Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 15 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 15/ मन्त्र 11
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अश्वि॑ना॒ पिब॑तं॒ मधु॒ दीद्य॑ग्नी शुचिव्रता। ऋ॒तुना॑ यज्ञवाहसा॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्वि॑ना । पिब॑तम् । मधु॑ । दीद्य॑ग्नी॒ इति॒ दीदि॑ऽअग्नी । शु॒चि॒ऽव्र॒ता॒ । ऋ॒तुना॑ । य॒ज्ञ॒ऽवा॒ह॒सा॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विना पिबतं मधु दीद्यग्नी शुचिव्रता। ऋतुना यज्ञवाहसा॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विना। पिबतम्। मधु। दीद्यग्नी इति दीदिऽअग्नी। शुचिऽव्रता। ऋतुना। यज्ञऽवाहसा॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 15; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सूर्य्याचन्द्रमसोर्ऋतुयोगे गुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यूयं यौ शुचिव्रता यज्ञवाहसा दीद्यग्नी अश्विनौ मधु पिबतं पिबत ऋतुना ऋतुभिः सह रसान् गमयतस्तौ विजानीत॥११॥

    पदार्थः

    (अश्विना) सूर्य्याचन्द्रमसौ। सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः सर्वत्र। (पिबतम्) पिबतः। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (मधु) मधुरं रसम् (दीद्यग्नी) दीदिर्दीप्तिहेतुरग्निर्ययोस्तौ (शुचिव्रता) शुचिः पवित्रकरं व्रतं शीलं ययोस्तौ (ऋतुना) ऋतुभिः सह (यज्ञवाहसा) यज्ञान् हुतद्रव्यान् वहतः प्रापयतस्तौ॥११॥

    भावार्थः

    ईश्वर उपदिशति-मया यौ सूर्य्याचन्द्रमसावित्यादिसंयुक्तौ द्वौ द्वौ पदार्थौ कार्य्यसिद्ध्यर्थमीश्वरेण संयोजितौ, हे मनुष्या ! युष्माभिस्तौ सम्यक् सर्वर्त्तुकं सुखं व्यवहारसिद्धिं च प्रापयत इति बोध्यम्॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर ऋतुओं के साथ में सूर्य्य और चन्द्रमा के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

    पदार्थ

    हे विद्वान् लोगो ! तुमको जो (शुचिव्रता) पदार्थों की शुद्धि करने (यज्ञवाहसा) होम किये हुए पदार्थों को प्राप्त कराने तथा (दीद्यग्नी) प्रकाशहेतुरूप अग्निवाले (अश्विना) सूर्य्य और चन्द्रमा (मधु) मधुर रस को (पिबतम्) पीते हैं, जो (ऋतुना) ऋतुओं के साथ रसों को प्राप्त करते हैं, उनको यथावत् जानो॥११॥

    भावार्थ

    ईश्वर उपदेश करता है कि मैंने जो सूर्य्य चन्द्रमा तथा इस प्रकार मिले हुए अन्य भी दो-दो पदार्थ कार्यों की सिद्धि के लिये संयुक्त किये हैं, हे मनुष्यो ! तुम अच्छी प्रकार सब ऋतुओं के सुख तथा व्यवहार की सिद्धि को प्राप्त करते हो, इनको सब लोग समझें॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अश्विनीदेवों का मधुपान

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार हम तुरीय ब्रह्म का उपासन करनेवाले हों । होंगे तब जबकि हम यौवन में ही सोम को सुरक्षित करनेवाले बनेंगे । इस सोमरक्षण के लिए मुख्य साधन प्राणायाम है , अतः यह प्राणसाधना करनेवाला प्रार्थना करता है कि (अश्विना) - हे प्राणापानो! (मधु पिबतम्) - आप सब अन्नों के सारभूत इस सोम का पान करो । जैसे शहद सब पुष्परसों का सारभूत होता है , वैसे ही यह सोम सब खाये गये भोजनों का साररूप है । प्राणसाधना से इसकी शरीर में ऊर्ध्वगति होती है । 

    २. इस सोम की ऊर्ध्वगति के द्वारा ये प्राणापान (दीद्यग्नी) - ज्ञानाग्नि को दीप्त करनेवाले होते हैं । ज्ञानाग्नि का ईंधन यह सोम ही तो है । 

    ३. इन सोमकणों के द्वारा ही ये प्राणापान (शुचिवता) - पवित्र व्रतोंवाले होते हैं । सोम का संयम होने पर अशुभ वासनाएँ विनष्ट हो जाती हैं , मन की मैल दूर हो जाती और यह संयमी पुरुष लोकहित की पवित्र भावनाओं को लेकर जीवन में चलता है एवं पवित्र व्रतोंवाला होता है । 

