ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
शिप्रि॑न्वाजानां पते॒ शची॑व॒स्तव॑ दं॒सना॑। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥
स्वर सहित पद पाठशिप्रि॑न् । वा॒जा॒ना॒म् । प॒ते॒ । शची॑ऽवः । तव॑ । दं॒सना॑ । आ । तु । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । शं॒स॒य॒ । गोषु॑ । अश्वे॑षु । शु॒भ्रिषु॑ । स॒हस्रे॑षु । तु॒वी॒ऽम॒घ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शिप्रिन्वाजानां पते शचीवस्तव दंसना। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥
स्वर रहित पद पाठशिप्रिन्। वाजानाम्। पते। शचीऽवः। तव। दंसना। आ। तु। नः। इन्द्र। शंसय। गोषु। अश्वेषु। शुभ्रिषु। सहस्रेषु। तुवीऽमघ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स ऐश्वर्ययुक्तः कीदृश इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे शिप्रिन् शचीवो वाजानां पते तुवीमघेन्द्र न्यायाधीश ! या तव दंसनास्ति तया सहस्रेषु शुभ्रिषु गोष्वश्वेषु नोऽस्मानाशंसय प्रकृष्टगुणवतः सम्पादय॥२॥
पदार्थः
(शिप्रिन्) शिप्रे प्राप्तुमर्हे प्रशस्ते व्यावहारिकपारमार्थिके सुखे विद्येते यस्य सभापतेस्तत्सम्बुद्धौ। अत्र प्रशंसार्थ इनिः। शिप्रे इति पदनामसु पठितम्॥ (निघं०४.१) (वाजानाम्) संग्रामाणां मध्ये (पते) पालक (शचीवः) शची बहुविधं कर्म बह्वी प्रजा वा विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ। शचीति प्रजानामसु पठितम्। (निघं०३.९) कर्मनामसु च (निघं०२.१) अत्र छन्दसीरः। (अष्टा०८.२.१५) इति मतुपो मस्य वः। मतुवसो रु० (अष्टा०८.३.१) इति रुत्वं च। (तव) न्यायाधीशस्य (दंसना) दंसयति भाषयत्यनया क्रियया सा। ण्यासश्रन्थो युच्। (अष्टा०३.३.१०) अनेन दंसिभाषार्थ इत्यस्माद्युच् प्रत्ययः। (आ) अभ्यर्थे क्रियायोगे (तु) पुनरर्थे। पूर्ववद्दीर्घः (नः) अस्माँस्त्वदाज्ञायां वर्त्तमानान् विदुषः (इन्द्र) सर्वराज्यैश्वर्यधारक (शंसय) प्रकृष्टगुणवतः कुरु (गोषु) सत्यभाषणशास्त्रशिक्षासहितेषु वागादीन्द्रियेषु। गौरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (अश्वेषु) वेगादिगुणवत्सु अग्न्यादिषु (शुभ्रिषु) शोभनेषु विमानादियानेषु तत् साधकतमेषु वा (सहस्रेषु) बहुषु (तुविमघ) बहुविधं मघं पूज्यं विद्याधनं यस्य तत्सम्बुद्धौ। मघमिति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) मघमिति धननामधेयम्। मंहतेर्दानकर्मणः। (निरु०१.७) अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः॥२॥
भावार्थः
मनुष्यैरित्थं जगदीश्वरं प्रार्थनीयः। हे भगवन् ! त्वया कृपया यथा न्यायाधीशत्वमुत्तमं राज्यादिकं च सम्पाद्यते तथास्मान् पृथिवीराज्यवतः सत्यभाषणयुक्तान् ब्रह्मशिल्पविद्यादिसिद्धिकारकान् बुद्धिमतो नित्यं सम्पादयेति॥२॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह विभूतियुक्त सभाध्यक्ष कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (शिप्रिन्) प्राप्त होने योग्य प्रशंसनीय ऐहिक पारमार्थिक वा सुखों को देने हारे (शचीवः) बहुविध प्रजा वा कर्मयुक्त (वाजानाम्) बड़े-बड़े युद्धों के (पते) पालन करने और (तुविमघ) अनेक प्रकार के प्रशंसनीय विद्याधन युक्त (इन्द्र) परमैश्वर्य सहित सभाध्यक्ष जो (तव) आपकी (दंसना) वेद विद्यायुक्त वाणी सहित क्रिया है, उससे आप (सहस्रेषु) हजारह (शुभ्रिषु) शोभन विमान आदि रथ वा उनके उत्तम साधन (गोषु) सत्यभाषण और शास्त्र की शिक्षा सहित वाक् आदि इन्द्रियाँ (अश्वेषु) तथा वेग आदि गुणवाले अग्नि आदि पदार्थों से युक्त घोड़े आदि व्यवहारों में (नः) हम लोगों को (आशंसय) अच्छे गुणयुक्त कीजिये॥२॥
भावार्थ
मनुष्यों को इस प्रकार जगदीश्वर की प्रार्थना करनी चाहिये कि हे भगवन् ! कृपा करके जैसे न्यायाधीश अत्युत्तम राज्य आदि को प्राप्त कराता है, वैसे हम लोगों को पृथिवी के राज्य सत्य बोलने और शिल्पविद्या आदि व्यवहारों की सिद्धि करने में बुद्धिमान् नित्य कीजिये॥२॥
विषय
फिर वह विभूतियुक्त सभाध्यक्ष कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे शिप्रिन् शचीवः वाजानां पते तुवीमघ इन्द्र न्यायाधी! यी तव दसना अस्ति तया सहस्रेषु शुभ्रिषु गोषु अश्वेषु नःअस्मान् आशंसय प्रकृष्टगुणवतः सम्पादय॥२॥
पदार्थ
हे (शिप्रिन्) शिप्रे प्राप्तुमर्हे प्रशस्ते व्यावहारिकपारमार्थिके सुखे विद्येते यस्य सभापतेस्तत्सम्बुद्धौ=प्राप्त होने योग्य प्रशंसनीय व्यावहारिक और पारमार्थिक सुखों को देने हारे, (शचीवः) शची बहुविधं कर्म बह्वी प्रजा वा विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ=बहुविध प्रजा वा कर्मयुक्त, (वाजानाम्) संग्रामाणां मध्ये=बड़े-बड़े युद्धों के बीच में, (पते) पालक=पालन करने वाले, (तुविमघ) बहुविधं मघं पूज्यं विद्याधनं यस्य तत्सम्बुद्धौ=अनेक प्रकार के प्रशंसनीय विद्याधन युक्त, (इन्द्र) सर्वराज्यैश्वर्यधारक=समस्त ऐश्वर्य धारण करने वाले, (न्यायाधीश)=न्यायाधीश! (या)=जो, (तव) न्यायाधीशस्य=न्यायाधीश के, (दंसना) दंसयति भाषयत्यनया क्रियया सा=वेद विद्यायुक्त वाणी सहित क्रिया, (अस्ति)=है, (तया)=उससे, (सहस्रेषु) बहुषु=बहुतों में, (शुभ्रिषु) शोभनेषु विमानादियानेषु तत् साधकतमेषु वा= शोभनीय विमान आदि रथ या उनके उत्तम साधनों में, (गोषु) सत्यभाषण और शास्त्र की शिक्षा सहित वाणी आदि इन्द्रियों में, (अश्वेषु)=तथा वेग आदि गुणवाले अग्नि आदि पदार्थों से युक्त घोड़े आदि व्यवहारों में (नः) अस्माँस्त्वदाज्ञायां वर्त्तमानान् विदुषः= हम लोगों की आज्ञा में उपस्थित विद्वान्, (आ) अभ्यर्थे क्रियायोगे=अच्छे प्रकार से, (शंसय) प्रकृष्टगुणवतः कुरु=गुणयुक्त कीजिये॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों को इस प्रकार जगदीश्वर की प्रार्थना करनी चाहिये। हे भगवन् ! आपकी कृपा से जैसे न्यायाधीशता और उत्तम राज्य आदि को बनाता है, वैसे ही हम लोगों को पृथिवी के राज्य के समान सत्य भाषण से युक्त और ब्रह्म, शिल्पविद्या आदि व्यवहारों की सिद्धि करने में नित्य बुद्धिमान् बनाइये॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (शिप्रिन्) प्राप्त होने योग्य प्रशंसनीय व्यावहारिक और पारमार्थिक सुखों को देनेवाले, (शचीवः) बहुविध प्रजा वा कर्मयुक्त (वाजानाम्) बड़े-बड़े युद्धों के बीच में (पते) पालन करने वाले (तुविमघ) अनेक प्रकार के प्रशंसनीय विद्याधन युक्त (इन्द्र) समस्त ऐश्वर्य धारण करने वाले (न्यायाधीश) न्यायाधीश! (या) जो (तव) आप न्यायाधीश के (दंसना) वेद विद्यायुक्त वाणी सहित क्रिया (अस्ति) है। (तया) उससे (सहस्रेषु) असंख्यात में, (शुभ्रिषु) शोभन विमान आदि रथ वा उनके उत्तम साधनों में, (गोषु) सत्यभाषण और शास्त्र की शिक्षा सहित वाणी आदि इन्द्रियों में (अश्वेषु) तथा वेग आदि गुणवाले अग्नि आदि पदार्थों से युक्त घोड़े आदि के व्यवहारों में (नः) हम लोगों की आज्ञा में उपस्थित विद्वान् को (आ) अच्छे प्रकार से (शंसय) गुणयुक्त कीजिये॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (शिप्रिन्) शिप्रे प्राप्तुमर्हे प्रशस्ते व्यावहारिकपारमार्थिके सुखे विद्येते यस्य सभापतेस्तत्सम्बुद्धौ। अत्र प्रशंसार्थ इनिः। शिप्रे इति पदनामसु पठितम्॥ (निघं०४.१) (वाजानाम्) संग्रामाणां मध्ये (पते) पालक (शचीवः) शची बहुविधं कर्म बह्वी प्रजा वा विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ। शचीति प्रजानामसु पठितम्। (निघं०३.९) कर्मनामसु च (निघं०२.१) अत्र छन्दसीरः। (अष्टा०८.२.१५) इति मतुपो मस्य वः। मतुवसो रु० (अष्टा०८.३.१) इति रुत्वं च। (तव) न्यायाधीशस्य (दंसना) दंसयति भाषयत्यनया क्रियया सा। ण्यासश्रन्थो युच्। (अष्टा०३.३.१०) अनेन दंसिभाषार्थ इत्यस्माद्युच् प्रत्ययः। (आ) अभ्यर्थे क्रियायोगे (तु) पुनरर्थे। पूर्ववद्दीर्घः (नः) अस्माँस्त्वदाज्ञायां वर्त्तमानान् विदुषः (इन्द्र) सर्वराज्यैश्वर्यधारक (शंसय) प्रकृष्टगुणवतः कुरु (गोषु) सत्यभाषणशास्त्रशिक्षासहितेषु वागादीन्द्रियेषु। गौरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (अश्वेषु) वेगादिगुणवत्सु अग्न्यादिषु (शुभ्रिषु) शोभनेषु विमानादियानेषु तत् साधकतमेषु वा (सहस्रेषु) बहुषु (तुविमघ) बहुविधं मघं पूज्यं विद्याधनं यस्य तत्सम्बुद्धौ। मघमिति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) मघमिति धननामधेयम्। मंहतेर्दानकर्मणः। (निरु०१.७) अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः॥२॥
विषयः- पुनः स ऐश्वर्ययुक्तः कीदृश इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः- हे शिप्रिन् शचीवो वाजानां पते तुवीमघेन्द्र न्यायाधीश ! या तव दंसनास्ति तया सहस्रेषु शुभ्रिषु गोष्वश्वेषु नोऽस्मानाशंसय प्रकृष्टगुणवतः सम्पादय॥२॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैरित्थं जगदीश्वरं प्रार्थनीयः। हे भगवन् ! त्वया कृपया यथा न्यायाधीशत्वमुत्तमं राज्यादिकं च सम्पाद्यते तथास्मान् पृथिवीराज्यवतः सत्यभाषणयुक्तान् ब्रह्मशिल्पविद्यादिसिद्धिकारकान् बुद्धिमतो नित्यं सम्पादयेति॥२॥
विषय
स्वकर्मों द्वारा
पदार्थ
१. गतमन्त्र की प्रार्थना को सुनकर प्रभु जीव से कहते हैं - (शिप्रिन्) - उत्तम हनु व नासिकावाले ! 'हनु' शब्द जबड़ों के लिए प्रयुक्त होता है । यह व्यक्ति जो कि सात्त्विक पदार्थों का ही सेवन करता है , वह शोभन हनुवाला व शिप्री है । इस प्रकार 'नासिका' शब्द यहाँ प्राणों का प्रतीक है । जो व्यक्ति नियमित रूप से प्राणसाधना करता है वह भी 'शिप्रिन्' है । सात्त्विक भोजन व प्राणायाम के द्वारा ही (वाजानां पते) - हे ऐश्वर्यों के स्वामिन् ! तथा (शचीवः) - उत्तम प्रज्ञा व कर्मोंवाले (इन्द्र) - इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! (तव दंसना) - तेरे कर्मों से ही तू (नः) - हमारी , हमसे दी गई इन (शुभ्रिषु) - शुद्ध व (सहस्त्रेषु) - प्रसादयुक्त (गोषु) - ज्ञानेन्द्रियों में तथा (अश्वेषु) - कर्मेन्द्रियों में (आशंसय) - अपने जीवन को प्रशंसनीय बना और इस प्रकार (तुवीमघ) - महान् ऐश्वर्योवाला हो ।
२. यहाँ 'तव दंसना' शब्द बड़े महत्त्वपूर्ण हैं । प्रभु कहते हैं कि तुझे अपने कर्मों से ही अपने को प्रशस्त बनाना है । अपने पुरुषार्थ से ही तुझे मेरे द्वारा दी गई इन्द्रियों को शुद्ध व प्रसन्न रखना है । ऐसा करके ही तू अपने ऐश्वर्यों को बढ़ा रहा होगा । प्रवृद्ध ऐश्वर्यवाला होकर तू तुवीमघ होगा
३. उन कर्मों का संकेत सम्बोधन - पदों से हो रहा है
[क] (शिप्रिन्) - उत्तम सात्त्विक भोजन करना है तथा प्राणसाधना बड़े नियमित रूप से करनी है ।
[ख] (वाजानां पते) - अपनी शक्तियों का रक्षण करना है तथा
[ग] (शचीवः) - उत्तम प्रज्ञा व कर्मवाला बनना है ।
भावार्थ
भावार्थ - 'शिप्री , वाजानां पति व शचीवान्' बनकर हम अपनी इन्द्रियों को शुद्ध व प्रसन्न बनाएँ ।
विषय
राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(शिप्रिन्) हे प्राप्तव्य! ऐहिक पारमार्थिक दोनों सुखों को प्राप्त करने हारे ज्ञानवन्! बलवन्! (वाजानां पते) संग्रामों और ऐश्वर्यों के पालक, हे (शचीवः) शक्ति, प्रज्ञा और प्रजा के स्वामिन्! (तव) तेरा ही यह (दंसना) सब सामर्थ्य है। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् प्रभो! (नः तु) हमें भी (गोषु अश्वेषु सहस्त्रेषु शुभ्रिषु नः आशंसय) सहस्रों शोभाजनक विमानादि ऐश्वर्यो में उत्तम सम्पन्न कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप आजीगर्तिर्ऋषिः । इन्द्रो देवता । पङ्क्तिश्छन्दः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी जगदीश्वराची प्रार्थना केली पाहिजे, की हे भगवान! जसे न्यायाधीश अत्युत्तम राज्य प्राप्त करवून देतो, कृपा करून तसे पृथ्वीचे राज्य, सत्यवचन व शिल्पव्यवहाराची सिद्धी करण्यासाठी आम्हाला बुद्धिमान कर. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, lord of glory, giver of secular and sacred wealth and well-being, protector and supporter of our struggle for progress and prosperity, master of man power and great action, by virtue of the divine voice and under your presence and protection, bless us to rise to a splendid state of thousand-fold good health of sound sense and knowledge and speedy progress in prosperity, transport and communication.
