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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 163 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 163/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अश्वोऽग्निः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्रीणि॑ त आहुर्दि॒वि बन्ध॑नानि॒ त्रीण्य॒प्सु त्रीण्य॒न्तः स॑मु॒द्रे। उ॒तेव॑ मे॒ वरु॑णश्छन्त्स्यर्व॒न्यत्रा॑ त आ॒हुः प॑र॒मं ज॒नित्र॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रीणि॑ । ते॒ । आ॒हुः॒ । दि॒वि । बन्ध॑नानि । त्रीणि॑ । अ॒प्ऽसु । त्रीणि॑ । अ॒न्तरिति॑ । स॒मु॒द्रे । उ॒तऽइ॑व । मे॒ । वरु॑णः । छ॒न्त्सि॒ । अ॒र्व॒न् । यत्र॑ । ते॒ । आ॒हुः । प॒र॒मम् । ज॒नित्र॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रीणि त आहुर्दिवि बन्धनानि त्रीण्यप्सु त्रीण्यन्तः समुद्रे। उतेव मे वरुणश्छन्त्स्यर्वन्यत्रा त आहुः परमं जनित्रम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रीणि। ते। आहुः। दिवि। बन्धनानि। त्रीणि। अप्ऽसु। त्रीणि। अन्तरिति। समुद्रे। उतऽइव। मे। वरुणः। छन्त्सि। अर्वन्। यत्र। ते। आहुः। परमम्। जनित्रम् ॥ १.१६३.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 163; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अर्वन् यत्र ते परमं जनित्रमाहुस्तत्र ममाप्यस्ति वरुणस्त्वं यथा छन्त्सि तथाऽहं छन्दयामि यथा ते त्रीण्यन्तस्समुद्रे त्रीण्यप्सु त्रीणि दिवि च बन्धनान्याहुरुतेव मे सन्ति ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (त्रीणि) (ते) तव (आहुः) वदन्ति (दिवि) प्रकाशमयेऽग्नौ (बन्धनानि) (त्रीणि) (अप्सु) (त्रीणि) (अन्तः) आभ्यन्तरे (समुद्रे) अन्तरिक्षे (उतेव) (मे) मम (वरुणः) श्रेष्ठः (छन्त्सि) ऊर्जयसि (अर्वन्) विज्ञातः (यत्र) अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (ते) तव (आहुः) कथयन्ति (परमम्) प्रकृष्टम् (जनित्रम्) जन्म ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथाऽग्नेः कारणसूक्ष्मस्थूलानि स्वरूपाणि सन्ति। वाय्वग्न्यप्पृथिवीनां च वर्त्तन्ते तथा सर्वेषां जातानां पदार्थानां त्रीणि स्वरूपाणि सन्ति। हे विद्वन् यथा तव विद्याजन्म प्रकृष्टमस्ति तथा ममापि स्यात् ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अर्वन्) विशेष ज्ञानवाले सज्जन ! (यत्र) जहाँ (ते) तेरा (परमम्) उत्तम (जनित्रम्) जन्म (आहुः) कहते हैं वहाँ मेरा भी उत्तम जन्म है, (वरुणः) श्रेष्ठ तूँ जैसे (छन्त्सि) बलवान् होता है वैसे मैं बलवान् होता हूँ, जैसे (ते) तेरे (त्रीणि) तीन (अन्तः) भीतर (समुद्रे) अन्तरिक्ष में (त्रीणि) तीन (अप्सु) जलों में (त्रीणि) तीन (दिवि) प्रकाशमान अग्नि में भी (बन्धनानि) बन्धन (आहुः) अगले जनों ने कहे हैं (उतेव) उसीके समान (मे) मेरे भी हैं ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे अग्नि के कारण, सूक्ष्म और स्थूल रूप हैं, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी के भी हैं, वैसे सब उत्पन्न हुए पदार्थों के तीन स्वरूप हैं। हे विद्वान् ! जैसे तुम्हारा विद्या जन्म उत्तम है, वैसा मेरा भी हो ॥ ४ ॥

