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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 15/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - द्रविणोदाः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यत्त्वा॑ तु॒रीय॑मृ॒तुभि॒र्द्रवि॑णोदो॒ यजा॑महे। अध॑ स्मा नो द॒दिर्भ॑व॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । त्वा॒ । तु॒रीय॑म् । ऋ॒तुऽभिः॑ । द्रवि॑णःऽदः । यजा॑महे । अध॑ । स्म॒ । नः॒ । द॒दिः । भ॒व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्त्वा तुरीयमृतुभिर्द्रविणोदो यजामहे। अध स्मा नो ददिर्भव॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। त्वा। तुरीयम्। ऋतुऽभिः। द्रविणःऽदः। यजामहे। अध। स्म। नः। ददिः। भव॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 15; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः प्रत्यृतुमीश्वरध्यानमुपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे द्रविणोदो जगदीश्वर ! वयं यद्यं तुरीयं त्वा त्वामृतुभिर्योगे यजामहे स्म स त्वं नोऽस्मभ्यमुत्तमानां विद्यादिधनानां ददिरध भव॥१०॥

    पदार्थः

    (यत्) यम् (त्वा) त्वां जगदीश्वरम् (तुरीयम्) चतुर्णां स्थूलसूक्ष्मकारणपरमकारणानां संख्यापूरकम्। अत्र चतुरश्छयतावाद्यक्षरलोपश्च। (अष्टा०५.२.५१) इति वार्त्तिकेनास्य सिद्धिः। (ऋतुभिः) ऋच्छन्ति प्राप्नुवन्ति यैस्तैः। अत्र अर्त्तेश्च तुः। (उणा०१.७३) इति ‘ऋ’धातोस्तुः प्रत्ययः किच्च। (द्रविणोदः) ददातीति दाः, द्रविणस्यात्मशुद्धिकरस्य विद्यादेर्धनस्य दास्तत्सम्बुद्धौ (यजामहे) पूजयामहे (अध) निश्चयार्थे (स्म) सुखार्थे। निपातस्य च इति दीर्घः। (नः) अस्मभ्यम् (ददिः) दाता। अत्र आदृगम० (अष्टा०३.२.१७१) इति ‘डुदाञ्’धातोः किः प्रत्ययः। (भव)॥१०॥

    भावार्थः

    परमेश्वरस्त्रिविधस्य स्थूलसूक्ष्मकारणाख्यस्य जगतः सकाशात्पृथग्वस्तुत्वाच्चतुर्थो वर्त्तते। यश्च सकलैर्मनुष्यैः सर्वाभिव्यापी सर्वान्तर्यामी सर्वाधारो नित्यं पूजनीयोऽस्ति, नैतं विहाय केनचिदन्यस्येश्वरबुद्ध्योपासना कार्य्या। नैवैतस्माद्भिन्नः कश्चित्कर्मानुसारेण जीवेभ्यः फलप्रदाताऽस्ति॥१०॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर ऋतु-ऋतु में ईश्वर का ध्यान करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हे (द्रविणोदाः) आत्मा की शुद्धि करनेवाले विद्या आदि धनदायक ईश्वर ! हम लोग (यत्) जिस (तुरीयम्) स्थूल-सूक्ष्म-कारण और परम कारण आदि पदार्थों में चौथी संख्या पूरण करनेवाले (त्वा) आपको (ऋतुभिः) पदार्थों को प्राप्त करानेवाले ऋतुओं के योग में (यजामहे स्म) सुखपूर्वक पूजते हैं, सो आप (नः) हमारे लिये धनादि पदार्थों को (अध) निश्चय करके (ददिः) देनेवाले (भव) हूजिये॥१०॥

    भावार्थ

    परमेश्वर तीन प्रकार के अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारणरूप जगत् से अलग होने के कारण चौथा है, जो कि सब मनुष्यों को सर्वव्यापी सब का अन्तर्यामी और आधार नित्य पूजन करने योग्य है, उसको छोड़कर ईश्वरबुद्धि करके किसी दूसरे पदार्थ की उपासना न करनी चाहिये, क्योंकि इससे भिन्न कोई कर्म के अनुसार जीवों को फल देनेवाला नहीं है॥१०॥

