ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 163/ मन्त्र 11
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अश्वोऽग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तव॒ शरी॑रं पतयि॒ष्ण्व॑र्व॒न्तव॑ चि॒त्तं वात॑ इव॒ ध्रजी॑मान्। तव॒ शृङ्गा॑णि॒ विष्ठि॑ता पुरु॒त्रार॑ण्येषु॒ जर्भु॑राणा चरन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । शरी॑रम् । प॒त॒यि॒ष्णु । अ॒र्व॒न् । तव॑ । चि॒त्तम् । वातः॑ऽइव । ध्रजी॑मान् । तव॑ । शृङ्गा॑णि । विऽष्ठि॑ता । पुरु॒ऽत्रा । अर॑ण्येषु । जर्भु॑राणा । च॒र॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तव शरीरं पतयिष्ण्वर्वन्तव चित्तं वात इव ध्रजीमान्। तव शृङ्गाणि विष्ठिता पुरुत्रारण्येषु जर्भुराणा चरन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठतव। शरीरम्। पतयिष्णु। अर्वन्। तव। चित्तम्। वातःऽइव। ध्रजीमान्। तव। शृङ्गाणि। विऽष्ठिता। पुरुऽत्रा। अरण्येषु। जर्भुराणा। चरन्ति ॥ १.१६३.११
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 163; मन्त्र » 11
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे अर्वन् यथा पतयिष्णु यानं तथा तव शरीरं ध्रजीमान् वात इव तव चित्तं पुरुत्राऽरण्येषु विष्ठिता जर्भुराणा शृङ्गाण्यग्नेश्चरन्ति तथा तवेन्द्रियाणि प्राणाश्च वर्त्तन्ते ॥ ११ ॥
पदार्थः
(तव) (शरीरम्) (पतयिष्णु) गमनशीलम् (अर्वन्) गन्त्रश्ववद्वर्त्तमान (तव) (चित्तम्) अन्तःकरणम् (वातइव) (ध्रजीमान्) (गतिमान्) (तव) (शृङ्गाणि) शृङ्ग इव उच्छ्रितानि कर्माणि (विष्ठिता) विशेषेण स्थितानि (पुरुत्रा) पुरुषु बहुषु (अरण्येषु) वनेषु (जर्भुराणा) अत्यन्तं पुष्टानि (चरन्ति) गच्छन्ति ॥ ११ ॥
भावार्थः
यैः प्रचालिता विद्युन्मनोवद्गच्छति शैलशृङ्गवद्यानानि रच्यन्ते ये च वनाग्निवदग्न्यागारेषु पावकं प्रज्वाल्य यानानि चालयन्ति ते सर्वत्र भूगोले विचरन्ति ॥ ११ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अर्वन्) गमनशील घोड़े के समान वर्त्ताव रखनेवाले ! जैसे (पतयिष्णु) गमनशील विमान आदि यान वा (तव) तेरा (शरीरम्) शरीर वा (ध्रजीमान्) गतिवाला (वातइव) पवन के समान तव तेरा (चित्तम्) चित्त वा (पुरुत्रा) बहुत (अरण्येषु) वनों में (विष्ठिता) विशेषता से ठहरे हुए (जर्भुराणा) अत्यन्त पुष्ट (शृङ्गाणि) सींगों के तुल्य ऊँचे वा उत्कृष्ट अत्युत्तम काम अग्नि से (चरन्ति) चलते हैं वैसे (तव) तेरे इन्द्रिय और प्राण वर्त्तमान हैं ॥ ११ ॥
भावार्थ
जिन्होंने चलाई हुई बिजुली मन के समान जाती वा पर्वतों के शिखरों के समान विमान आदि यान रचे हैं और जो वन की आग के समान अग्नि के घरों में अग्नि जलाकर विमान आदि रथों को चलाते हैं, वे सर्वत्र भूगोल में विचरते हैं ॥ ११ ॥
विषय
शरीर पतयिष्णु, चित्त ध्रजीमान्
पदार्थ
१. हे (अर्वन्) = वासनाओं का संहार करनेवाले जीव ! (तव शरीरम्) = तेरा शरीर पतयिष्णु खूब गतिवाला हो । शक्तिशाली बनकर तू प्रत्येक अङ्ग के दृष्टिकोण से गतिवाला हो । तेरे जीवन में अकर्मण्यता व आलस्य का स्थान न हो। २. (तव चित्तम्) = तेरा चित्त वात इव वायु की भाँति (ध्रजीमान्) = गतिवाला हो । तेरी चेतना पूर्णरूप में बनी रहे। तेरी मानस शक्तियाँ स्फूर्ति सम्पन्न हों । ३. (तव शृङ्गाणि) = तेरी ज्ञान-दीप्तियाँ [शृङ्गम् इति ज्वलितो नामधेयम्] (पुरुत्रा) = अनेक स्थानों में, विविध विषयों में (विष्ठिता) = विशेषरूप से स्थित हों। तू सब प्रकृति-विज्ञानों व आत्मज्ञान को प्राप्त करनेवाला बने । ४ तेरी ज्ञानदीप्तियाँ (अरण्येषु) = एकान्त, नीरव स्थानों में, शहरों की चहलपहल से दूर आश्रमों में (जर्भुराणा) = खूब विकसित होती हुई (चरन्ति) = गतिवाली होती हैं । तू ज्ञान के अनुसार क्रिया करनेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारा शरीर गतिशील हो, चित्त में विज्ञान-कुशलता हो, हमारी ज्ञानदीप्तियों की विविधता का विकास हो ।
