ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 15/ मन्त्र 9
द्र॒वि॒णो॒दाः पि॑पीषति जु॒होत॒ प्र च॑ तिष्ठत। ने॒ष्ट्रादृ॒तुभि॑रिष्यत॥
स्वर सहित पद पाठद्र॒वि॒णः॒ऽदाः । पि॒पी॒ष॒ति॒ । जु॒होत॑ । प्र । च॒ । ति॒ष्ठ॒त॒ । ने॒ष्ट्रात् । ऋ॒तुऽभिः॑ । इ॒ष्य॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्रविणोदाः पिपीषति जुहोत प्र च तिष्ठत। नेष्ट्रादृतुभिरिष्यत॥
स्वर रहित पद पाठद्रविणःऽदाः। पिपीषति। जुहोत। प्र। च। तिष्ठत। नेष्ट्रात्। ऋतुऽभिः। इष्यत॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 15; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
यज्ञकर्त्तॄणामृतुषु कर्त्तव्यान्युपदिश्यन्ते।
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा द्रविणोदा यज्ञानुष्ठाता विद्वान् मनुष्यो यज्ञेषु सोमादिरसं पिपीषति तथैव यूयमपि तान् यज्ञान् नेष्ट्रात् जुहोत। तत्कृत्वर्त्तुभिर्योगे सुखैः प्रकृष्टतया तिष्ठत प्रतिष्ठध्वं तद्विद्यामिष्यत च॥९॥
पदार्थः
(द्रविणोदाः) यज्ञानुष्ठाता मनुष्यः (पिपीषति) सोमादिरसान् पातुमिच्छति। अत्र ‘पीङ्’ धातोः सन् व्यत्ययेन परस्मैपदं च। (जुहोत) दत्तादत्त वा। (प्र) प्रकृष्टार्थे (च) समुच्चयार्थे (तिष्ठत) प्रतिष्ठां प्राप्नुत। अत्र वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमात् समवप्रविभ्यः स्थः। (अष्टा०१.३.२२) इत्यात्मनेपदं न भवति। (नेष्ट्रात्) विज्ञानहेतोः। अत्र णेषृ गतौ इत्यस्मात् सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। (उणा०४.१५९) इति बाहुलकात् ष्ट्रन् प्रत्ययः। (ऋतुभिः) वसन्तादिभिर्योगे (इष्यत) विजानीत॥९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सत्कर्मणोऽनुकरणमेव कर्त्तव्यं, नासत्कर्मणः। सर्वेष्वृतुषु यथायोग्यानि कर्म्माणि कर्त्तव्यानि। यस्मिन्नृतौ यो देशः स्थातुं गन्तुं योग्यस्तत्र स्थातव्यं गन्तव्यं च तत्तद्देशानुसारेण भोजनाच्छादनविहाराः कर्त्तव्याः। इत्यादिभिर्व्यवहारैः सुखानि सततं सेव्यानीति॥९॥
हिन्दी (4)
विषय
यज्ञ करनेवाले मनुष्यों को ऋतुओं में करने योग्य कार्य्यों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (द्रविणोदाः) यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाला विद्वान् मनुष्य यज्ञों में सोम आदि ओषधियों के रस को (पिपीषति) पीने की इच्छा करता है, वैसे ही तुम भी उन यज्ञों को (नेष्ट्रात्) विज्ञान से (जुहोत) देने-लेने का व्यवहार करो तथा उन यज्ञों को विधि के साथ सिद्ध करके (ऋतुभिः) ऋतु-ऋतु के संयोग से सुखों के साथ (प्रतिष्ठत) प्रतिष्ठा को प्राप्त हो और उनकी विद्या को सदा (इष्यत) जानो॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को अच्छे ही काम सीखने चाहिये, दुष्ट नहीं, और सब ऋतुओं में सब सुखों के लिये यथायोग्य कर्म्म करना चाहिये, तथा जिस ऋतु में जो देश स्थिति करने वा जाने-आने योग्य हो, उसमें उसी समय स्थिति वा जाना तथा उस देश के अनुसार खाना-पीना वस्त्रधारणादि व्यवहार करके सब व्यवहार में सुखों को निरन्तर सेवन करना चाहिये॥९॥
विषय
दान व प्रतिष्ठा
पदार्थ
१. गतमन्त्र में धनों को देवों के निमित्त , न कि भोग के निमित्त प्राप्त करने का उल्लेख था । उसी बात को समर्थित करते हुए कहते हैं कि (द्रविणोदाः) - धनों का देनेवाला ही (पिपीषति) - सोम के पान की कामना करता है । चूंकि धन को न देकर अपने भोग में ही उसका व्यय करनेवाला तो वासनाओं का शिकार होकर सोम को अपव्ययित कर बैठता है । वह सोम का शरीर में ही व्यापन नहीं कर पाता ।