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    विषय

    तुरीयोपासन

    पदार्थ

    १. 'पृथिवीलोक' प्रथम लोक है , 'अन्तरिक्ष' द्वितीय , 'द्युलोक' तृतीय तथा 'ब्रह्म' तुरीय है , अतः मन्त्र में कहते हैं कि हे (द्रविणोदः) - धन के देनेवाले प्रभो! (यत्) - जो (तुरीयम्) - "पृष्ठात्पृथिव्याहमन्तरिक्षमारुहमन्तरिक्षाद्दिवमारुहम् । दिवो नाकस्य पृष्ठात् स्वर्ज्योतिरगामहम्" । इस मन्त्र में वर्णित तुरीय आपको (ऋतुभिः) - समय रहते , यौवन में ही , न कि समय के बीतने पर वार्धक्य में (यजामहे) - उपासित करते हैं । (अध) - अब (नः) - हमारे लिए (ददिः) - खूब देनेवाले (भव स्मा) - होओ , हम जितना भी माँगें आप अधिक ही देनेवाले हों । 

    २. जब इस जीवन में हम शरीर की नीरोगता [पृथिवी] , मानस की पवित्रता [अन्तरिक्ष] व मस्तिष्क की दीप्तता [द्युलोक] का सम्पादन करके आत्मा द्वारा एकत्वदर्शन , अर्थात् सर्वत्र उस देदीप्यमान ज्योति के व्यापन [स्वर्ज्योति] को अनुभव करने का प्रयास करते हैं तब हमारे योग - क्षेम के लिए आवश्यक सब धनों को वे प्रभु ही देते हैं । वे 'द्रविणोदा' हैं , सब धनों को देनेवाले हैं । नित्याभियुक्तों के पालन का उत्तरदायित्व तो है ही उनपर । 

     

     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम उस तुरीय प्रभु का उपासन करें , वे प्रभु हमें सब धनों को प्राप्त कराएँगे । 

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    विषय

    फिर ऋतु-ऋतु में ईश्वर का ध्यान करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे द्रविणोदः जगदीश्वर ! वयं  यद्यं तुरीयं  त्वा त्वाम् ऋतुभिः योगे यजामहे स्म स त्वं  नः-अस्मभ्यम् उत्तमानां विद्यादि धनानां  ददिरध भव॥१०॥

    पदार्थ

    हे  (द्रविणोदः) ददतीति दाः द्रविणस्यात्मशुद्धिकरस्य विद्यादेर्धनस्य दास्तत्सम्बुद्धौ=आत्मा की शुद्धि करनेवाले विद्या आदि धनदायक ईश्वर, (जगदीश्वर)=परमेश्वर, (वयम्)=हम, (यत्) यम्=जो, (तुरीयम्) चतुर्णां स्थूलसूक्ष्मकारणपरमकारणानां संख्यापूरकम्=स्थूल-सूक्ष्म-कारण और परम कारण आदि पदार्थों  में चौथी संख्या पूर्ण करनेवाला, (त्वा-त्वाम्)=जगदीश्वर, (ऋतुभिः) ऋच्छन्ति प्राप्नुवन्ति यैस्तैः=ऋच्छन्ति प्राप्नुवन्ति यैस्तैः=ऋतुओं के योग में पदार्थों को प्राप्त कराने वाले, (यजामहे) पूजयामहे=पूजते हैं, (स्म) सुखार्थे=सुख के लिये, (स)=वह परमेश्वर, (त्वम्)=तुम, (नः-अस्मभ्यम्)=हमारे लिये, (उत्तमानाम्)=उत्तमों का, (विद्यादिधनानाम्)=विद्यादि धनो का, (ददिः) दाता=देनेवाला, (अथ) निश्चयार्थे= निश्चित रूप से ही, (भव)=होओ ॥१०॥ 
     

