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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 152 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 152/ मन्त्र 7
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ वां॑ मित्रावरुणा ह॒व्यजु॑ष्टिं॒ नम॑सा देवा॒वव॑सा ववृत्याम्। अ॒स्माकं॒ ब्रह्म॒ पृत॑नासु सह्या अ॒स्माकं॑ वृ॒ष्टिर्दि॒व्या सु॑पा॒रा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वा॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । ह॒व्यऽजु॑ष्टिम् । नम॑सा । देवौ॑ । अव॑सा । व॒वृ॒त्या॒म् । अ॒स्माक॑म् । ब्रह्म॑ । पृत॑नासु । स॒ह्याः॒ । अ॒स्माक॑म् । वृ॒ष्टिः । दि॒व्या । सु॒ऽपा॒रा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वां मित्रावरुणा हव्यजुष्टिं नमसा देवाववसा ववृत्याम्। अस्माकं ब्रह्म पृतनासु सह्या अस्माकं वृष्टिर्दिव्या सुपारा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। वाम्। मित्रावरुणा। हव्यऽजुष्टिम्। नमसा। देवौ। अवसा। ववृत्याम्। अस्माकम्। ब्रह्म। पृतनासु। सह्याः। अस्माकम्। वृष्टिः। दिव्या। सुऽपारा ॥ १.१५२.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 152; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे देवौ मित्रावरुणा यथाहं वां नमसा हव्यजुष्टिमाववृत्यां तथा युवामवसाऽस्माकं पृतनासु ब्रह्म वर्द्धयेतम्। हे विद्वन् याऽस्माकं दिव्या सुपारा वृष्टिरस्ति तां त्वं सह्याः ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (आ) (वाम्) युवाभ्याम् (मित्रावरुणा) सुहृद्वरौ (हव्यजुष्टिम्) आदातव्यसेवाम् (नमसा) अन्नेन (देवौ) दिव्यस्वभावौ (अवसा) रक्षणाद्येन कर्मणा (ववृत्याम्) वर्त्तयेयम्। अत्र बहुलं छन्दसीति शपः श्लुः। (अस्माकम्) (ब्रह्म) धनम् (पृतनासु) मनुष्येषु (सह्याः) सहनं कुर्य्याः (अस्माकम्) (वृष्टिः) दुष्टानां शक्तिबन्धिका शक्तिः (दिव्या) शुद्धा (सुपारा) सुखेन पारः पूतिर्यस्याः सा ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    यथा विद्वांसोऽतिप्रीत्याऽस्मभ्यं विद्याः प्रदद्युस्तथा वयमेतानतिश्रद्धया सेवेमहि यतोऽस्माकं शुद्धा प्रशंसा सर्वत्र विदिता स्यादिति ॥ ७ ॥अत्राध्यापकोपदेशकशिष्यक्रमवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्बोध्या ॥ इति द्विपञ्चाशदुत्तरं शततमं सूक्तं द्वाविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ।

    पदार्थ

    हे (देवौ) दिव्य स्वभाववाले (मित्रावरुणा) मित्र और उत्तम जन ! जैसे मैं (वाम्) तुम दोनों की (नमसा) अन्न से (हव्यजुष्टिम्) ग्रहण करने योग्य सेवा को (आ, ववृत्याम्) अच्छे प्रकार वर्त्तूं वैसे तुम दोनों (अवसा) रक्षा आदि काम से (अस्माकम्) हमारे (पृतनासु) मनुष्यों में (ब्रह्म) धन की वृद्धि कराइये। हे विद्वान् ! जो (अस्माकम्) हमारी (दिव्या) शुद्ध (सुपारा) जिससे कि सुख के साथ सब कामों की परिपूर्णता हो ऐसी (वृष्टिः) दुष्टों की शक्ति बाँधनेवाली शक्ति है, उसको (सह्याः) सहो ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    जैसे विद्वान् जन अति प्रीति से हमारे लिये विद्याओं को देवें वैसे हम लोग इनको अत्यन्त श्रद्धा से सेवें, जिससे हमारी शुद्ध प्रशंसा सर्वत्र विदित हो ॥ ७ ॥

