ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 180/ मन्त्र 5
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ वां॑ दा॒नाय॑ ववृतीय दस्रा॒ गोरोहे॑ण तौ॒ग्र्यो न जिव्रि॑:। अ॒पः क्षो॒णी स॑चते॒ माहि॑ना वां जू॒र्णो वा॒मक्षु॒रंह॑सो यजत्रा ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वा॒म् । दा॒नाय॑ । व॒वृ॒ती॒य॒ । द॒स्रा॒ । गोः । ओहे॑न । तौ॒ग्र्यः । न । जिव्रिः॑ । अ॒पः । क्षो॒णी इति॑ । स॒च॒ते॒ । माहि॑ना । वा॒म् । जू॒र्णः । वा॒म् । अक्षुः॑ । अंह॑सः । य॒ज॒त्रा॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वां दानाय ववृतीय दस्रा गोरोहेण तौग्र्यो न जिव्रि:। अपः क्षोणी सचते माहिना वां जूर्णो वामक्षुरंहसो यजत्रा ॥
स्वर रहित पद पाठआ। वाम्। दानाय। ववृतीय। दस्रा। गोः। ओहेन। तौग्र्यः। न। जिव्रिः। अपः। क्षोणी इति। सचते। माहिना। वाम्। जूर्णः। वाम्। अक्षुः। अंहसः। यजत्रा ॥ १.१८०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 180; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे दस्रा यजत्रा जिव्रिस्तौग्र्यो नाहं गोरोहेण वां दानायाववृतीय यथा माहिना क्षोण्यपः सचते तथा जूर्णोऽहं वां सचेयमक्षुरंहसो वां पृथग्रक्षेयम् ॥ ५ ॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (वाम्) युवाम् (दानाय) (ववृतीय) वर्त्तयामि। अत्र बहुलं छन्दसीति साभ्यासत्वम्। (दस्रा) दुःखोपक्षेतारौ (गोः) पृथिव्याः (ओहेन) बीजादिस्थापनेन (तौग्र्यः) तुग्रा बलिनस्तेषु भवः (न) इव (जिव्रिः) जीर्णो वृद्धः (अपः) जलानि (क्षोणी) भूमिः (सचते) सम्बध्नाति (माहिना) महत्वेन (वाम्) युवम् (जूर्णः) रोगी (वाम्) युवाम् (अक्षुः) व्याप्तुं शीलः (अंहसः) दुष्टाचारात् (यजत्रा) सङ्गमयितारौ ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। विद्वांसो स्त्रीपुरुषेभ्य एवमुपदिशेयुर्यथा वयं युष्मभ्यं विद्या दद्याम दुष्टाचारात् पृथग्रक्षयेम तथा युष्माभिरप्याचरणीयम्। पृथिवीवत् क्षमोपकारादीनि कर्माणि कर्त्तव्यानि ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (दस्रा) दुःख दूर करने और (यजत्रा) सर्वव्यवहार की सङ्गति करानेवाले स्त्री-पुरुषो ! (जीव्रिः) जीर्णवृद्ध (तौग्र्यः) बलवानों में बली जन के (न) समान मैं (गोरोहेण) पृथिवी के बीज स्थापन से (वाम्) तुम दोनों को (दानाय) देने के लिये (आववृतीय) अच्छे वर्त्तूं जैसे (माहिना) बड़ी होने से (क्षोणी) भूमि (अपः) जलों का (सचते) सम्बन्ध करती है वैसे (जूर्णः) रोगवान् मैं (वाम्) तुम्हारा सम्बन्ध करूँ और (अक्षुः) व्याप्त होने को शीलस्वभाववाला मैं (अंहसः) दुष्टाचार से (वाम्) तुम दोनों को अलग रक्खूँ ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। विद्वान् जन स्त्री-पुरुषों के लिये ऐसा उपदेश करें कि जैसे हम लोग तुम्हारे लिये विद्यायें देवें, दुष्ट आचारों से अलग रक्खें वैसा तुमको भी आचरण करना चाहिये और पृथिवी के समान क्षमा तथा परोपकारादि कर्म करने चाहियें ॥ ५ ॥
विषय
प्राणापान की देन
पदार्थ
१. हे (दस्त्रा) = मेरे शत्रुओं का उपक्षय करनेवाले प्राणापानो ! (वाम्) = आपको (दानाय) = उत्तम वस्तुओं के दान के लिए (आववृतीय) = मैं अपने अभिमुख करनेवाला बनूँ। आपको अपने अभिमुख करके मैं आपसे उत्तम दानों को प्राप्त करूँ । सर्वप्रथम आपकी साधना से मैं (गोः ओहेण) = ज्ञान की वाणी के वहन के द्वारा (तौग्रयः) = [तुग्र्या = water, आपः = रेतः] रेतःकणों को धारण करनेवाला अथवा [तुज् हिंसायाम्] कामादि शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाला होऊँ और (न जिव्रिः) = जीर्णशक्ति न हो जाऊँ । प्राणसाधना का सर्वोत्कृष्ट लाभ यही है कि- [क] हम ज्ञान की वाणियों का धारण करनेवाले बनते हैं, [ख] शत्रुओं का संहार कर पाते हैं, [ग] जीर्ण नहीं होते। २. हे प्राणापानो ! (वां माहिना) = आपकी महिमा से यह साधक (अपः) = अन्तरिक्षलोक को तथा (क्षोणी) = पृथिवीलोक को (सचते) = अपने में समवेत करता है। शरीर ही पृथिवीलोक है और हृदय अन्तरिक्ष है। इसका शरीर स्वस्थ व दृढ़ होता है तथा हृदयान्तरिक्ष भी व्यापक व उदार वृत्तिवाला होता है। शरीर में पृथिवी की भाँति दृढ़ता होती है, हृदय में जलों की भाँति व्यापकता। जल व्यापक से हैं, व्यापकता के कारण इनका नाम 'आप: ' है (आप् व्याप्तौ) । ३. हे प्राणापानो ! (यजत्रा) = आप यष्टव्य व उपासनीय हो । (वाम्) = आपकी उपासना से (जूर्णः) = जीर्णपुरुष भी (अंहसः) = सब कष्टों व पापों से मुक्त होकर (अक्षुः) = व्याप्त जीवनवाला [अश् व्याप्तौ] दीर्घजीवी बनता है। []'असतो मा सद् गमय' की भाँति 'अंहसः' यह पञ्चमी 'छोड़कर ' इस अर्थ को दे रही है । ]