    ४. इस प्रकार है प्राणापानो! आप मेरे जीवन में (ऋतुना) - समय से , अर्थात् यौवन में ही (यज्ञवाहसा) - यज्ञों का धारण करनेवाले होते हो । 'मुझे धर्म की रुचि बुढ़ापे में ही प्राप्त हो' - सो नहीं । यदि ऐसा होता तब तो मेरी कितनी दयनीय स्थिति होती , चूँकि जब शक्ति थी तब धर्मरुचि नहीं थी और अब धर्मरुचि आई तो शक्ति नहीं रही । ये प्राणापान सोम के संयम द्वारा मेरे यौवन में ही यज्ञों का प्रणयन करनेवाले होते हैं । 

     

     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राण-साधना से सोम का संयम होने पर मेरे मस्तिष्क में दीप्त ज्ञानाग्नि होती है । मेरे हृदय में पवित्र व्रत होते हैं और मेरे हाथ यज्ञों का वहन करनेवाले । 

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर ऋतुओं के साथ में सूर्य्य और चन्द्रमा के गुणों का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्वांसः ! यूयं यौ शुचिव्रता यज्ञवाहसा दीद्यग्नी अश्विनौ मधु पिबतं पिबत ऋतुना ऋतुभिः सह रसान् गमयतः तौ विजानीत॥११॥

    पदार्थ

    हे (विद्वांसः)=विद्वान् लोगों! (यूयम्)=आप सब, (यौ)=जो दोनों, (शुचिव्रता) शुचिः पवित्रकरं व्रतं शीलं ययास्तौ=पदार्थों की शुद्धि का व्रत और स्वभाव है जिनका, ऐसे दोनो, (यज्ञवाहसा) यज्ञान् हुतद्रव्यान् वहतः प्रापयतस्तौ=यज्ञों में आहुति दिये हुए द्रव्यों को जो ले जाता है, (दीद्यग्नी) दीदिर्दीप्तिहेतुरग्निर्ययोस्तौ=प्रकाश देने के लिये अग्नि वाले जो दोनों, (अश्विनौ) सूर्य्याचन्द्रमसौ=सूर्य और चन्द्रमा, (मधु) मधुर रसम्=मधुर रस, (पिबतम्-पिबतः)=पीते हैं, (ऋतुना) ऋतुभिः सह=ऋतुओं के साथ, (रसान्)=रसों को, (गमयतः) प्राप्त कराते हैं, (तौ)=उन दोनों को, (विजानीत)=अच्छी तरह जानो ॥११॥ 
     

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    ईश्वर उपदेश करता है कि उसने जो सूर्य्य चन्द्रमा तथा इस प्रकार मिले हुए अन्य भी दो-दो पदार्थ कार्यों की सिद्धि के लिये संयुक्त किये हैं। हे मनुष्यो ! तुम अच्छी प्रकार सब ऋतुओं के सुख तथा व्यवहार की सिद्धि को प्राप्त करते हो, इनको सब लोग समझें ॥११॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (विद्वांसः) विद्वान् लोगों! (यूयम्) आप सब (यौ) जिन दोनों (शुचिव्रता)  पदार्थों जिनका का शुद्धि का व्रत और स्वभाव है,  (यज्ञवाहसा) जो यज्ञों में आहुति दिये हुए द्रव्यों को ले जाते हैं, (दीद्यग्नी) प्रकाश देने के लिये अग्नि वाले जो दोनों (अश्विनौ) सूर्य और चन्द्रमा (मधु)  मधुर रस (पिबतम्) पीते हैं। (ऋतुना) ऋतुओं के साथ (रसान्) रसों को (गमयतः) प्राप्त कराते हैं, (तौ) उन दोनों को (विजानीत) अच्छी तरह जानो ॥११॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अश्विना) सूर्य्याचन्द्रमसौ। सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः सर्वत्र। (पिबतम्) पिबतः। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (मधु) मधुरं रसम् (दीद्यग्नी) दीदिर्दीप्तिहेतुरग्निर्ययोस्तौ (शुचिव्रता) शुचिः पवित्रकरं व्रतं शीलं ययोस्तौ (ऋतुना) ऋतुभिः सह (यज्ञवाहसा) यज्ञान् हुतद्रव्यान् वहतः प्रापयतस्तौ॥११॥
    विषयः- पुनः सूर्य्याचन्द्रमसोर्ऋतुयोगे गुणा उपदिश्यन्ते।

    अन्वयः- हे विद्वांसो ! यूयं यौ शुचिव्रता यज्ञवाहसा दीद्यग्नी अश्विनौ मधु पिबतं पिबत ऋतुना ऋतुभिः सह रसान् गमयतस्तौ विजानीत॥११॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः) - ईश्वर उपदिशति-मया यौ सूर्य्याचन्द्रमसावित्यादिसंयुक्तौ द्वौ द्वौ पदार्थौ कार्य्यसिद्ध्यर्थमीश्वरेण संयोजितौ, हे मनुष्या ! युष्माभिस्तौ सम्यक् सर्वर्त्तुकं सुखं व्यवहारसिद्धिं च प्रापयत इति बोध्यम्॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा रानी, प्राण अपान का वर्णन

