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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 180 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 180/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नि यद्यु॒वेथे॑ नि॒युत॑: सुदानू॒ उप॑ स्व॒धाभि॑: सृजथ॒: पुरं॑धिम्। प्रेष॒द्वेष॒द्वातो॒ न सू॒रिरा म॒हे द॑दे सुव्र॒तो न वाज॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । यत् । यु॒वेथे॒ इति॑ । नि॒ऽयुतः॑ । सु॒दा॒नू॒ इति॑ सुऽदानू । उप॑ । स्व॒धाभिः॑ । सृ॒ज॒थः॒ । पुर॑म्ऽधिम् । प्रेष॑त् । वेष॑त् । वातः॑ । न । सू॒रिः । आ । म॒हे । द॒दे॒ । सु॒ऽव्र॒तः । न । वाज॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि यद्युवेथे नियुत: सुदानू उप स्वधाभि: सृजथ: पुरंधिम्। प्रेषद्वेषद्वातो न सूरिरा महे ददे सुव्रतो न वाजम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि। यत्। युवेथे इति। निऽयुतः। सुदानू इति सुऽदानू। उप। स्वधाभिः। सृजथः। पुरम्ऽधिम्। प्रेषत्। वेषत्। वातः। न। सूरिः। आ। महे। ददे। सुऽव्रतः। न। वाजम् ॥ १.१८०.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 180; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सन्तानशिक्षापरं गार्हस्थ्यकर्म्माह ।

    अन्वयः

    यद्यदा हे सुदानू स्त्रीपुरुषौ नियुतो नियुवेथे तदा स्वधाभिर्यस्य पुरन्धिमुपसृजथः स सूरिः प्रेषत् वातो न वेषत्। सुव्रतो न महे वाजमाददे ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (नि) (यत्) यदा (युवेथे) सङ्गमयथः (नियुतः) वायोर्वेगादिगुणानिव निश्चितान् पदार्थान् (सुदानू) सुष्ठुदानकर्त्तारौ (उप) (स्वधाभिः) अन्नादिभिः पदार्थैः (सृजथः) (पुरन्धिम्) प्राप्तव्यं विज्ञानम् (प्रेषत्) प्रीणीत। लेट्प्रयोगः तिपि। (वेषत्) अभिगच्छतु। तिपि लेट्प्रयोगः। (वातः) वायुः (न) इव (सूरिः) विद्वान् (आ) (महे) महते (ददे) (सुव्रतः) शोभनैर्व्रतैर्धर्म्यैर्नियमैर्युक्तः (न) इव (वाजम्) विज्ञानम् ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। पित्रादयः शिल्पक्रियाकौशलतां पुत्रेषु सम्पादयेयुः। शिक्षां प्राप्ताः पुत्रादयः सर्वपदार्थान् विजानीयुः कलायन्त्रैः चलितेन वायुवद्वेगेन यानेन यत्र कुत्राभीष्टप्रदेशं स्थाने गच्छेयुः ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सन्तानशिक्षापरक गार्हस्थ कर्म अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यत्) जब हे (सुदानू) सुन्दर दानशील स्त्रीपुरुषो ! (नियुतः) पवन के वेगादि गुणों के समान निश्चित पदार्थों को (नियुवेथे) एक दूसरे से मिलाते हो तब (स्वधाभिः) अन्नादि पदार्थों से जिससे (पुरन्धिम्) प्राप्त होने योग्य विज्ञान को (उप, सृजथः) उत्पन्न करते हो वह (सूरिः) विद्वान् (प्रेषत्) प्रसन्न हो (वातः) पवन के (न) समान (वेषत्) सब ओर से गमन करे और (सुव्रतः) सुन्दर व्रत अर्थात् धर्म के अनुकूल नियमों से युक्त सज्जन पुरुष के (न) समान (महे) महत्त्व अर्थात् बड़प्पन के लिये (वाजम्) विशेष ज्ञान को (आददे) ग्रहण करता हूँ ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। पितादिकों को चाहिये कि शिल्पक्रिया की कुशलता को पुत्रादिकों में उत्पन्न करावें, शिक्षा को प्राप्त हुए पुत्रादि समस्त पदार्थों को विशेषता से जानें और कलायन्त्रों से चलाये हुए पवन के समान जिससे वेग उस यान से जहाँ-तहाँ चाहे हुए स्थान को जावें ॥ ६ ॥

