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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ब्राह्म॑णादिन्द्र॒ राध॑सः॒ पिबा॒ सोम॑मृ॒तूँरनु॑। तवेद्धि स॒ख्यमस्तृ॑तम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्राह्म॑णात् । इ॒न्द्र॒ । राध॑सः । पिब॑ । सोम॑म् । ऋ॒तून् । अनु॑ । तव॑ । इत् । हि । स॒ख्यम् । अस्तृ॑तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्राह्मणादिन्द्र राधसः पिबा सोममृतूँरनु। तवेद्धि सख्यमस्तृतम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्राह्मणात्। इन्द्र। राधसः। पिब। सोमम्। ऋतून्। अनु। तव। इत्। हि। सख्यम्। अस्तृतम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 15; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    ऋतुना सह वायुः किं करोतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    य इन्द्रो वायुर्ब्राह्मणाद्राधसोऽन्वृतून् सोमं पिब पिबति गृह्णाति हि खलु तस्य वायोरस्तृतं सख्यमस्ति॥५॥

    पदार्थः

    (ब्राह्मणात्) ब्राह्मणो बृहतोऽवयवात्। अत्र अनुदात्तादेश्च। (अष्टा०४.३.१४०) इत्यवयवार्थेऽञ् प्रत्ययः। (इन्द्र) ऐश्वर्य्यजीवनहेतुत्वाद्वायुः। (राधसः) पृथिव्यादिधनात्। अत्र सर्वधातुभ्योऽसुन् इत्यसुन् प्रत्ययः। (पिब) पिबति गृह्णाति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट्, द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (सोमम्) पदार्थरसम् (ऋतूनू) रसाहरणसाधकान् (अनु) पश्चात् (तव) तस्य प्राणरूपस्य (इत्) एव (हि) खलु (सख्यम्) मित्रस्य भाव इव (अस्तृतम्) हिंसारहितम्॥५॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्जगत्स्रष्ट्रेश्वरेण ये ये यस्य यस्य वाय्वादेः पदार्थस्य मध्ये नियमा स्थापितास्तान् विदित्वा कार्य्याणि साधनीयानि, तत्सिद्ध्या सर्वर्तुषु सर्वप्राण्यनुकूलं हितसम्पादनं कार्य्यम्। युक्त्या सेविता एते मित्रवद्भवन्त्ययुक्त्या च शत्रुवदिति वेद्यम्॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    ऋतुओं के साथ वायु क्या-क्या कार्य्य करता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    जो (इन्द्र) ऐश्वर्य्य वा जीवन का हेतु वायु (ब्राह्मणात्) बड़े का अवयव (राधसः) पृथिवी आदि लोकों के धन से (अनुऋतून्) अपने-अपने प्रभाव से पदार्थों के रस को हरनेवाले वसन्त आदि ऋतुओं के अनुक्रम से (सोमम्) सब पदार्थों के रस को (पिब) ग्रहण करता है, इससे (हि) निश्चय से (तव) उस वायु का पदार्थों के साथ (अस्तृतम्) अविनाशी (सख्यम्) मित्रपन है॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि जगत् के रचनेवाले परमेश्वर ने जो-जो जिस-जिस वायु आदि पदार्थों में नियम स्थापन किये हैं, उन-उनको जान कर कार्य्यों को सिद्ध करना चाहिये, और उन से सिद्ध किये हुए धन से सब ऋतुओं में सब प्राणियों के अनुकूल हित सम्पादन करना चाहिये, तथा युक्ति के साथ सेवन किये हुए पदार्थ मित्र के समान होते और इससे विपरीत शत्रु के समान होते हैं, ऐसा जानना चाहिये॥५॥

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    विषय

    ब्राह्मणराधस् [ब्रह्म - सम्बन्धी सम्पत्ति]

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में सोमपान से दैवी सम्पति को प्राप्ति का उल्लेख था । उस दैवी सम्पति को प्राप्त करके यह सोमपान करनेवाला 'ब्राह्मसम्पत्ति' को प्राप्त करता है । हे (इन्द्र) - जितेन्द्रिय पुरुष! तू (ब्राह्मणात्) - ब्रह्म - सम्बन्धी (राधसः) - धन के दृष्टिकोण से - ब्रह्मसम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए (ऋतून् अनु) - समय का ध्यान करके (सोमम् पिब) - सोम का पान कर । यौवन में ही शक्ति का सञ्चय करने से हमें इस जीवन में ही अवश्य ब्रह्मसम्पत्ति प्राप्त होगी । 

    २. ऐसा होने पर (तव) - तेरा (इत् हि) - निश्चय से (सख्यम्) - ब्रह्म के साथ सख्य (अस्तृतम्) - अविच्छिन्न होता है - तू ब्रह्म से निरन्तर मैत्रीवाला होता है । जो भी व्यक्ति शरीर में इस सोम की रक्षा करता है , वह उस सोमप्रापक प्रभु से अभिन्न मैत्रीवाला होता है । यही ब्रह्मसम्बन्धी सम्पत्ति है । इस सम्पत्ति को प्राप्त करने के उद्देश्य से हमें समय पर ही सोम की शरीर में रक्षा करनी चाहिए । 