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से वेदज्ञान की प्राप्ति होती है। हम वासनाओं को विनष्ट कर पाते हैं, जीर्णशक्ति नहीं होते, दृढ़ शरीर व उदार हृदय को प्राप्त करते हैं, रोगों से ऊपर उठकर दीर्घजीवी बनते हैं ।
विषय
गृहस्थ स्त्री पुरुषों को उपदेश ।
भावार्थ
(न) जिस प्रकार ( तौग्रयः ) शत्रु बलों का नाश करने वाले बलशाली पुरुषों में श्रेष्ठ, (जिव्रिः) विजयशील पुरुष ( गोः ओहेन ) गमनशील सवारी के वहन करने या चलाने से या (गोः ओहेण) पृथ्वी के भार को अपने ऊपर धारण करने से ( दस्रा दानाय आवर्तते ) नाशकारी शत्रुओं के खण्डन करने के लिये प्रवृत्त होता है उसी प्रकार हे स्त्री पुरुषो ! मैं (तौग्र्यः) आदान अर्थात् प्रतिग्रह करने योग्य पात्रों में उत्तम (जिव्रिः) विद्या वृद्धपुरुष ( गो:-ओहेण ) वाणी के तर्क वितर्क, ऊहापोह द्वारा ( दानाय ) तुम दोनों से धन दान रूप में लेने के लिये और तुमको सब प्रकार का उत्तम ज्ञान देने के लिये (दस्रा वां) दुखों के नाशक तुम दोनों को ( आ ववृतीय ) प्राप्त होता हूं। और जिस प्रकार ( माहिना क्षोणीअपः सचते ) बड़े होने के कारण जल, नदी आदि पृथ्वी में ही आश्रय पाते हैं इसी प्रकार ( अपः ) आप्तजन ( माहिना ) आप दोनों की महानुभावता से ( क्षोणी ) सूर्य और पृथिवी के समान स्तुति के योग्य ( वां ) आप दोनों को ( सचते ) प्राप्त हों और (अक्षुः) सब तत्वों का द्रष्टा विद्वान् ( जूर्णः ) ज्ञान, और वयस में वृद्ध, उपदेष्टा (यजत्रा वाम्) परस्पर संगत और दान शील और यत्नशील आप दोनों को (अहंसः) पाप से (आ ववृतीय) परे रखे। इति त्रयोविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ४, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ९ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ ३, ५, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । १० त्रिष्टुप । दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. विद्वान लोकांनी स्त्री-पुरुषांना असा उपदेश करावा, की आम्ही जसे तुमच्यासाठी विद्या देतो, दुष्ट आचरणापासून दूर ठेवतो तसे तुम्हीही आचरण केले पाहिजे व पृथ्वीप्रमाणे क्षमा व परोपकार इत्यादी कर्म केले पाहिजे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, adorable friends of all, like an old and worn out person, like a strong man among the strong, by virtue of the gifts of mother earth I come to you for the gift of strength and sustenance. By virtue of your greatness and generosity the earth has the rain showers. Friends and benefactors, let me be free from sin and suffering even when I am old and tired and be with you for long.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O destroyers of misery! you unify people like an old person hailing from a strong person. I come to you to offer a gift in order to get a good return like sowing the seed. As the earth is great and connected with water, in the same manner, I an old and diseased person, may associate myself with you (to seek advice regarding the health etc.). Study various sciences, and I may keep you away from all sins.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As we import knowledge to you and keep you away from all evil conduct, so you should also act. Like earth, you should perform benevolent acts of forgiveness and beneficence.
Foot Notes
(दस्रा) दुःखोपक्षेप्तारौ = Destroyers of misery. (तौग्रय:) तुम्रा: बलिनस्तेषु भवः = Born in the family of the strong. (क्षोणी) भूमि: । क्षोणीति पृथिवी नाम (NG. 1-1 ) = The earth.
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