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    परमेश्वर तीन प्रकार के अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म और कारणरूप जगत् से अलग होने के कारण चौथा है। जो कि सब मनुष्यों के लिये सर्वव्यापी सब का अन्तर्यामी और सबका आधार है  और नित्य पूजन करने योग्य है। इसको छोड़कर ईश्वरबुद्धि करके किसी दूसरे ईश्वर  की उपासना नहीं करनी चाहिये। इससे भिन्न कोई कर्म के अनुसार जीवों को फल देनेवाला नहीं है॥१०॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (द्रविणोदः) आत्मा की शुद्धि करनेवाले विद्या धन आदि दायक (जगदीश्वर) परमेश्वर! (वयम्)  हम (यत्) जो (तुरीयम्)  स्थूल, सूक्ष्म, कारण और परम कारण आदि पदार्थों  में चौथी संख्या पूर्ण करनेवाला (त्वा) जगदीश्वर है। (ऋतुभिः) ऋतुओं के योग से पदार्थों को प्राप्त कराने वाले, उसे हम (यजामहे) पूजते हैं। (स्म) सुख के लिये (स) वह परमेश्वर (त्वम्) तुम (नः) हमारे लिये (अथ) निश्चित रूप से ही (उत्तमानाम्) उत्तम (विद्यादिधनानाम्) विद्यादि धनो के  (ददिः) देने वाले (भव) होओ ॥१०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यत्) यम् (त्वा) त्वां जगदीश्वरम् (तुरीयम्) चतुर्णां स्थूलसूक्ष्मकारणपरमकारणानां संख्यापूरकम्। अत्र चतुरश्छयतावाद्यक्षरलोपश्च। (अष्टा०५.२.५१) इति वार्त्तिकेनास्य सिद्धिः। (ऋतुभिः) ऋच्छन्ति प्राप्नुवन्ति यैस्तैः। अत्र अर्त्तेश्च तुः। (उणा०१.७३) इति 'ऋ'धातोस्तुः प्रत्ययः किच्च। (द्रविणोदः) ददातीति दाः, द्रविणस्यात्मशुद्धिकरस्य विद्यादेर्धनस्य दास्तत्सम्बुद्धौ (यजामहे) पूजयामहे (अध) निश्चयार्थे (स्म) सुखार्थे। निपातस्य च इति दीर्घः। (नः) अस्मभ्यम् (ददिः) दाता। अत्र आदृगम० (अष्टा०३.२.१७१) इति 'डुदाञ्'धातोः किः प्रत्ययः (भव) ॥१०॥ । 
    विषयः- पुनः प्रत्यृतुमीश्वरध्यानमुपदिश्यते।

    अन्वयः- हे द्रविणोदो जगदीश्वर! वयं यद्यं तुरीयं त्वा त्वामृतुभिर्योगे यजामहे स्म स त्वं नोऽस्मभ्यमुत्तमानां विद्यादिधनानां ददिरध भव॥१०॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- परमेश्वरस्त्रिविधस्य स्थूलसूक्ष्मकारणाख्यस्य जगतः सकाशात्पृथग्वस्तुत्वाच्चतुर्थो वर्त्तते। यश्च सकलैर्मनुष्यैः सर्वाभिव्यापी सर्वान्तर्यामी सर्वाधारो नित्यं पूजनीयोऽस्ति, नैतं विहाय केनचिदन्यस्येश्वरबुद्ध्योपासना कार्य्या। नैवैतस्माद्भिन्नः कश्चित्कर्मानुसारेण जीवेभ्यः फलप्रदाताऽस्ति॥१०॥ 

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    विषय

    द्रविणोदा नाम ऐश्वर्यवान् पुरुषों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( द्रविणोदः ) ऐश्वर्यो के देने हारे परमेश्वर ! ( यत् ) जिस ( तुरीयम् ) तुरीय, मोक्षस्वरूप तुझको ( ऋतुभिः ) समस्त साधनों से हम ( यजामहे ) उपासना करते हैं, ( अध ) और तू ही ( नः ) हमें ( ददिः ) सब पदार्थों का दाता, सब कष्टों और दुःखों से त्राता और रक्षक ( भव स्म ) हो । ( त्वा तुरीयम् ) हे राजन् ! तुझ चारों वर्णों के पूरक या शत्रु, मित्र और उदासीन सबसे ऊपर विद्यमान चतुर्थ तुझको हम ( ऋतुभिः यजामहे ) सब सदस्यों, एवं बलों से युक्त करें । तू हमारा दाता और रक्षक हो।

