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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 163 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 163/ मन्त्र 6
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अश्वोऽग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ॒त्मानं॑ ते॒ मन॑सा॒राद॑जानाम॒वो दि॒वा प॒तय॑न्तं पतं॒गम्। शिरो॑ अपश्यं प॒थिभि॑: सु॒गेभि॑ररे॒णुभि॒र्जेह॑मानं पत॒त्रि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒त्मान॑म् । ते॒ । मन॑सा । आ॒रात् । अ॒जा॒ना॒म् । अ॒वः । दि॒वा । प॒तय॑न्तम् । प॒त॒ङ्गम् । शिरः॑ । अ॒प॒श्य॒म् । प॒थिऽभिः॑ । सु॒ऽगेभिः॑ । अ॒रे॒णुऽभिः॑ । जेह॑मानम् । प॒त॒त्रि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आत्मानं ते मनसारादजानामवो दिवा पतयन्तं पतंगम्। शिरो अपश्यं पथिभि: सुगेभिररेणुभिर्जेहमानं पतत्रि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आत्मानम्। ते। मनसा। आरात्। अजानाम्। अवः। दिवा। पतयन्तम्। पतङ्गम्। शिरः। अपश्यम्। पथिऽभिः। सुऽगेभिः। अरेणुऽभिः। जेहमानम्। पतत्रि ॥ १.१६३.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 163; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे विद्वन् यथाऽहं ते तवात्मानं मनसाऽऽरादपश्यं तथा त्वं मदात्मानं पश्य यथाहं तवावः पतत्रि शिरोऽपश्यं तथा त्वं ममैतत्पश्य यथाऽरेणुभिः सुगेभिः पथिभिर्जेहमानं दिवा पतयन्तं पतङ्गमग्निमश्वमजानां तथा त्वमपि पश्य ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (आत्मानम्) सर्वाधिष्ठातारम् (ते) तव (मनसा) विज्ञानेन (आरात्) दूरात् समीपाद्वा (अजानाम्) जानीयाम् (अवः) रक्षणम् (दिवा) दिव्यन्तरिक्षे (पतयन्तम्) गमयन्तम् (पतङ्गम्) यः प्रतियातं गच्छति तम् (शिरः) यच्छ्रीयते तदुत्तमाङ्गम् (अपश्यम्) पश्येयम् (पथिभिः) (सुगेभिः) सुखेन गमनाधिकरणैः (अरेणुभिः) अविद्यमानरजस्पर्शैः (जेहमानम्) प्रयतमानम् (पतत्रि) पतनशीलम् ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये स्वपरात्मविदो विज्ञानेनोत्पन्नकार्यपरीक्षाद्वारा कारणगुणान् जानन्ति सुखेन विद्वांसो भवन्ति येऽनावरणे रजोयोगविरहेऽन्तरिक्षेऽग्न्यादियोगेन विमानानि चालयन्ति ते दूरमपि देशं सद्यो गन्तुमर्हन्ति ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! जैसे मैं (ते) तेरे (आत्मानम्) सबके अधिष्ठाता आत्मा को (मनसा) विज्ञान से (आरात्) दूर से वा निकट से (अपश्यम्) देखूँ वैसे तूँ मेरे आत्मा को देख, जैसे मैं तेरे (अवः) पालने को वा (पतत्रि) गिरने के स्वभाव को और (शिरः) जो सेवन किया जाता उस शिर को देखूँ वैसे तूँ मेरे उक्त पदार्थ को देख, जैसे (अरेणुभिः) धूलि से रहित (सुगेभिः) सुख से जिनमें जाते उन (पथिभिः) मार्गों से (जेहमानम्) उत्तम यत्न करते (दिवा) अन्तरिक्ष में (पतयन्तम्) जाते हुए (पतङ्गम्) प्रत्येक स्थान में पहुँचनेवाले अग्निरूप घोड़े को (अजानाम्) देखूँ वैसे तूँ भी देख ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो अपने वा पराये आत्मा के जाननेवाले विज्ञान से उत्पन्न कार्यों की परीक्षा द्वारा कारण गुणों को जानते हैं वे सुख से विद्वान् होते हैं। जो विन ढपे, विन, धूल के संयोग अन्तरिक्ष में अग्नि आदि पदार्थों के योग से विमानादिकों को चलाते हैं, वे दूर देश को भी शीघ्र जाने को योग्य होते हैं ॥ ६ ॥

