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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 152 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 152/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒न॒श्वो जा॒तो अ॑नभी॒शुरर्वा॒ कनि॑क्रदत्पतयदू॒र्ध्वसा॑नुः। अ॒चित्तं॒ ब्रह्म॑ जुजुषु॒र्युवा॑न॒: प्र मि॒त्रे धाम॒ वरु॑णे गृ॒णन्त॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न॒श्वः । ज॒तः । अ॒न॒भी॒शुः । अर्वा॑ । कनि॑क्रदत् । प॒त॒य॒त् । ऊ॒र्ध्वऽसा॑नुः । अ॒चित्त॑म् । ब्रह्म॑ । जु॒जु॒षुः॒ । युवा॑नः । प्र । मि॒त्रे । धाम॑ । वरु॑णे । गृ॒णन्तः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनश्वो जातो अनभीशुरर्वा कनिक्रदत्पतयदूर्ध्वसानुः। अचित्तं ब्रह्म जुजुषुर्युवान: प्र मित्रे धाम वरुणे गृणन्त: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनश्वः। जतः। अनभीशुः। अर्वा। कनिक्रदत्। पतयत्। ऊर्ध्वऽसानुः। अचित्तम्। ब्रह्म। जुजुषुः। युवानः। प्र। मित्रे। धाम। वरुणे। गृणन्तः ॥ १.१५२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 152; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    ये युवानोऽनभीशुरनश्वः कनिक्रदत्पतयज्जातऊर्ध्वसानुरर्वा सूर्य्यइव मित्रे वरुणे धाम गृणन्तः सन्तोऽचित्तं ब्रह्म प्रजुजुषुस्ते बलवन्तो जायन्ते ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (अनश्वः) अविद्यमानतुरङ्गः (जातः) प्रकटः (अनभीशुः) नियामकरश्मिरहितः (अर्वा) प्रापकः (कनिक्रदत्) शब्दयन् (पतयत्) गच्छन् (ऊर्ध्वसानुः) ऊर्ध्वं सानवः शिखरा यस्य सः (अचित्तम्) चेतनतारहितम् (ब्रह्म) धनादियुक्तमन्नम् (जुजुषुः) सेवेरन् (युवानः) युवावस्थां प्राप्ता (प्र) (मित्रे) सख्यौ (धाम) स्थानम् (वरुणे) उत्तमे (गृणन्तः) प्रशंसन्तः ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽश्वयानादिरहित आकाश ऊर्ध्वं स्थितः सूर्य्य ईश्वराधारेण राजते तथा विद्वद्विद्याधारा मनुष्याः पुष्कलं धनमन्नं च प्राप्य धर्म्ये व्यवहारे विराजन्ते ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ।

    पदार्थ

    जो (युवानः) युवावस्था को प्राप्त जन (अनभीशुः) नियम करनेवाली किरणों से रहित (अनश्वः) जिसके जल्दी चलनेवाले घोड़े नहीं (कनिक्रदत्) और बार-बार शब्द करता वा (पतयत्) गमन करता हुआ (जातः) प्रसिद्ध हुआ और (ऊर्ध्वसानुः) जिसके ऊपर को शिखा (अर्वा) प्राप्त होनेवाले सूर्य्य के समान (मित्रे) मित्र वा (वरुणे) उत्तम जन के निमित्त (धाम) स्थान की (गृणन्तः) प्रशंसा करते हुए (अचित्तम्) चित्तरहित (ब्रह्म) वृद्धि को प्राप्त धन आदि पदार्थों से युक्त अन्न को (प्र, जुजुषुः) सेवें, वे बलवान् होते हैं ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे घोड़े वा रथ आदि सवारी से रहित आकाश के बीच ऊपर को स्थित सूर्य ईश्वर के अवलम्ब से प्रकाशमान होता है, वैसे विद्वानों की विद्या के आधारभूत मनुष्य बहुत धन और अन्न को पाकर धर्मयुक्त व्यवहार में विराजमान होते हैं ॥ ५ ॥

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    विषय

    साधक का उत्कृष्ट जीवन

    पदार्थ

    १. प्राणापान की साधना करनेवाला पुरुष (अनश्वः जातः) = बिना इन्द्रियरूप अश्वोंवाला हो जाता है। इन्द्रियाँ न रहती हों ऐसा तो नहीं, परन्तु अब ये इन्द्रियाँ उसकी स्वामी नहीं रहीं, इन्द्रियों की सत्ता समाप्त हो गई है। इसी प्रकार यह (अनभीशुः) = मनरूप लगाम से रहित हो गया है। अब यह मन के अधीन नहीं रहा। (अर्वा) = मन के अधीन न रहने से ही सब वासनाओं का संहार करनेवाला हुआ है [अर्व = t f=to kill], (कनिक्रदत्) = वासनाओं के संहार के लिए ही प्रभु के गुणों का गर्जन करता हुआ स्मरण करता है। प्रभु के नामों का उच्च स्वर से उच्चारण करता है, (पतयत्) = गतिशील होता है, (ऊर्ध्वसानु:) = ज्ञान के उत्कृष्ट शिखर पर पहुँचता है, ऊर्ध्वादिक् का अधिपति बृहस्पति बनता है। २. ये (युवान:) = बुराइयों को अपने से पृथक् करनेवाले और अच्छाइयों को अपने से मिलानेवाले युवक (अचित्तं ब्रह्म) = उस (अचिन्तनीय) = चिन्तन का विषय न बननेवाले परमात्मा का (जुजुषुः) = प्रीतिपूर्वक उपासन करते हैं और (मित्रे वरुणे)= मित्र और वरुण में रहनेवाले (धाम) = तेज का (प्रगृणन्त:) = प्रकर्षेण स्तवन करते हैं। प्राणापान की शक्ति का शंसन करते हुए प्राणायाम द्वारा उस शक्ति को अपने में संचित करते हैं। 'मित्रे, वरुणे' का भाव = स्नेह व निर्देषता की वृत्ति भी है। इन वृत्तियों में निहित तेज के महत्त्व का स्मरण करते हुए वे इन्हें अपनाने के लिए यत्नशील होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- साधक इन्द्रियों व मन का पूर्ण पराजय करके गतिशील व उत्कृष्ट ज्ञानी होता है। ब्रह्म का स्मरण करते हुए सबके प्रति स्नेहवाला व निर्दोष बनता है।