    भावार्थ

    ( अश्विना ) देह में व्यापक ( दीद्यग्नी ) जाठर अग्नि से स्वतः प्रदीप्त होने वाले ( शुचि-व्रता ) शरीर को शुद्ध करने वाले कर्मों के करने वाले होकर ( मधु ) अन्न का मधुर रस ( ऋतुना ) मुख्य प्राण के बल से पान करते हैं और वे दोनों ( यज्ञवाहसा ) आत्मा को धारण करते हैं । इसी प्रकार ( शुचिव्रता ) शुद्ध कर्मों और नियमों वाले ( दीद्यग्नी ) अग्नि के समान स्वयं प्रकाशमान, अथवा राजारूप अग्रणी नेता पद के साथ प्रकाशित होने वाले, उसके संग विराजमान होकर ( अश्विना ) हे अश्वों पर चढ़ने वाले दो मुख्य अधिकारियो ! या राजा रानियो ! तुम दोनों ( यज्ञवाहसा ) राष्ट्ररूप यज्ञ, प्रजापालक प्रजापति पद को धारण करते हुए ( ऋतुना ) ऋतु अनुकूल, या बल से राज्य को प्राप्त करने वाले सामर्थ्य से ही ( मधु ) मधुर राष्ट्र के ऐश्वर्य का ( पिबतम् ) पान करो, उसका उपभोग करो । राष्ट्र का धारण पोषण करना ही उसका उपभोग करना है । राष्ट्र को दुर्व्यसनों में नाश करना उसका भोग करना नहीं है। इसी प्रकार ( अश्विना ) एक दूसरे के हृदय में व्यापक, एक दूसरे के भोक्ता, पति पत्नी ( शुचिव्रता ) शुद्ध नियम व्रत का पालन करते हुए ( दीद्यग्नी ) अग्निहोत्र में अग्नि को प्रज्वलित करने वाले, आहिताग्नि होकर ( यज्ञवाहसा ) गार्हस्थ्य या परस्पर संगत यज्ञ को धारण करने वाले होकर ( ऋतुना ) ऋतु के अनुसार ( मधु ) मधुर गृहस्थ सुख का भोग करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १=१२ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—ऋतवः । १ इन्द्रः । २ मरुतः । ३ त्वष्टा । ४ अग्निः । ५ इन्द्रः । ६ मित्रावरुणौ । ७—१० द्रविणोदाः। ११ अश्विनौ । १२ अग्निः । गायत्री ॥ षड्जः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वर उपदेश करतो की मी जे सूर्य, चंद्र व या प्रकारे इतरही दोन दोन पदार्थ कार्याच्या सिद्धीसाठी संयुक्त केलेले आहेत, हे माणसांनो! तुम्ही चांगल्या प्रकारे सर्व ऋतूंचे सुख व व्यवहाराची सिद्धी प्राप्त करता ते सर्वांनी समजून घ्यावे. ॥ ११ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ashvins, twin powers of sun and moon, earth and heaven, night and day, vested with light and fire, committed to purification, carriers of the fragrance of yajna, create and receive the honey-sweets of yajna according to the seasons.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Then again, qualities of the Sun and the Moon have been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvāṃsaḥ)=Scholars, (yūyam)=all of you, (yau)=of those two, (śucivratā)=who have nature and taken a vow of sanctity of substances, (yajñavāhasā)=who take away he substances offered in yajna, (dīdyagnī)=those two energetic provider of light, (aśvinau)=Sun and moon, (madhu)=sweet juice, (pibatam)=drink, (ṛtunā)=with seasons, (rasān)=juices, (gamayataḥ)=get obtained, (tau)=to those two, (vijānīta)=know properly.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholars! Those two amidst all of you, who have nature and taken a vow to sanctity the substances, who take away the substances offered in yajan. Those two energetic providers of light, Sun and Moon drink sweet juices with seasons. Get obtained juices with seasons and know both of them properly.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God preaches that the Sun, the Moon and the other two substances mixed together in this way have been combined for the accomplishment of the works. O human beings! You achieve the happiness of all seasons and the accomplishment of your behavior. Everyone should understand this.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the attributes of the sun and the moon in conjunction with different seasons are taught in the eleventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons, you should know the sun and the moon, whose acts are pure, which are bright with flames and rays, which cause us attain the oblations put in the Yajnas (non-violent sacrifices) and which drink the sweet sap with seasons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God says, the pairs like the sun and the moon which I have made for the accomplishment of various works, cause the attainment of happiness in all seasons and acquisition of perfection in dealings.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top