    टिप्पणी

    परमेश्वर का तुरीय स्वरूप देखो माण्डूक्य उप० । "अमात्रश्चतुर्थोऽव्यवहार्यः प्रपञ्चोपशमः शिवोऽद्वैत एवमोङ्कार आत्मैव ”॥ १२ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १=१२ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—ऋतवः । १ इन्द्रः । २ मरुतः । ३ त्वष्टा । ४ अग्निः । ५ इन्द्रः । ६ मित्रावरुणौ । ७—१० द्रविणोदाः। ११ अश्विनौ । १२ अग्निः । गायत्री ॥ षड्जः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर तीन प्रकारच्या अर्थात स्थूल, सूक्ष्म व कारणरूपी जगाहून वेगळा असल्यामुळे चौथा आहे. जो सर्वव्यापी, सर्वांन्तर्यामी, सर्वाधार व नित्यपूज्य आहे, त्याला सोडून ईश्वर समजून दुसऱ्या पदार्थांची उपासना करता कामा नये. कारण त्यापेक्षा वेगळा कोणीही कर्मानुसार जीवांना फळ देणारा नसतो. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Lord creator and giver of the wealth of the universe, we worship you, lord transcendent of the fourth estate of spirit and existence, in yajna in tune with the seasons of nature. Your devotees as we are, bless us with the gift of wealth and joy which is on top of heaven beyond paradise.

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    Subject of the mantra

    Then, God should be meditated in every season, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (draviṇodaḥ)=God who is provider of knowledge, (jagadīśvara)=God, wealth et cetera and sanctifies the soul, (vayam)=for us, (yat)=which, (turīyam)= The fourth number fulfiller among the gross, subtle, causal and ultimate causes etc., (tvā)=God, (ṛtubhiḥ)=we pray Him with the incidences of seasons which get obtained the substances, (yajāmahe)=worship, (sma)=for delights, (sa)=that God, (tvam)=you, (naḥ)=for us, (uttamānām)=of those excellent, (vidyādidhanānām)=of knowledge, wealth et cetera, (dadiḥ)=provider, (atha)=Certainly, (bhava)=be.

    English Translation (K.K.V.)

    O God! Provider of the knowledge, wealth et cetera and sanctifying the soul. For us, the one who completes the fourth number among the gross, subtle, causal and ultimate causes etc., is God. We worship him, the one who receives the substances through the association of the seasons. For happiness, that God, you be definitely the giver of best education and wealth for us.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The God is the fourth, apart from the three types, namely, the gross, the subtle and the causal being from the world. That is omnipresent for all human beings, the innermost of all and the basis of all and is worthy of worship daily. No one, other than this is the one who provides reward to the living beings according to deeds.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Then again the contemplation on God is taught in the tenth mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God Giver of self-purifying wealth be bountiful to us all who adore Thee in all seasons, who art the fourth among the causes gross, subtle, causal and Absolute or Ultimate cause the Supreme Being.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (तुरीयम् ) चतुर्णी स्थूल सूक्ष्मकारणपरमकारणानां संख्या पूरकम् अत्र चतुरश्छयतावाद्यक्षरलोपश्च इति बार्तिकेनास्य सिद्धिः The fourth among the causes known as gross, subtle, causal and ultimate.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God is fourth as He is distinct from the Universe of three kinds namely gross, fine or subtle and causal. None should worship anyone else but God who is Omnipresent Innermost Spirit, Support of all and Adorable. None should be worshipped or adored in His place. There is none except God Who gives the fruits of actions done by the souls.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda in his commentary on the term अश्विनौ (Ashvinau) has given the meaning as सूर्याचन्द्रमसौ The sun and the moon, though he has not quoted any authority. But such authorities from the Nirukta can certainly be quoted to substantiate the meaning given by him. For instances, it is stated in the Nirukta 12.1 तत्कावश्विनौ । द्यावापृथिव्यावित्येके । अहोरात्रावित्येके । सूर्याचन्द्रमसावित्येके । अश्विनौ यद् व्यश्नुवाते सर्व रसेनान्यो ज्योतिषान्यः । इत्यादि । (निरुक्ते १२.६ ) Here it is clear that Yaskacharya the author of the Nirukta who is considered to be as authority, has given several meanings of the word अश्विनौ as the sun and the moon etc. So the meaning given by him as सूर्याचन्द्रमसौ The sun and the moon is not his own imagination but well-authenticated. In his Bhavartha or purport, he has referred to other pairs also besides the sun and the moon by which the earth and the sky, day and night, Prana and Apana etc. may be taken.

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