२. अतः प्रभु अपने मित्र जीवों को निर्देश करते हैं कि (जुहोतन) - इस धन की लोककल्याण के यज्ञ में आहुति दो (च) - और प्रतिष्ठत प्रतिष्ठा को प्राप्त करो । दान देने से प्रतिष्ठा तो प्राप्त होगी ही , उसके साथ हमारा व्यसनों से बचाव होकर कल्याण भी होगा । हमारे शरीर , मन व बुद्धि सब अधिक स्वस्थ होंगे ।
३. प्रभु कहते हैं कि (नेष्ट्रात्) - नेष्टा बनने के दृष्टिकोण से 'नी नये' अपने को आगे ले - चलने के विचार से (ऋतुभिः) - समय रहते , यौवन में ही (इष्यत) - इस सोमपान की कामना करो । यौवन में ही संयमी बनकर सोम का शरीर में व्यापन करो ताकि शरीर , मन व बुद्धि सभी क्षेत्रों में तुम आगे बढ़ सको - सभी शक्तियों का तुममें विकास हो ।
भावार्थ
भावार्थ - धन का दान करनेवाला ही सोमपान करता है , दान की प्रतिष्ठा भी प्राप्त होती है । आगे बढ़ने के दृष्टिकोण से समय रहते सोम के रक्षण की कामना करनी ही चाहिए ।
विषय
यज्ञ करनेवाले मनुष्यों को ऋतुओं में करने योग्य कार्य्यों का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मनुष्या ! यथा द्रविणोदा यज्ञानुष्ठाता विद्वान् मनुष्यः यज्ञेषु सोमादिरसं पिपीषति तथा एव यूयम् अपि तान् यज्ञान् नेष्ट्रात् जुहोत। तत् कृत्वा ऋतुभिः योगे सुखैः प्रकृष्टतया तिष्ठत प्रतिष्ठध्वं तत् विद्यान् इष्यत च॥९॥
पदार्थ
हे (मनुष्या)=मनुष्य लोगों! (यथा)=जैसे, (द्रविणोदा)-यज्ञान् अनुष्ठाता विद्वान् मनुष्यः=यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाला विद्वान् मनुष्य, (यज्ञेषु)=यज्ञों में, (पिपीषति) सोमादि रसम् पातुमिच्छति=सोम आदि रस पीने का इच्छुक, (तथा)=वैसे, (एव)=ही, (यूयम्)=आप सब, (अपि)=भी, (तान्)=उनको, (यज्ञान्)=यज्ञों को, (नेष्ठात्) विज्ञानहेतोः=विज्ञान का लक्ष्य है, (जुहोत) दत्तादत्त वा= उसको प्राप्त कराने वाले हो। (तत्)=उसका, (कृत्वा)=करके, (ऋतुभिः) वसन्तादिभ्भिर्योगे=वसन्त आदि ऋतुओं के योग से, (सुखैः)=सुख से, (प्रकृष्टतया)=प्रमुख रूप से, (तिष्ठत) प्रतिष्ठां प्राप्नुत=प्रतिष्ठा को प्राप्त हो, (प्रतिष्ठध्वम्) सर्वे विधयो भवन्ति= सब विधियों के होते हुए, (तत्)=उस, (विद्याम्)=विद्या को, (इष्यत) विजानीत=विशेष रूप से जानता है, (च)=और॥९॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचक लुप्त उपमा अलङ्कार है। मनुष्यों को अच्छे ही काम सीखने चाहिये, दुष्ट नहीं, और सब ऋतुओं में सब सुखों के लिये यथायोग्य कर्म करना चाहिये, तथा जिस ऋतु में जो देश स्थिति करने या जाने-आने योग्य हो, उसमें उसी समय स्थिति या जाना तथा उस देश के अनुसार खाना-पीना वस्त्र धारण आदि व्यवहार करके सब व्यवहार में सुखों को निरन्तर सेवन करना चाहिये॥९॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मनुष्या) मनुष्य लोगों! (यथा) जैसे (द्रविणोदा) यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाले विद्वान् मनुष्य, (यज्ञेषु) यज्ञों में (पिपीषति) सोम आदि रस पीने के इच्छुक होते हैं। (तथा) वैसे (एव) ही (यूयम्) आप सब (अपि) भी (तान्) उन (यज्ञान्) यज्ञों के (नेष्ठात्) विज्ञान का जो लक्ष्य है, (जुहोत) उसको प्राप्त कराने वाले हो। (तत्) उसको (कृत्वा) प्राप्त करके (ऋतुभिः) वसन्त आदि ऋतुओं के योग से (सुखैः) सुख से (प्रकृष्टतया) प्रमुख रूप से (तिष्ठत) प्रतिष्ठा को प्राप्त हों (च) और (प्रतिष्ठध्वम्) सब विधियों के होते हुए (तत्) उस (विद्याम्) विद्या को (इष्यत) विशेष रूप से जानो॥९॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (द्रविणोदाः) यज्ञानुष्ठाता मनुष्यः (पिपीषति) सोमादिरसान् पातुमिच्छति। अत्र 'पीङ्' धातोः सन् व्यत्ययेन परस्मैपदं च। (जुहोत) दत्तादत्त वा। (प्र) प्रकृष्टार्थे (च) समुच्चयार्थे (तिष्ठत) प्रतिष्ठां प्राप्नुत। अत्र वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति नियमात् समवप्रविभ्यः स्थः। (अष्टा०१.३.२२) इत्यात्मनेपदं न भवति। (नेष्ट्रात्) विज्ञानहेतोः। अत्र णेषृ गतौ इत्यस्मात् सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। (उणा०४.१५९) इति बाहुलकात् ष्ट्रन् प्रत्ययः। (ऋतुभिः) वसन्तादिभिर्योगे (इष्यत) विजानीत॥९॥
विषयः- यज्ञकर्त्तॄणामृतुषु कर्त्तव्यान्युपदिश्यन्ते।
अन्वयः- हे मनुष्या ! यथा द्रविणोदा यज्ञानुष्ठाता विद्वान् मनुष्यो यज्ञेषु सोमादिरसं पिपीषति तथैव यूयमपि तान् यज्ञान् नेष्ट्रात् जुहोत। तत्कृत्वर्त्तुभिर्योगे सुखैः प्रकृष्टतया तिष्ठत प्रतिष्ठध्वं तद्विद्यामिष्यत च॥९॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सत्कर्मणोऽनुकरणमेव कर्त्तव्यं, नासत्कर्मणः। सर्वेष्वृतुषु यथायोग्यानि कर्म्माणि कर्त्तव्यानि। यस्मिन्नृतौ यो देशः स्थातुं गन्तुं योग्यस्तत्र स्थातव्यं गन्तव्यं च तत्तद्देशानुसारेण भोजनाच्छादनविहाराः कर्त्तव्याः। इत्यादिभिर्व्यवहारैः सुखानि सततं सेव्यानीति॥९॥
विषय
विद्वान् पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
ऋत्विजों को ऐश्वर्य प्रदान करने वाला पुरुष जिस प्रकार सोम रसों का पान करता है उसी प्रकार ( द्रविणोदाः ) ऐश्वर्य प्रदान करने में समर्थ राजा ही ऐश्वर्य को ( पिपीषति ) भोग करने की अभिलाषा करता है । इसलिये हे वीरो ! विद्वान् जनो ! आप लोग ( जुहोत ) शस्त्रों का प्रहार करो, एवं परस्पर का लेन देन व्यवहार करो। और ( प्र तिष्ठत च ) आगे बढ़ो । और ( ऋतुभिः ) प्राणों के बल से जिस प्रकार मनुष्य ( नेष्ट्रात् ) व्यापक आत्मा या मन से ही समस्त इच्छाएं करते हैं और जिस प्रकार प्राणि ऋतुओं के सहित सबके नायक सूर्य से ही सब इष्ट फल प्राप्त करते हैं उसी प्रकार हे वीर पुरुषो ! तुम लोग भी ( ऋतुभिः ) ज्ञानवान् पुरुषों सहित ( नेष्ट्रात् ) सबसे आगे चलने वाले नायक पुरुषस से ही ( इष्यत ) अपने इष्ट कार्यों को प्राप्त करो, उनकी आज्ञा पर चलो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१=१२ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—ऋतवः । १ इन्द्रः । २ मरुतः । ३ त्वष्टा । ४ अग्निः । ५ इन्द्रः । ६ मित्रावरुणौ । ७—१० द्रविणोदाः। ११ अश्विनौ । १२ अग्निः । गायत्री ॥ षड्जः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी सत्कर्माचे अनुकरण करावे. असत्कर्म करू नये व सर्व ऋतूंमध्ये सर्व सुखासाठी यथायोग्य कर्म केले पाहिजे व ज्या ऋतूमध्ये जे स्थान राहण्यायोग्य असेल व जाण्यायेण्यायोग्य असेल त्यात राहणे व जाणे-येणे आणि त्या स्थानानुसार खाणे, पिणे, वस्त्र नेसणे इत्यादी व्यवहार करून सुखाचे निरंतर सेवन केले पाहिजे. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The generous devotee of yajna thirsts for a drink of soma, the wealth and joy of life. Listen ye all, perform the yajna and be steadfast therein. Know the art and secrets of yajna and create wealth from yajnic studies of natural energy such as electricity, in accordance with the seasons.
Subject of the mantra