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    विषय

    सूर्य के दृष्टान्त से तेजस्वी रहने का उपदेश । ‘अनभीशु अर्वा’ का रहस्य । अध्मात्म में-आत्मा का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य (अनश्वः) अश्व रहित होकर भी (जातः) शीघ्रगामी प्रसिद्ध है वह ( अर्वा ) शीघ्र गमन करने वाला होकर (अनभीषुः) उसके कोई रासें नहीं हैं । और तो भी वह ( कनिक्रदत् ) मेघादि द्वारा गर्जता हुआ (ऊर्ध्वसानुः) पर्वतादि उच्च प्रदेशों में व्यापकर ( पतयत् ) शोभा को प्राप्त होता है। उसी प्रकार ( जातः ) उत्पन्न हुआ बालक प्रथम ( अनश्वः ) ‘अश्व’ या भोक्ता के समान बद्ध न होकर (अर्वा अनभीषुः) बेलगाम घोड़े के समान (अर्वा) ज्ञानी पुरुष भी (अनभीषुः) बाधक कारणों से रहित होकर ( ऊर्ध्वानुः ) शिरों, स्कन्धों को ऊंचे रखता हुआ और (कनिक्रदत्) खूब विद्याभ्यास करता हुआ (पतयत्) ज्ञानेश्वर्य प्राप्त करे । और फिर (युवानः) युवा होकर वे ब्रह्मचारीगण (अचित्तं ब्रह्म) अचिन्तनीय ब्रह्म के समान ही चेतनता रहित (ब्रह्म) वृद्धिशील, पुष्टिकारक अन्न और धन को ( जुजुषुः ) प्राप्त करें । और ( मित्रे ) स्नेहवान् और (वरुणे) रूप के वरण करने योग्य उत्तम पुरुष में ही होने योग्य ( धाम ) तेज और धारण पोषण सामर्थ्य और स्थान गृह आदि का ( प्र गृणन्तः ) उत्तम रीति से उपदेश करें । अध्यात्म में—आत्मा असंग, स्वभाव से अभोक्ता होने से ‘अनश्व’ है । अंगुलि आदि अंगों से रहित होने से ‘अनभीशु’ है व्यापक होने से अर्वा है । वह सर्वोपरि प्राप्तव्य होने से ‘ऊर्ध्वसानु’ है । मेध के समान नाद करता है । वह महान् होने से ‘ब्रह्म’, अचिन्तनीय होने से ‘अचित्त’ है । योग द्वारा साक्षात्कारी जन ‘युवा’ हैं, वे उसका सेवन करते और सब के धारक परम बल के उसी सर्वश्रेष्ठ और खूब स्नेह-प्रेममय प्रभु को ही बतलाते, उसकी उपदेश वा स्तुति करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः– १, २, ४, ५, ६ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे अश्व, रथ इत्यादी वाहन नसताना सूर्य आकाशात ईश्वराचा अवलंब करून प्रकाशमान होतो, तसे विद्वानाच्या विद्येचा आधार घेतलेली माणसे पुष्कळ धन व अन्न प्राप्त करून धर्मयुक्त व्यवहारात विराजमान असतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The sun is arisen, up on the heights of heaven, rushing on, roaring, no horse, no reins. Bright young generations pay homage, singing hymns of Infinity, admiring the treasure love of the Lord for the sake of Mitra and Varuna, love, light and justice of existence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Pre-requisites for becoming an energetic person.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The young men become mighty and powerful, only when they try to be like the sun, who without steeds and reins ( in a chariot) is still visible, swiftly moving and creating loud sound. Moreover, it conveys light, and its rays are spread everywhere higher and higher. Praising the solar abode full of sunshine in the company of friendly persons, and taking food and wealth (in spite of the fact that have no life) they become full of energy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun is shining in the sky without horses or reins etc. with the support provided by the Almighty God, likewise, those persons who get guidance from great scholars, shine in righteous dealings, having acquired abundant wealth and foodstuff.

    Foot Notes

    (ब्रह्म) धादियुक्तम् अन्नम् = Food materials with wealth. (अर्वा) प्रापक: - Conveyor of light.

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