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    विषय

    सूर्यद्वार से प्रभु की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. गतमन्त्रानुसार व्रतों द्वारा जीवन को पवित्र बनानेवाले प्रभु कहते हैं कि (ते मनसा) = तेरी मननशीलता के द्वारा (आत्मानम्) = अपने को (आरात् अजानाम्) = तेरे समीप ही जानता हूँ, अर्थात् मैं देखता हूँ कि मननशीलता के द्वारा तू मेरे समीप पहुँचता जाता है। २. (अवः) = [अवस्तात्]— इस निचले प्रदेश से (दिवा) = आकाश में (पतङ्गं पतयन्तम्) = सूर्य की ओर जाते हुए तुझे जानता हूँ। देवयान मार्ग से जानेवाले इस सूर्यद्वार से ही उस अव्ययात्मा, अमृतपुरुष को प्राप्त किया करते हैं– 'सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रामृतः स पुरुषो ह्यव्ययात्मा'। मैं तेरे (पतत्रि) = इस सूर्य की ओर निरन्तर चलनेवाले (शिरः) = मस्तिष्क को (अरेणुभिः) = रजोविकार से रहित - रजोगुण से ऊपर उठे हुए (सुगेभिः) = सरल (पथिभिः) = मार्गों से (जेहमानम्) = गति करते हुए को देखता हूँ, अर्थात् तू मस्तिष्क में निरन्तर ऊपर उठने की भावना को धारण करता है। तू रजोगुण से ऊपर उठकर सात्त्विक मार्गों का आक्रमण [अतिक्रमण] करता है और इसी का परिणाम है कि तू सूर्यद्वार से मेरे समीप पहुँच रहा है । यह व्रती पुरुष निरन्तर ऊपर उठता हुआ प्रभु को प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - एक व्रती पुरुष रजोगुण से ऊपर उठकर सात्त्विक मार्ग से चलता हुआ शिखर पर पहुँचता है। यह सूर्यद्वार से प्रभु को प्राप्त करता है ।

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    विषय

    शिष्य का कर्त्तव्य अध्यात्म में भक्त का उपास्य-आत्मदर्शन ।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! मैं (ते) तेरे ( आत्मानं ) आत्मा को ( मनसा ) ज्ञान और मननशील चित्त से ( आसत् ) अति समीप होकर तेरी सेवा और उपासना द्वारा ( अजानाम् ) जान लूं अर्थात् गुरु के हृदयगत ज्ञान को शिष्य समचित्त होकर प्राप्त करे । और ( दिवा ) दिन के समय में ( पत्यन्तं ) गमन करते हुए, और सब पर ऐश्वर्यवान् स्वामी के समान आचरण करते हुए, ( पतङ्गम् ) सूर्य के समान तेजस्वी तेरे ( अवः ) रक्षण करने के सामर्थ्य, तेज, और ज्ञान को मैं मनन पूर्वक प्राप्त करूं । और तेरे ( शिरः ) शिर के समान मुख्य, अज्ञानों के नाशक और हृदय को शान्ति देने वाले, मस्तक या मुख्य पद को ( अरेणुभिः ) रेणु, रजोदोष और हिंसा के भावों से रहित ( सुगेभिः ) सुख से गमन करने योग्य ( पथिभिः ) मार्गों से ( पतत्रि ) जाने वाला व्यापक ( अपश्यम् ) देखूं । ( राजपक्ष में—यजु० २९ । १७ )(२) अध्यात्म में—हे प्रभो ! मैं तेरे स्वरूप को दिन में सूर्य के समान ( अवः ) ज्ञानमय, सबके रक्षाकारी रूप से मनन द्वारा साक्षात् करता हूं । तेरे स्वरूप को शिर के समान मुख्य, शान्तिदायक, सुखकारी, सात्विक ज्ञान मार्गों से प्राप्त करने योग्य साक्षात् करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अश्वोऽग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ६, ७, १३ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, १०, १२ भुरिक् पङ्क्तिः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे आपल्या व इतरांच्या आत्म्याला जाणणाऱ्या विज्ञानाने उत्पन्न झालेल्या कार्याचे परीक्षेद्वारे कारण गुण जाणतात ते सुखपूर्वक विद्वान बनतात. ते रजःकणरहित अंतरिक्षात अग्नी इत्यादी पदार्थांच्या योगाने विमान इत्यादी चालवितात ते दूरच्या देशातही शीघ्र गमन करतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, O flying horse, with pleasure of my heart and soul and with the thrill of my knowledge, I see from afar and know your body flying up towards heaven and down like a bird. O flying bird of our creation, I see your head striving and soaring higher and higher by paths all straight and clear and wholly free from dust.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of scholar's abilities are explained.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! I perceive with wisdom your soul going high up from below like the sun in heaven. Just as I see the the aero planes from far and round like the head, soaring, striving upward by paths unsoiled by dust and pleasant to travel, so you should also do the same way.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who know their own and others' souls and know the attributes of the causes by testing the effects, easily become learned and wise. Those who make their aircrafts fly in the firmament with the combination of air, fire, electricity etc. can travel easily even to distant places.

    Foot Notes

    (जेहमानम् ) प्रगतमानम् = Trying ( पतत्नि ) पतन शीलम् = Flying. ( पतङ्गम् ) गमगन्तम् = Causing to move.

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