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    विषय

    दिव्यवृष्टि

    पदार्थ

    १. हे (मित्रावरुणा) = प्राणापानो! (देवौ) = आप हमारे सब शत्रुओं को विजय करनेवाले हो [दिवु विजिगीषा] । मैं (वाम्) = आपके (हव्यजुष्टिम्) = दानपूर्वक अदन के द्वारा प्रीतिपूर्वक सेवन को (अवसा) = रक्षण के हेतु से (नमसा) = नम्रता के साथ (आववृत्याम्) = सदा अपने में प्रवृत्त करूँ । प्राणसाधना आवश्यक है, यही हमारे दोषों को दूर करेगी। इस प्राणसाधना के लिए हव्य का सेवन आवश्यक है। त्यागपूर्वक अदन के साथ यह भी आवश्यक है कि हम सात्त्विक पदार्थों का ही सेवन करें। यह प्राणसाधना हमें सब रोगों व रागों से बचाएगी। हे प्राणापानो ! (अस्माकं ब्रह्म) = हमारा ज्ञान (पृतनासु) = संग्रामों में (सह्या) = शत्रुओं का पराभव करनेवाला हो । ज्ञान के द्वारा हम शत्रुओं को जीतें। काम-क्रोधादि से ऊपर उठें। ऊपर उठते-उठते हम सहस्रार चक्र तक पहुँच सकें तो उस समय धर्ममेघ समाधि में (अस्माकम्) = हमारी (दिव्या वृष्टिः) = अलौकिक आनन्द की वर्षा सुपारा उत्तमता से हमें इस भवसागर से पार ले जानेवाली हो । उस दिव्य आनन्दवृष्टि की तुलना में हमारे लिए सांसारिक सुख अत्यन्त तुच्छ हो जाएँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणायाम की साधना से हमें वह ज्ञान प्राप्त होता है जो वासनाओं का विनाशक होता है और हमें धर्ममेघ समाधि में प्राप्त होनेवाली दिव्य आनन्द की वृष्टि का अनुभव होता है।

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    विषय

    गृहस्थों का भिक्षा देने का सद्भाव । मिन्त्र वरुण का स्पष्टीकरण ।

    भावार्थ

    हे ( मित्रावरुणा ) स्नेहवान् मित्रजन एवं वरण करने योग्य श्रेष्ठ जनो ! ( वां ) आप दोनों की ( हव्यजुष्टिम् ) अन्नादि पदार्थों के सेवन करने की क्रिया को मैं विद्वान् सेवक पुरुष ( नमसा ) अन्न द्वारा और आदरपूर्वक (अवसा) ज्ञान और रक्षा द्वारा ( आ ववृत्याम् ) पुनः पुनः सम्पादन करूं । पुनः आप दोनों को भोजनादि के लिये निमन्त्रित करके आपका आदर करूं । ( अस्माकं ) हमारा ( ब्रह्म ) अन्न, ज्ञान और ऐश्वर्य और ब्राह्मणवर्ग ( पृतनासु ) सब मनुष्यों में ( सह्याः ) सब शत्रुओं और सब अकाल आदि कष्टों और दारिद्र्य आदि दुखों और विघ्न बाधाओं और द्वन्द्वों को सहन करे । और ( अस्माकम् ) हमारी ( दिव्या ) शुद्ध, चाहने योग्य, आकाश से होने वाली ( वृष्टिः ) जल वृष्टि और दुष्टों को बांधने वाली शक्ति ( सुपारा ) प्रजाओं को उत्तम रीति से पालन करने में समर्थ हो । इति द्वाविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः– १, २, ४, ५, ६ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे विद्वान लोक अत्यंत प्रेमाने आम्हाला विद्या देतात तशी आम्ही ती श्रद्धेने स्वीकारावी, ज्यामुळे आमची प्रशंसा व्हावी. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, brilliant and generous lords of love and justice, I pray, I may, with your protection, choose to worship you with the homage of love, dedication and sacrifice. Bless our songs of adoration among our people with wealth and honour of success and may our projects of action be holy and powerful, taking us across the high seas of life. Let our showers be showers of divinity and redemption.

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