The deeds to be performed by those performing yajans have been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyā)=men, (yathā)=as, (draviṇodā)=scholars who perform religious austerities, (yajñeṣu)=in yajnas, (pipīṣati)=desirious of drinking Soma (juice of herbs) et cetera, (tathā)=in the are having desire of drinking Soma (juice of herbs) et cetera drinks same way, (eva)=only, (yūyam)=you all, (api)=as well, (tān)=to those, (yajñān)=of yajňas, (neṣṭhāt)= that goal of special knowledge, (juhota)=are providers of that, (tat)=to that, (kṛtvā)=after attaining, (ṛtubhiḥ)=by incidence of spring et cetera seasons, (sukhaiḥ)=with happiness, (prakṛṣṭatayā)=mainly, (tiṣṭhata)=achieve reputation, (ca)=and, (pratiṣṭhadhvam)=despite all methods, (tat)=that, (vidyām)=knowledge, (iṣyata)=must know specifically.
English Translation (K.K.V.)
O Men! As scholars who perform religious austerities, in yajans, are having desire of taking Soma (juice of herbs ) et cetera drinks. In the same way only, you all are providers of that goal of special knowledge as well. Achieving that reputation, by incidence of spring et cetera seasons with happiness, mainly after attaining that reputation and despite all methods, you must know specifically and gain that knowledge.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is latent simile in this mantra. Human beings should learn good works, not evil ones and should do proper deeds for all the pleasures in all the seasons and in the season in which the country is fit to stay or commute, at the same time the position or departure and according to that country by eating, drinking, wearing clothes, etc., one should constantly enjoy pleasures in all dealings.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the performers of yajnas in seasons are taught in the ninth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, as a charitable (giver of wealth in charity) performer of Yajnas desires to drink the Soma Juice in non-violent sacrifices, in the same way, you should also perform those Yajnas for the sake of knowledge. Having done so, according to the seasons, be established in various kinds of happiness and desire to know that science.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(द्रविणोदा:) यज्ञानुष्ठाता मनुष्य: धनदाता- उदारइत्यर्थः (नेष्ट्रात ) विज्ञानहेतोः अत्र नेष्टृ-गतौ इत्यस्मात् सर्वधातुभ्यःष्ट्रन् (उणा. ४. १६३) इति बाहुलकात् ष्ट्न् प्रत्ययः । (जुहोत ) दत्त आदत्त वा (इष्यत) विजानीत ।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should imitate only Good actions and not bad. In all seasons only proper actions should be performed. One should go and stay where it is suitable and proper and one should properly eat and drink and dress according to the place where he dwells. Men should enjoy happiness constantly by acting according to these directions.
Translator's Notes
जुहोत is from हु-दानादनयो: to give and take. इष्यत is from इष-गतौ गतेस्त्रयोऽर्थां: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च having taken the first of these three meanings, Rishi Dayananda has translated it as विजानित or know.
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