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    विषय

    नवधा भक्ति - नौ व्रत

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार (ते दिवि) = तेरे मस्तिष्करूप द्युलोक में (त्रीणि बन्धनानि आहुः) = तीन बन्धनों को कहते हैं । तेरे मस्तिष्क में 'प्रकृति, जीव व परमात्मा' के ज्ञानरूप तीन बन्धन होते हैं। ऋग्वेद के द्वारा तू प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करता है, यजुर्वेद के द्वारा जीव का ज्ञान तथा साम के द्वारा परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करता है। ये ज्ञान ही तेरे तीन बन्धन होते हैं । २. (अप्सु त्रीणि) = ' आपोमयाः प्राणा: ' प्राण ही 'आप: ' हैं। इनके विषय में तेरे तीन बन्धन हैं। ये तीन बन्धन . ही 'भूः, भुवः स्वः', 'प्राण, अपान, व्यान' या 'स्वास्थ्य, ज्ञान व जितेन्द्रियता' कहलाते हैं । प्राणसाधना के द्वारा शरीर में तू स्वस्थ बनता है, मस्तिष्क में ज्ञानी तथा मन में जितेन्द्रियवृत्तिवाला बनता है। ३. (समुद्रे अन्तः) = इस अन्तः समुद्र में [स+मुद्] मोद के साथ रहनेवाले हृदयान्तरिक्ष में भी (त्रीणि) = तीन बन्धन हैं। तू हृदय में तीन व्रत धारण करता है कि- यहाँ 'काम' को प्रविष्ट नहीं होने दूंगा, 'क्रोध' से सदा अनाक्रान्त रहूँगा, 'लोभ' से अभिभूत नहीं होऊँगा । ४. (उत इव) = [अपि च] और इस प्रकार अपने को नौ बन्धनों में बाँधकर (वरुणः) = श्रेष्ठ बना हुआ तू [वरुणो नाम वरः श्रेष्ठः] (मे छन्त्सि) = मेरी अर्चना करता है। प्रभु की वास्तविक पूजा यही है कि मनुष्य [क] 'प्रकृति, जीव, परमात्मा' का ज्ञान प्राप्त करे, [ख] स्वस्थ, ज्ञानी व जितेन्द्रिय बने, [ग] काम, क्रोध, लोभ से ऊपर उठे। हे (अर्वन्) = वासनाओं का संहार करनेवाले जीव ! यही वह नवधाभक्ति है (यत्र) = जिसमें (ते) = तेरे (परमं जनित्रम्) = सर्वोत्तम विकास को (आहुः) = कहते हैं । जीव की सर्वोत्तम उन्नति यही है कि वह अपने को इन नौ व्रतों के बन्धनों में बाँधकर प्रभु की नवधा भक्ति करनेवाला बने ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का सच्चा भक्त वही है जो प्रकृति, जीव, परमात्मा' का ज्ञान प्राप्त करता है, 'स्वस्थ, ज्ञानी व जितेन्द्रिय' बनता है, 'काम, क्रोध, लोभ' से ऊपर उठता है। यही उसका परम विकास भी है।

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    विषय

    तीन बन्धन

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुष ! ( दिवि ) ज्ञान प्राप्त करते हुए ( ते ) तेरे ऊपर ( त्रीणि बन्धनानि आहुः ) तीन बन्धन विद्वान् बतलाते हैं । इसी प्रकार ( अप्सु ) कर्मों के करने और ज्ञानों के धारण करने में भी तेरे ( त्रीणि ) तीन ही बन्धन हैं, कर्म, कर्मफल और कारण, अथवा (अप्सु) आप्त जनों और प्रजाओं के बीच में भी तेरे ऊपर तीन कर्त्तव्य बंधे हैं, बड़ों की सेवा, छोटों का पालन और सबसे स्नेह करना । ( समुद्रे अन्तः त्रीणि ) समस्त फल देने वाले, आकाश के समान महान् परमेश्वर के बीच रहते हुए भी तेरे तीन कर्त्तव्य हैं, स्तुति, प्रार्थना और उपासना या श्रवण, मनन और निदिध्यासन । हे ( अर्वन् ) ज्ञानवन् ! हे बाधक कारणों को दूर करने हारे आचार्य ! ( उत इव ) और तू ( वरुणः ) सर्व श्रेष्ठ, और सब कष्टों का वारण करने हारा होकर ( मे ) मुझ शिष्य को (छन्त्सि ) लेजा ( यत्र ) जिस स्थान में ( ते ) तेरा ( परमं ) सबसे उत्तम ( जनित्रम् ) जन्म या स्वरूप ( आहुः ) होता हुआ बतलाते हैं। राजा आदि पक्ष में ( देखो यजु० अ० २९ । १५ )

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अश्वोऽग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ६, ७, १३ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप् । ३, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, १०, १२ भुरिक् पङ्क्तिः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा अग्नी कारण, सूक्ष्म व स्थूल रूपात आहे. वायू, जल, अग्नी व पृथ्वीही (सूक्ष्म रूपात) असतात तसे उत्पन्न झालेले पदार्थ ही तीन स्वरूपात असतात. हे विद्वाना ! जसा तुझा विद्या जन्म उत्तम आहे तसा माझाही व्हावा. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Three are your forms, they say, in the field of light, they are causal, subtle and gross. Three are in the sphere of the waters, and three are in the region of the skies in the winds, the same three. Just as you have three formal definitions so do I too, the causal body, the subtle body and the gross body. Tell me, mysterious power, where do they say your ultimate origin is. Mine too is there itself.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of learned man are underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned wise person! my excellent birth is the same as they say is of yours. You as Varuna-most acceptable, give strength to all. Let me also be like that. As you have three kinds of bonds or causes in the firmament, three in the water and three in the shining fire, so also have I.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As there are three causes of the Agni casual (original and very subtle), subtle and gross, likewise there are three causes of the air, fire and earth. Same way, there are three such causes of all the born or produced substances. O learned person! as your birth from the mother and wisdom (vidya) is excellent, let mine also be of the same caliber. Here the idea of Dwijanma.

    Foot Notes

    (दिवि) प्रकाशमये अग्नौ = In the shining fire. ( समुद्रे ) अन्तरिक्षे = In the firmament.( छन्त्सि ) ऊर्जसि = You strengthen. (अर्वन्) विज्ञातः = Learned and wise.

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