हम संसार में ठीक मार्ग से चलते हुए कष्टों से ऊपर उठ जाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का ध्यान करने पर वे ज्ञानरश्मियाँ प्राप्त होती हैं, जो हमें कष्टों से ऊपर उठानेवाली होती हैं।

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    विषय

    प्रजाओं का रक्षक के प्रति व्यवहार और रक्षक का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( तम् ) उस ( देवम् ) दानशील, तेजस्वी, सूर्य के समान प्रतापी पुरुष को (दश विशः) दसों प्रजाएं, दसों दिशा निवासिनी प्रजाएं और ( मर्त्तासः ) हम शत्रु संहारकारी मर्द युवा पुरुष भी, ( धीतयः ) अध्येता विद्यार्थी जन जिस प्रकार गुरु को ( ऊतये ) ज्ञान प्राप्ति के लिये प्राप्त करते हैं उसी प्रकार ( ऊतये ) प्रजा रक्षण के लिये ( हवामहे ) बुलाते हैं। और जिस प्रकार ( धनोः अधि प्रवतः ) धनुष के ऊपर दूर तक जाने वाले बाणों को रखता और ( अभि व्रजद्भिः ) शत्रु को लक्ष्य करके चढ़ाई करने वालों से ( नवा वयुना ) नये नये प्रदेशों को (ऋण्वति) प्राप्त करता और उनको ( आ अधित ) अपने अधीन रख लेता है । इसी प्रकार वह विद्वान् पुरुष ( अभि व्रजद्भिः ) उत्तम ब्रह्म पद को लक्ष्य करके जाने वाले मुमुक्षुओं के साथ मिलकर ( नवा वयुना अधित ) नये नये ज्ञानों को प्राप्त करे। और ( धनोः अधि ) धनुष के बल पर ( प्रवतः ) वाणों के समान दूर के देशों को भी ( ऋपवति ) प्राप्त करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ३, ४, ५, ७ निचृज्जगती । २ जगती । ६ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे हाताच्या बोटांनी भोजन वगैरे क्रिया करण्यामुळे शरीर विकसित होते, तसे विद्वानांच्या अध्यापन व उपदेशाने प्रजा विकसित होते. धनुर्वेद जाणणारा शत्रूंना जिंकून रत्ने प्राप्त करतो तसे विद्वानांच्या संगतीचे फळ जाणणारे लोक उत्तम ज्ञान प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    All the human potentials such as thoughts, ideas, reflection, wisdom, will and understanding, intention, devotion, prayer and meditation, all ten senses of perception and volition, the five main pranic energies and five sub-pranas, though separate, yet jointly, invoke, enlight and serve the same one Agni as the ten fingers, though separate, yet jointly, nurse the same one baby with love and care. We all mortals serve, adore and worship the same eternal light of life, Agni. It moves ever so fast and hits its targets as an arrow shot from the bow, and ever new bom and growing, young and youthful, it receives new knowledge from the sages on the move. Homage to the Lord for protection, promotion, peace and well-being!

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The utility of ideal teachers is underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    We mortals seek protection from the wise and expert persons. As all the fingers make hands strong, likewise we accept such noble teachers as our leaders. You should also do likewise. As an arrow goes at distance if properly handled by an expert archer, likewise our venerable persons should go far and wide.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The fingers of the hands are helpful in taking food and thus the body grows. Likewise, the people well groomed by the teachers should go to the farthest corners with the Vedic message.

    Foot Notes

    (धीतयः) करपादांगुलयः इव = Like the fingers of the hands and the feet. (विश:) विश: प्रजा | अत्नवर्णव्यत्ययेन वस्य स्थाने व्रः = Subjects or issues.

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