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    विषय

    स्वधा+पुरन्धि

    पदार्थ

    १. हे (सुदानू) = शोभन दानवाले प्राणापानो! गत मन्त्र में वर्णित प्रकार से उत्तम दानों के देनेवाले प्राणापानो! (यत्) = जब आप (नियुतः) = हमारे इन इन्द्रियाश्वों को (नियुवेथे) = निश्चय से हमारे शरीर-रथ में जोतते हो तो आप (स्वधाभिः) = आत्मधारण-शक्तियों के साथ (पुरन्धिम्) = पालक व पूरक बुद्धि को (उपसृजथ:) = हममें उत्पन्न करते हो । प्राणसाधना से [क] ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानप्राप्ति में लगती हैं, कर्मेन्द्रियाँ यज्ञादि उत्तम कर्मों में, (ख) उस समय हमारे हृदय आत्मतत्त्व को धारण करने की शक्तिवाले होते हैं, निर्मल हृदयों में हम आत्मा को प्रतिष्ठित करते हैं, (ग) हमारा मस्तिष्क पालक व पूरक बुद्धि से भूषित होता है। इस प्रकार प्राणसाधना से हमारी इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि- ये असुरों के अधिष्ठान नहीं बने रहते। इनमें असुरों से बनाये गये अधिष्ठान नष्ट हो जाते हैं। इनमें देवस्थान बन जाते हैं । २. उस समय यह सूरिः = ज्ञानी स्तोता वातः न वायु के समान शीघ्रता से कार्य करता हुआ प्रेषत् प्रभु को प्रीणित करता है (प्रीणाते: लेटि रूपम्) । कर्मों से ही तो प्रभु का आराधन होता है। वेषत् = (वी गतौ) यह प्रभु की ओर ही चलनेवाला होता है। यह सुव्रतः न एक उत्तम व्रतोंवाले पुरुष की भाँति महे= ( मह पूजायाम्) महत्त्वपूर्ण जीवन के लिए वाजम्-शक्ति व त्याग को (वाज - Sacrifice) आ ददे स्वीकार करता । शक्तिशाली वा त्यागशील बनकर ही हम प्रभु का पूजन कर पाते हैं, तभी हमारे जीवनों में कुछ महत्त्व प्राप्त होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ – प्राणसाधना से इन्द्रियाँ स्वकार्य में ठीक से प्रवृत्त होती हैं, हृदय में आत्मा का प्रतिष्ठान होता है, मस्तिष्क बुद्धि से सुभूषित होता है। हम शक्ति व त्याग को अपनाकर जीवन को महत्त्वपूर्ण बना पाते हैं ।

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    विषय

    गृहस्थ स्त्री पुरुषों को उपदेश ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (सुदानू) उत्तम रीति से जल देने वाले अन्तरिक्ष और द्यौ, या विद्युत् और सूर्य दोनों (नियुतः युवेथे) वेगवान् वायुओं को परस्पर मिलाते हैं तब वे दोनों (स्वधाभिः पुरन्धिम्) जलों से पृथिवी को बरसा देते हैं। तब (वातः सूरिः न) वायु भी सूर्य के समान ही ( प्रेषत् वेषत् ) सबकी तृप्ति करता और व्यापता है और (सुव्रतः वाजम् आददे) उत्तम उद्योगी कृषक अन्न प्राप्त करता है उसी प्रकार हे स्त्री पुरुषो ! उत्तम नायक नायिक-जनो ! (यत्) जब तुम दोनों (नियुतः) अपने अधीन वेग से चलने वाले अश्वों, सेनाओं और नियुक्त भृत्यों को (नि युवेथे) नियुक्त करते हो तब आप दोनों (सुदानू) उत्तम दानशील और बाधक विघ्नों के नाश करने में चतुर होकर (स्वधाभिः) अपने प्रजा धारण के सामर्थ्यों, अन्नों, से (पुरन्धिम्) पुर को धारण करने वाले उत्तम शासक को, उत्तम पुत्र के धारण पालन योग्य सामर्थ्य को (निसृजथः) उत्पन्न करते हो । उस समय वह (सूरिः) तेजस्वी विद्वान् (वातः न) वायु के समान सबका जीवनप्रद होकर (प्रेषद्) सबको उत्तम मार्ग में चलावे, सबको प्रसन्न करे और (वेषत्) सर्वत्र सुख सौभाग्य द्वारा व्यापे, सर्वत्र रेख देख रखे । और वह (सुव्रतः न) उत्तम कर्मसम्पादन करता हुआ (महे) बड़े भारी प्रयोजन के लिये (वाजम् आददे) ऐश्वर्य, बल को अपने हाथ में लेवे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ४, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ९ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ ३, ५, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । १० त्रिष्टुप । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. पिता इत्यादींनी शिल्पक्रियेची कुशलता पुत्रांमध्ये उत्पन्न करावी. शिक्षण प्राप्त केलेल्या पुत्र इत्यादींनी संपूर्ण पदार्थांची विशेषता जाणावी व कलायंत्रांनी चालविलेल्या वायूप्रमाणे वेगाने त्या यानाने इच्छित स्थानी जावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, generous givers, when you join the materials which ought to be compounded, you create new knowledge with inputs into the fire. Let the bold scholar dedicated to the laws of nature and his own vows be happy. Let him go round like the winds, and I would receive the gift of knowledge, energy and speed for advancement and greatness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The householders should teach children.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O philanthropist men and women ! you joint articles pertaining to the attributes of speed and of the wind etc. With the proper diet taken, you acquire desirable knowledge. Done this such a scholar satisfies all, during his whirlwind journeys. Like a man observing good vows, I also accept true knowledge for real greatness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of parents and others to make their children experts in arts and industries. Educated issues should know the attributes of all articles. By the use of speedy vehicles like the wind, they should go to all destined places.

    Foot Notes

    (नियुतः) वायोः वेगादिगुणान् इव निश्चितान् पदार्थान्– Fixed articles like the speed and other attributes of the wind. (पुरन्धिम्) प्राप्तव्यं विज्ञानम्—The special knowledge which is worth achieving.

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