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में शक्ति के रक्षण से ब्राह्मीसम्पत्ति प्राप्त होती है । इस सम्पत्ति को प्राप्त करके जीव 'ब्रह्म इव' हो जाता है । 

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    विषय

    ऋतुओं के साथ वायु क्या-क्या कार्य्य करता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    य इन्द्रः वायुः ब्राह्मणात् राधसः अनु ऋतून्  सोमं पिब  पिबति  गृह्णाति हि खलु तस्य वायुः अस्तृतं  सख्यम् अस्ति ॥५॥

    पदार्थ

    (यः)=जो, (इन्द्रः) ऐश्वर्यजीवनहेतुत्वाद्वायुः=ऐश्वर्य या जीवन का हेतु, (वायुः)=वायु, (ब्राह्मणात्) ब्राह्मणो बृहतोऽवयवात् =बड़े वर्ग का हिस्सा ब्राह्मण, (राधसः) पृथिव्यादिधनात्=पृथिवी आदि धनों से, (अनु) पश्चात्=बाद में, (ऋतून्) रसाहरणसाधकान्=रस को ले जाने वाले साधन,  (सोमम्) पदार्थरसम्=पदार्थों के रस, (पिब-पिबति) गृह्णाति=पीता या ग्रहण करता है, (हि-खलु)=निश्चय से, (तस्य)=उसका, (वायुः)=वायु, (अस्तृतम्) हिंसारहितम्=हिंसारहित है जो, (सख्यम्) मित्रस्य भाव इव=मित्रता के भाव जैसा, (अस्ति)=है॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों को योग्य है कि जगत् के रचनेवाले परमेश्वर ने जो-जो और जिस-जिस वायु आदि पदार्थों में नियम स्थापन किये हैं। उन-उन को जान कर कार्य्यों को सिद्ध करना चाहिये। उन से सिद्ध किये हुए धन से सब ऋतुओं में सब प्राणियों के अनुकूल हित सम्पादन करना चाहिये। युक्ति के साथ सेवन किये हुए पदार्थ मित्र के समान होते हुए भी इससे विपरीत शत्रु के समान होते हैं, ऐसा जानना चाहिये॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यः) जो [यह] (इन्द्रः) ऐश्वर्य या जीवन का हेतु (वायुः) वायु (ब्राह्मणात्) बड़े वर्ग का हिस्सा ब्राह्मण से, (राधसः) पृथिवी आदि धनों से (अनु) और उसके बाद में  (ऋतून्) रस को ले जाने वाले साधन से (सोमम्) पदार्थों के रस (पिब-पिबति) पीता या ग्रहण करता है। (हि) निश्चय से (तस्य) उसका (वायुः) वायु (अस्तृतम्) हिंसारहित है, जो (सख्यम्) मित्रता के भाव जैसा (अस्ति) है॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (ब्राह्मणात्) ब्राह्मणो बृहतोऽवयवात्। अत्र अनुदात्तादेश्च। (अष्टा०४.३.१४०) इत्यवयवार्थेऽञ् प्रत्ययः। (इन्द्र) ऐश्वर्य्यजीवनहेतुत्वाद्वायुः। (राधसः) पृथिव्यादिधनात्। अत्र सर्वधातुभ्योऽसुन् इत्यसुन् प्रत्ययः। (पिब) पिबति गृह्णाति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट्, द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (सोमम्) पदार्थरसम् (ऋतूनू) रसाहरणसाधकान् (अनु) पश्चात् (तव) तस्य प्राणरूपस्य (इत्) एव (हि) खलु (सख्यम्) मित्रस्य भाव इव (अस्तृतम्) हिंसारहितम्॥५॥
    विषयः- ऋतुना सह वायुः किं करोतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- य इन्द्रो वायुर्ब्राह्मणाद्राधसोऽन्वृतून् सोमं पिब पिबति गृह्णाति हि खलु तस्य वायोरस्तृतं सख्यमस्ति॥५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्जगत्स्रष्ट्रेश्वरेण ये ये यस्य यस्य वाय्वादेः पदार्थस्य मध्ये नियमा स्थापितास्तान् विदित्वा कार्य्याणि साधनीयानि, तत्सिद्ध्या सर्वर्तुषु सर्वप्राण्यनुकूलं हितसम्पादनं कार्य्यम्। युक्त्या सेविता एते मित्रवद्भवन्त्ययुक्त्या च शत्रुवदिति वेद्यम्॥५॥ 