Subject of the mantra
Then, how is that one, who has superhuman powers? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (śiprin) =provider of the praiseworthy pleasures relating to the worldly life and spiritual knowledge to be attained, (śacīvaḥ)=having manifold subjects and full of deeds, (vājānām=in the midst of great wars, (pate)=caregivers, (tuvimagha) =with a variety of laudable knowledge of mankind, (indra)=possessor of all opulence, (nyāyādhīśa)=judge, (yā)=that, (tava)=of you the judge, (daṃsanā) =action with voice of knowledge of Veda, (asti)=is, (tayā)=by that, (sahasreṣu)=in innumerable, (śubhriṣu)=in beautiful aircrafts chariots or their best means, (goṣu)=in truthful speech and speech etc. senses including teaching of scriptures, (aśveṣu)=and in the behavior of horses, etc., with materials such as fire, etc. (naḥ)=the scholars present at our command, (ā)=properly, (śaṃsaya) =make brilliant.
English Translation (K.K.V.)
O provider of the praiseworthy pleasures relating to the worldly life and spiritual knowledge to be attained; having manifold subjects and full of deeds; in the midst of great wars, caregivers, with a variety of laudable knowledge of mankind; possessor of all opulence, judge! That is action with voice of knowledge of Vedas of you judge. By those beautiful aircrafts, chariots or their best means, innumerable, truthful speech and senses of speech etc. including teaching of scriptures and the scholars present at our command, make brilliant properly, in application of horses with fire etc., substances having quality of speed et cetera.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Human beings should pray to God in this way. “O God! By your grace, as one makes justice and a perfect kingdom etc., in the same way, like the kingdom of the earth, make us wise with truthful speech and always wise in the accomplishment of God, craftsmanship et cetera.”
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is that Indra is taught further in the 2nd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O president, the source of secular as well as spiritual happiness, lord of good actions and the subjects, the protector in the battles, Possessor of admirable wealth of wisdom, make us highly virtuous by your acts along the Vedic speech and in the senses full of truth and knowledge of the Shastras, in the fire etc. possessing speech and other good properties, in the Vehicles like the aero-planes etc. and their expert manufacturers.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(शिप्रिन) शिषे प्राप्तुमर्ह प्रशस्ते व्यावहारिकपारमार्थिकसुखे विद्येते यस्य सभापतेस्तत्सम्बुद्धौ । अत्र प्रशंसार्थ इनिः । शिप्रे इति पदनामसु पठितम् | (निघ० ४.१ ) = The source or causer of secular as well as spiritual happiness. ( वाजानाम्) संग्रामानाम् । = Of the battles. (शचीव:) शची बहुविधं कर्म बह्वी प्रजा वा विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ । शचीति प्रजानामस पठितम् ( निघ० ३.९ ) कर्मनामसु च ॥ (निघ० ३.१ ) = O Lord of the subjects and good actions. ( दंसना ) दंसयति भाषयति अनया क्रियया सा । ण्यासश्रधो युच् ( अष्टा० ३.३.१० ) अनेन दंसिभाषार्थ इत्यस्मादयुच् प्रत्ययः ॥ = Vedic Speech. (इन्द्र) सर्वराज्यैश्वर्यधारक = Possessor of all wealth. ( गोषु) सत्यभाषणशास्त्र शिक्षासहितेषु वागादीन्द्रियेषु । = In the tongue and other senses full of truth and the knowledge of the Shastras. गौरिति वाङ्नाम पठितम् ( निघ० १.११) | = Speech. (अश्वेषु) वेगादिगुणवत्सु अग्न्यादिषु । = In the fire etc. possessing speed and good properties. ( शुभ्रषु ) शोभनेषु विमानादियानेषु तत्साधकतमेषु वा । = In the Vehicles like the aero planes etc. and their expert manufacturers.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should pray to God in the following manner O God, as Thou art the Kind Sovereign of the world and Dispenser of justice, in the same manner, make us good rulers of the land, truthful and wise accomplishers the Vedic knowledge, arts, crafts and industries.
Translator's Notes
शिप्रे इति पदनामसु ( निघ० ४.१ ) पदी - गतौ गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च । Here the third meaning प्राप्ति attaining or (causing has been taken by Rishi Dayananda. Rishi Dayananda as वाजानाम् has been translated by संग्रामानां मध्ये. Though in the Nighantu 2.9 it is stated वाज इति बलनाम ( निघ० २.९ ) Force. So battle meant here as it is exhibits force.
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