विषय
वीर, बलवान् राजा और राजा को तेजस्वी होने का उपदेश ।
भावार्थ
हे ( अर्वन् ) विद्वन् ! हे वीर ! ( तव ) तेरा ( शरीरं ) शरीर ( पतयिष्णुः) वेगवान्, अश्व के समान शीघ्रता से जाने में समर्थ, बलवान्, ऐश्वर्य युक्त हो । ( तव) तेरा ( चित्तं ) चित्त (वात इव) वायु के समान ( ध्रजीमान् ) वेग से युक्त, बलवान् हो ( तब ) तेरे ( शृङ्गाणि ) पर्वत शिखरों के समान दूर से सबको दीखने योग्य, कर्म, यज्ञ आदि, कृप, बगीचे, और भवन आदि परोपकारी पदार्थ और ( शृङ्गाणि ) उच्च शिखरों वाले प्रासाद ( पुरुत्रा ) बहुत से ( अरण्येषु ) जंगल के दुर्गम स्थानों में भी ( विष्ठिता ) विविध रूप से स्थिर हों । अथवा—हे राजन् ( तव शृङ्गाणि) तेरे दुष्टों के नाश करने वाले हिंसाकारी सैनिक, बल, जन भी वनों में सिंहों के समान निर्भय होकर ( पुरुत्र अरण्येषु ) बहुत से दुर्गों में स्थित होकर ( जर्भुराणाः ) प्रजा का पालन करते हुए ( चरन्ति ) विचरें । अध्यात्म में—हे आत्मन् ! तेरा शरीर ( पतयिष्णु ) विनाशशील है। चित्त वात के समान वेगवान् अस्थिर है । अतः तेरे ( शृङ्गाणि ) उन्नत अंग, इन्द्रिय गण ( अरण्येषु ) रमण करने योग्य विषयों से भिन्न( पुरुत्र ) अन्य बहुत से कर्मों में स्थिर होकर परिपुष्ट होकर विचरें, विषयों में न जावें । देखो ( यजु० अ० २९ । २२ ) ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अश्वोऽग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ६, ७, १३ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, १०, १२ भुरिक् पङ्क्तिः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे मनाप्रमाणे वेगवान विद्युतला प्रवाहित करतात किंवा पर्वताच्या शिखराप्रमाणे यान तयार करतात व जे दावानलाप्रमाणे अग्निघरात अग्नी प्रज्वलित करून विमान इत्यादी रथ (याने) चालवितात ते भूगोलात सर्वत्र गमन करतात. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Arvan, tempestuous energy of the universe, your body is ever eager and agitating to fly. Your mind is restless, adventurous and vibrating as the waves of winds. Your ambitions are high soaring, various, pioneering and ever on the move. Inspiring the minds of men, bright and blazing in the forests overtaken, your thoughts, ambitions and operations spread around and cover the worlds across the spaces.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In the praise of highly skilled technicians.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O brave person ! you are active like a horse, your body is like a swift vehicle. Your mind is like the wind in motion. Your sublime actions are initiated from the proper use of fire and electricity. These are spread in all directions like the hoary creatures in the forests.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
These persons go everywhere in the world who generate electricity. When produced it works swiftly like the mind, like the summits of the hills. And who make experiments in laboratories like the fire in the forests, thereby drive various vehicles.
Foot Notes
(अर्वन् ) गन्त्राश्ववद् वर्तमान् = Active like a quick going horse ( घ्रजीमान् ) गतिमान = Speedy. ( शृङ्गाणि ) शृङ्ग इव उच्छ्रितानि कर्माणि = Sublime acts like the summits of the hills. ( जर्भुराणा ) अत्यन्तं पुष्टानि = Very strong.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal