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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 180 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 180/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    व॒यं चि॒द्धि वां॑ जरि॒तार॑: स॒त्या वि॑प॒न्याम॑हे॒ वि प॒णिर्हि॒तावा॑न्। अधा॑ चि॒द्धि ष्मा॑श्विनावनिन्द्या पा॒थो हि ष्मा॑ वृषणा॒वन्ति॑देवम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒यम् । चि॒त् । हि । वा॒म् । ज॒रि॒तारः॑ । स॒त्याः । वि॒प॒न्याम॑हे । वि । प॒णिः । हि॒तऽवा॑न् । अध॑ । चि॒त् । हि । स्म॒ । अ॒श्वि॒नौ॒ । अ॒नि॒न्द्या॒ । पा॒थः । हि । स्म॒ । वृ॒ष॒णौ॒ । अन्ति॑ऽदेवम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयं चिद्धि वां जरितार: सत्या विपन्यामहे वि पणिर्हितावान्। अधा चिद्धि ष्माश्विनावनिन्द्या पाथो हि ष्मा वृषणावन्तिदेवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वयम्। चित्। हि। वाम्। जरितारः। सत्याः। विपन्यामहे। वि। पणिः। हितऽवान्। अध। चित्। हि। स्म। अश्विनौ। अनिन्द्या। पाथः। हि। स्म। वृषणौ। अन्तिऽदेवम् ॥ १.१८०.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 180; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हेऽनिन्द्या वृषणावश्विनौ यथा हितावान् विपणिर्वां प्रशंसति तथा वां प्रशंसेम यथा चिद्धि जरितारः सत्या वयं युवां विपन्यामहे तथा स्माह्यन्तिदेवं सेवेमहि यथा हि स्म पाथश्चित् तर्पयति तथाध विदुषः सत्कुर्याम ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (वयम्) (चित्) अपि (हि) (वाम्) युवाम् (जरितारः) स्तावकाः (सत्याः) सत्सु साधवः (विपन्यामहे) विशेषेण स्तुमहे (वि) (पणिः) व्यवहर्त्ता (हितावान्) हितं विद्यते यस्य सः (अध) अनन्तरम्। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (चित्) इव (हि) खलु (स्म) एव (अश्विनौ) सर्वपदार्थगुणव्यापिनौ स्त्रीपुरुषौ (अनिन्द्या) निन्दितुमनर्हौ (पाथः) उदकम् (हि) विस्मये (स्म) अतीते। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (वृषणौ) बलिष्ठौ (अन्तिदेवम्) अन्तिषु विद्वत्सु विद्वांसम् ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्यथा विद्वांसो प्रशंसनीयान् प्रशंसन्ति निन्द्यान्निन्दन्ति तथा वर्त्तितव्यम् ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अनिन्द्या) निन्दा के न योग्य (वृषणौ) बलवान् (अश्विनौ) समस्त पदार्थ गुण व्यापी स्त्रीपुरुषो ! तुम जैसे (हितावान्) हित जिसके विद्यमान वह (विपणिः) विशेषतर व्यवहार करनेवाला जन (वाम्) तुम दोनों की प्रशंसा करता है वैसे हम लोग प्रशंसा करें। वा जैसे (चित्, हि) ही (जरितारः) स्तुति प्रशंसा करने और (सत्याः) सत्य व्यवहार वर्त्तनेवाले (वयम्) हम लोग तुम दोनों की (विपन्यामहे) उत्तम स्तुति करते हैं वैसे (स्म, हि) ही (अन्तिदेवम्) विद्वानों में विद्वान् जन की सेवा करें वा जैसे (हि, स्म) ही आश्चर्यरूप (पाथः) जल (चित्) निश्चय से तृप्ति करता है वैसे (अध) इसके अनन्तर विद्वानों का सत्कार करें ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे विद्वान् जन प्रशंसा करने योग्यों की प्रशंसा करते और निन्दा करने योग्यों की निन्दा करते हैं, वैसे वर्त्ताव रक्खें ॥ ७ ॥

