ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 152/ मन्त्र 2
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒तच्च॒न त्वो॒ वि चि॑केतदेषां स॒त्यो मन्त्र॑: कविश॒स्त ऋघा॑वान्। त्रि॒रश्रिं॑ हन्ति॒ चतु॑रश्रिरु॒ग्रो दे॑व॒निदो॒ ह प्र॑थ॒मा अ॑जूर्यन् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तत् । च॒न । त्वः॒ । वि । चि॒के॒त॒त् । ए॒षा॒म् । स॒त्यः । मन्त्रः॑ । क॒वि॒ऽश॒स्तः । ऋघा॑वान् । त्रिः॒ऽअश्रि॑म् । ह॒न्ति॒ । चतुः॑ऽअश्रिः । उ॒ग्रः । दे॒व॒ऽनिदः॑ । ह॒ । प्र॒थ॒माः । अ॒जू॒र्य॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतच्चन त्वो वि चिकेतदेषां सत्यो मन्त्र: कविशस्त ऋघावान्। त्रिरश्रिं हन्ति चतुरश्रिरुग्रो देवनिदो ह प्रथमा अजूर्यन् ॥
स्वर रहित पद पाठएतत्। चन। त्वः। वि। चिकेतत्। एषाम्। सत्यः। मन्त्रः। कविऽशस्तः। ऋघावान्। त्रिःऽअश्रिम्। हन्ति। चतुःऽअश्रिः। उग्रः। देवऽनिदः। ह। प्रथमाः। अजूर्यन् ॥ १.१५२.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 152; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
त्वः कश्चिदेवैषां विदुषां य ऋघावान् कविशस्तः सत्यो मन्त्रोऽस्ति एतत् विचिकेतत् यश्चतुरश्रिरुग्रो देवनिदो हन्ति त्रिरश्रिं चिकेतत् ते प्रथमा ह खलु प्रथमाश्चनाजूर्यन् ॥ २ ॥
पदार्थः
(एतत्) (चन) अपि (त्वः) कश्चित् (वि) (चिकेतत्) विजानाति (एषाम्) (सत्यः) अव्यभिचारी (मन्त्रः) विचारः (कविशस्तः) कविभिः मेधाविभिः शस्तः प्रशंसितः (ऋघावान्) ऋघाः बह्व्यः स्तुतयो सत्यासत्यविवेचिका मतयो विद्यन्ते यस्मिन् सः (त्रिरश्रिम्) त्रिभिर्वाङ्मनःशरीरैर्योऽश्यते प्राप्यते तम् (हन्ति) (चतुरश्रिः) चतुरो वेदानश्नुते सः (उग्रः) तीव्रस्वभावः (देवनिदः) ये देवान्निन्दन्ति तान् (ह) खलु (प्रथमाः) आदिमाः (अजूर्यन्) वृद्धा जायन्ते ॥ २ ॥
भावार्थः
ये मनुष्याः विद्वन्निन्दां विहाय निन्दकान् निवार्य सत्यं ज्ञानं प्राप्य सत्या विद्या अध्यापयन्तः सत्यमुपदिशन्तश्च पृथुसुखा जायन्ते ते धन्याः सन्ति ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ।
पदार्थ
(त्वः) कोई ही (एषाम्) इन विद्वानों में ऐसा है, जो कि (ऋघावान्) बहुत स्तुति और सत्य असत्य की विवेचना करनेवाली मतियों से युक्त (कविशस्तः) मेधावी कवियों ने प्रशंसित किया (सत्यः) अव्यभिचारी (मन्त्रः) विचार है (एतत्) इसको (विचिकेतत्) विशेषता से जानता है और जो (चतुरश्रिः) चारों वेदों को प्राप्त होता वह (उग्रः) तीव्र स्वभाववाला (देवनिदः) जो विद्वानों की निन्दा करते हैं उनको (हन्ति) मारता और (त्रिरश्रिम्) जो तीनों अर्थात् वाणी, मन और शरीर से प्राप्त किया जाता है ऐसे उत्तम पदार्थ को जानता है, उक्त वे सब (प्रथमाः) आदिम अर्थात् अग्रगामी अगुआ (ह) ही हैं और वे प्रथम (चन) ही (अजूर्यन्) बुड्ढे होते हैं ॥ २ ॥
भावार्थ
जो मनुष्य विद्वानों की निन्दा को छोड़ निन्दकों को निवार के सत्य ज्ञान को प्राप्त हो सत्य विद्याओं को पढ़ाते हुए और सत्य का उपदेश करते हुए विस्तृत सुख को प्राप्त होते हैं, वे धन्य हैं ॥ २ ॥
विषय
प्रभु-दर्शन तक
पदार्थ
१. (एषाम्) = इन प्राणसाधना करनेवालों में (त्वः) = कोई एक (एतत् चन) = इस ब्रह्म को भी (विचिकेतत्) = विशेषरूप से जाननेवाला होता है कि यह ब्रह्म (सत्यः) = सत्यस्वरूप है, (मन्त्र:) = ज्ञानस्वरूप है, (कविशस्तः) = ज्ञानियों से स्तुत्य है और (ऋघावान्) = सब बुराइयों का हिंसन करनेवाला है। प्राणसाधना का अन्तिम लाभ प्रभु-दर्शन है। यहाँ तक सब कोई नहीं पहुँचता, परन्तु इस साधना को निरन्तर करने पर मनुष्य प्रभु-दर्शन के योग्य बनता ही है। २. कोई प्राणसाधक (चतुरश्रि:) = [चतुर: वेदान् अश्नुते - द०] चारों वेदों को प्राप्त करनेवाला (उग्रः) = तेजस्वी व श्रेष्ठ [noble — आप्टे] बनकर (त्रिरश्रिम्) = [त्रीन् अश्नुते, इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते] इन्द्रियों, मन व बुद्धि पर आक्रमण करनेवाले काम को (हन्ति) = नष्ट करता है। इसके विपरीत भोगवाद में फँसे हुए और अतएव (देवनिदः) = उस महान् देव प्रभु के निन्दक (प्रथमाः) = प्रथम स्थान पर पहुँचे हुए भी (ह) = निश्चय से (अजूर्यन्) = जीर्ण हो जाते हैं। प्राणसाधना से उन्नति होती है, अतः इस प्राणसाधना में लगे ही रहना चाहिए। प्राणसाधना के छोड़ते ही मनुष्य भोगवाद में फँसता है, प्रभु को भूल जाता है और अपनी शक्तियों को जीर्ण कर बैठता है। -
भावार्थ
भावार्थ – प्राणसाधना मनुष्य को प्रभु-दर्शन तक ले चलेगी और उसका त्याग हमारी जीर्णता का कारण बनेगा।
विषय
सभ्यों के लक्षण ।
भावार्थ
( एषां ) इन लोगों में से ( त्वः चन ) कोई ही ऐसा उत्तम ( सत्यः ) सत्यभाषी, सज्जनों का हितैषी ( मन्त्रः ) मननशील, विचारवान्, (कविशस्तः) विद्वानों से उपदेश प्राप्त ( ऋघावान् ) नाना सत्या सत्य विवेक करने वाली मति से युक्त होता है जो ( चतुरश्रिः ) चारों वेदों को प्राप्त करके अथवा चारों वर्गों का उत्तम साधक, ( त्रिरश्रिम् ) वाणी, मन और शरीरों से भोग करने योग्य अथवा तीनों गुणों को ( हन्ति ) प्राप्त करता है और (उग्रः) उग्रः बलवान् होकर इस जगत् को (हन्ति) विजय करता है और भली प्रकार जानता है । प्रायः (देवनिदः) विद्वानों की निन्दा करने वाले ( प्रथमाः ) अन्य सब बातों में श्रेष्ठ होकर भी ( अजूर्यन् ) नाश को प्राप्त हो जाते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः– १, २, ४, ५, ६ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे विद्वानांची निंदा सोडून निंदकाचे निवारण करतात, सत्य ज्ञान प्राप्त करतात व सत्य विद्या शिकवून सत्याचा उपदेश करून सुख प्राप्त करतात ती धन्य होत. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This much, may be, one of these wise ones may know, one who knows the truth, thinks aright, and is recognised and praised by scholars of distinction as a man of vision and discrimination. The brilliant scholar of the four Vedas masters the three dimensions of knowledge: pure knowledge of Rks, applied knowledge of Yajus, and the meditative knowledge of sweet Samans, and, being the prime force and power of wisdom ever true, never out of date, defeats those who deny and dishonour the divinities of existence and eminence of knowledge.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The men of right conduct are hailed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
It is only one out of many, who understands well the thinking of these enlightened persons. His views are highly admired by the wise, as he is capable to distinguish between the truth and untruth. In fact, such a person is well-versed in four Vedas, and can keep off the wicked, being mighty, and slay the revilers of enlightened truthful persons. To the right person, he serves with mind body and speech. Such enlightened persons are the leaders of the society and they are mature and experienced.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Blessed are those persons who have given up the bad habits of reviling the enlightened men, keep away such revilers, acquire true knowledge, teach various useful sciences and always preach truth. They enjoy much happiness.
Foot Notes
(ऋघावान्) ऋधा: बहव्यः स्तुतयः सत्यासत्यविवेचिका मतयो विद्यन्ते यस्मिन् सः -Containing the power of discrimination between truth and untruth. ( त्रिरश्रिम् ) त्रिभिर्वाङ्मनः शरीरै यः अश्यते प्रायते तम् = To the person who is approached or served with mind, body and speech. (चतुरश्रि:) चतुरो वेदान् अश्नुते सः - Well-versed in all the four Vedas.
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