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    विषय

    गृहस्थों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! आत्मन् ! तू ( ऋतून् अनु ) प्राणों के सामर्थ्य से ( ब्राह्मणात् ) उस महान् परमेश्वर के ( राधसः ) आराधना, साधना या विभूति, ऐश्वर्य में से प्राप्त होनेवाले (सोमं ) उस परमानन्दमय रस को ( पिब ) पान कर। और हे आत्मन् ! ( तव उत् हि ) तेरा ही ( सख्यम् ) सख्य या मैत्रीभाव, प्रेम, ( अस्तृतम् ) कभी नष्ट नहीं होता । ‘आत्मनःस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति । बृहदा उप० । राजा के पक्ष में—हे राजन् ! तू ऋतुओं या मन्त्रिगण अथवा राजसभा सदस्यों सहित ( ब्राह्मणात् ) महान् राष्ट्र के ऐश्वर्य से अथवा वेदोक्त प्राप्त अपने अंश रूप ऐश्वर्य का ग्रहण कर । तेरे सख्य का कभी नाश नहीं होता।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १=१२ मेधातिथिः काण्व ऋषिः ॥ देवता—ऋतवः । १ इन्द्रः । २ मरुतः । ३ त्वष्टा । ४ अग्निः । ५ इन्द्रः । ६ मित्रावरुणौ । ७—१० द्रविणोदाः। ११ अश्विनौ । १२ अग्निः । गायत्री ॥ षड्जः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जगाची निर्मिती करणाऱ्या परमेश्वराने जे जे वायू इत्यादी पदार्थांबाबत नियम केलेले आहेत त्यांना जाणून माणसांनी कार्याची सिद्धी करावी व त्यांच्याद्वारे सिद्ध केलेल्या धनाने सर्व ऋतूंत सर्व प्राण्यांच्या अनुकूल असेल असे हित पाहावे व युक्तीने सेवन केलेले पदार्थ मित्राप्रमाणे असतात व या विपरीत शत्रूप्रमाणे असतात, हे जाणले पाहिजे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, pranic energy of air, according to the seasons drink the soma juices of nature from the earthly treasuries created by the Supreme Lord of the universe. The vital relation of life with you is universal and inviolable.

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    Subject of the mantra

    What does air do with seasons, this aspect has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ)=which, [yaha]=this, (indraḥ)=cause of grandeur or life, (vāyuḥ)=air, (brāhmaṇāt)=part of a big group of Brᾱhmans (persons of intellectual class), (rādhasaḥ)=earth et cetera substances, (anu)=afterwards, (ṛtūna)=means of taking away saps, (somam)=saps of substances, (piba)=sucks or takes, (hi)=certainly, (tasya)=his, (vāyuḥ)=air, (astṛtam)=non-violent, (sakhyam)=like gesture of friendship, (asti)=is.

    English Translation (K.K.V.)

    This air, which is grandeur or cause of life, sucks or takes away saps of substances, by part of a big group of Brahmans (persons of intellectual class), by earth et cetera substances and afterwards through means of taking away saps. Certainly, his air is non-violent, which is like gesture of friendship.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Which, preferable to human beings that God, the creator of the world, has established rules in whatever air etc. Knowing them and doing their tasks should be accomplished. With the wealth acquired from Him, the favourable interests of all beings should be performed in all seasons. The substances must be consumed skillfully as well. Contrary to this, they are equal to the enemy, it should be known.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What does the air do with the seasons is told in the next Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The air takes the sap of the substances according to the seasons which are means of taking the same from the wealth in the form of the earth etc. made by the Supreme Being un-interrupted or inviolable is the friendship of the air in the form of the Prana or vital energy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (राधस:) पृथिव्यादिधनात् । = From the wealth in the form of the earth etc. (ऋतून) रसाहरणसाधकान् || = Seasons which bring sap.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should know the laws which are operating in the air and other elements established by God and they should accomplish their works. By the accomplishment of those works, they should bring about the welfare of all beings in all seasons. It should be borne in mind that when all these substances are used methodically in a proper manner, they become like friends, otherwise they become inimical to us.

    Translator's Notes

    In his commentary on the above Mantra, Rishi Dayananda has taken Indra for Vayu i. e. air or Prana, though he has not cited authorities. The following passages among many others may be quoted to substantiate his interpretation. अयं वा इन्द्रो योऽयं (वातः) पवते (शतपथ ० १४.२.२६ ) यो वै वायुः स इन्द्रो य इन्द्रः स वायुः ॥ ( शत० ४.१. ३.९ ) सर्व वा इदमिन्द्राय स्थानमास यदिदं किंचापि योऽयं ( वायुः ) पवते । (शत० ३.९.४.१४ ) In these passages from Shatapath Brahmana, the meaning of the word Indra as वायु or air is clearly given. In his commentary Rishi Dayananda while explaining तवेन्द्रं सख्यमस्तृतम् has stated तव तस्य प्राणरूपस्य so he has taken Indra or Vayu as Prana for which the following passages may be aptly quoted- ततः प्राणोऽजायत स प्राणः इन्द्रः (शत० १४.४.३.१९ ) प्राण एवेन्द्र (शत० १२.९.१.१४) प्राण इन्द्रः । (शत० ६.१.२.२८) Besides the above interpretation of the Mantra regarding Vayu or air, the following spiritual (Adhyatmik) interpretation may also be given taking Indra for soul. "Omy soul ! drink the spiritual juice (of devotion) which is the gift of God, in all seasons, following the wise. Thy friendship with God is invincible and inviolable." (ऋतून्) विदुषः ऋतवो वै देवाः (शत० ७.२.४.६) The word Ritu in this spiritual interpretation may be taken for the wise enlightened persons.

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