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    विषय

    प्रशस्त जीवन

    पदार्थ

    १. हे (अश्विनौ) = प्राणापानो! (वयम्) = हम (चित् हि) = निश्चय से (वाम्) = आपके (जरितारः) = स्तोता हैं (सत्यः) = हम आपकी कृपा से सत्य जीवनवाले होते हुए (विपन्यामहे) = विशिष्टरूप से प्रभु का स्तवन करनेवाले बनते हैं। (विपणिः) = विशिष्टरूप से स्तवन करनेवाला व्यक्ति ही (हितावान्) = निहित ऐश्वर्यवाला होता है । प्राणसाधना से दोष दग्ध होते हैं, हमारा जीवन सत्य होता है और ऐसे जीवनवाले बनकर हम प्रभु का सच्चा स्तवन कर रहे होते हैं। (अध) = अब हे प्राणापानो! आप (चित् हि) = निश्चय से (अनिन्द्या स्म) = अनिन्द्य हैं। प्राणसाधना से सब निन्द्य बातें दूर हो जाती हैं। शरीर के रोग और मन की वासनाएँ इससे नष्ट हो जाती हैं, अतः प्राणसाधना से जीवन अत्यन्त प्रशस्त व सुन्दर बन जाता है। ३. हे (वृषणौ) = हममें शक्ति का सञ्चार करनेवाले प्राणापानो! आप (हि स्म) = निश्चय से (अन्तिदेवम्) = [अन्तिदेवो यस्मात्] जिसके द्वारा देव [प्रभु] की समीपता होती है उस सोम [वीर्य] को शरीर में ही (पाथः) = रक्षित करते हो। इस सोमरक्षण के द्वारा ही प्राणसाधना के सब लाभ होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना हमारे जीवन को सत्य बनाती है। हम इससे परमेश्वर के सच्चे. उपासक बनते हैं, ऐश्वर्य को प्राप्त करते हैं। हमारा जीवन अनिन्द्य होता है और हम प्रभु को प्राप्त करते हैं।

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    विषय

    गृहस्थ स्त्री पुरुषों को उपदेश ।

    भावार्थ

    हे (अश्विनौ) ऐश्वर्यों के भोग करने वाले, स्त्री पुरुषो ! (वयं चित्) हम (जरितारः) उत्तम स्तुति करने हारे (सत्याः) सज्जनों में उत्तम सत्य वचन कहने वाले (वां) तुम दोनों की (विपन्यामहे) विविध प्रकार की स्तुति करते हैं और तुमसे नाना प्रकार के व्यवहार करते हैं, उसी प्रकार (हितवान्) हित चाहने वाला (पणिः) विद्वान् पुरुष भी(वि) विविध प्रकार से उपदेश दे। इसी प्रकार (पणिः) व्यवहारवान् वैश्य जन भी (हितवान्) बहुत धनसंग्रहवान् होकर (वां वि) तुम लोगों से नाना प्रकार के व्यवहार किया करें । (अध चित् ह स्म) और इसी प्रकार आप दोनों (अनिन्द्या) कभी निन्दा योग्य न होकर सदा (वृषणौ) बलवान् और जल वृष्टि करने वाले सूर्य वायु के समान सब पर सुखों की वृष्टि करने वाले होकर (अन्ति देवम् पाथः) देव परमेश्वर और विद्वानों के समीप रहकर विद्याभ्यास करने वाले ब्रह्मचारी वर्ग और देव के समीप स्थित, भक्त ईश्वरोपासक जन को भी (पाथः) पालन किया करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ४, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ९ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ ३, ५, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । १० त्रिष्टुप । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे विद्वान लोक प्रशंसा करण्या योग्यांची प्रशंसा करतात व निन्दा करण्यायोग्याची निंदा करतात, तसा माणसांनी व्यवहार करावा. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, ever truthful, beyond calumny, mighty and generous, we are your admirers, in fact worshippers. We praise you as we praise a scholar among scholars who does good to all. And just as you protect and honour a scholar among scholars and worship God among divines, so may we too serve you and the divinities of nature and humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    One should be forthright in his dealings and speech.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O irreproachable mighty showerers of the benefits, learned men and women! you persuade all the attributes of the substances (know them well). We verily praise you as benevolent in various ways. We admire you because of being virtuous, and truthful. Likewise, we serve the best among scholars. As water makes us delighted and quenches our thirst, so we may honor the enlightened persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should conduct themselves like the enlightened persons who admire and praise the worthy and reprimand the condemnable.

    Foot Notes

    ( अश्विनौ ) सर्वपदार्थगुणव्यापिनो स्त्रीपुरुषौ = Men and women who pervade in or know well the attributes of all articles (पाथ:) उदकम् = Water. (अन्तिदेवम् ) अन्तिषु विद्वत्सु विद्वांसम् = The best among the scholars.

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