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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स॒सन्तु॒ त्या अरा॑तयो॒ बोध॑न्तु शूर रा॒तयः॑। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒सन्तु॑ । त्याः । अरा॑तयः । बोध॑न्तु । शू॒र॒ । रा॒तयः॑ । आ । तु । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । शं॒स॒य॒ । गोषु॑ । अश्वे॑षु । शु॒भ्रिषु॑ । स॒हस्रे॑षु । तु॒वी॒ऽम॒घ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ससन्तु त्या अरातयो बोधन्तु शूर रातयः। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ससन्तु। त्याः। अरातयः। बोधन्तु। शूर। रातयः। आ। तु। नः। इन्द्र। शंसय। गोषु। अश्वेषु। शुभ्रिषु। सहस्रेषु। तुवीऽमघ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 29; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैः कीदृशान् वीरान् सङ्गृह्य शत्रवो निवारणीया इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे तुवीमघ शूर सेनापते ! तवारातयः ससन्तु ये रातयश्च ते सर्वे बोधन्तु तु पुनः हे इन्द्र वीरपुरुष ! त्वं सहस्रेषु शुभ्रिषु गोष्वश्वेषु नोऽस्मानाशंसय॥४॥

    पदार्थः

    (ससन्तु) निद्रां प्राप्नुवन्तु (त्याः) वक्ष्यमाणाः (अरातयः) अविद्यमानारातिर्दानं येषां शत्रूणां ते (बोधन्तु) जानन्तु (शूर) शृणाति हिनस्ति शत्रुबलान्याक्रमति। अत्र ‘शॄ हिंसायाम्’ इत्यस्माद् बाहुलकाड्डूरन्प्रत्ययः। (रातयः) दातारः (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। ऋचि तुनु० इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (इन्द्र) उत्कृष्टैश्वर्य्यसभाध्यक्ष सेनापते (शंसय) शत्रूणां विजयेन प्रशंसायुक्तान् कुरु (गोषु) सूर्य्यादिषु (अश्वेषु) (शुभ्रिषु) (सहस्रेषु) उक्तार्थेषु (तुविमघ) अस्यार्थसाधुत्वे पूर्ववत्॥४॥

    भावार्थः

    अस्माभिः स्वसेनासु शूरा मनुष्या रक्षित्वा हर्षणीया येषां भयाद् दुष्टाः शत्रवः शयीरन् कदाचिन्मा जाग्रतु, येन वयं निष्कण्टकं चक्रवर्त्तिराज्यं नित्यं सेवेमहीति॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्यों को कैसे वीरों को ग्रहण करके शत्रु-निवारण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (तुविमघ) विद्या सुवर्ण सेना आदि धनयुक्त (शूर) शत्रुओं के बल को नष्ट करनेवाले सेनापति ! आप के (अरातयः) जो दान आदि धर्म से रहित शत्रुजन हैं, वे (ससन्तु) सो जावें और जो (रातयः) दान आदि धर्म के कर्त्ता हैं (त्याः) वे (बोधन्तु) जाग्रत् होकर शत्रु और मित्रों को जानें (तु) फिर हे (इन्द्र) अत्युत्तम ऐश्वर्ययुक्त सभाध्यक्ष सेनापते वीरपुरुष ! तू (सहस्रेषु) हजारह (शुभ्रिषु) अच्छे-अच्छे गुणवाले (गोषु) गौ वा (अश्वेषु) घोड़े हाथी सुवर्ण आदि धनों में (नः) हम लोगों को (आशंसय) शत्रुओं के विजय से प्रशंसावाले करो॥४॥

    भावार्थ

    हम लोगों को अपनी सेना में शूर ही मनुष्य रखकर आनन्दित करने चाहिये, जिससे भय के मारे दुष्ट और शत्रुजन जैसे निद्रा में शान्त होते हैं, वैसे सर्वदा हों, जिससे हम लोग निष्कण्टक अर्थात् बेखटके चक्रवर्त्ति राज्य का सेवन नित्य करें॥४॥

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    विषय

    मनुष्यों को कैसे वीरों को ग्रहण करके शत्रु-निवारण करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे तुवीमघ शूर (सेनापते) ! तव अरातयः ससन्तु ये अरातयः च ते सर्वे बोधन्तु तु पुनः हे इन्द्र वीरपुरुष! त्वं सहस्रेषु शुभ्रिषु गोषु अश्वेषु नःअस्मान् आशंसय॥४॥ 

    पदार्थ

    हे (तुविमघ) बहुविधं मघं पूज्यं विद्याधनं यस्य तत्सम्बुद्धौ=अनेक प्रकार के प्रशंसनीय विद्याधन हैं, जिसमें,  (सेनापते)=[ऐसे] सेनापते!  (तव)=आपके, (अरातयः) अविद्यमानारातिर्दानं येषां शत्रूणां ते=जो दान आदि धर्म से रहित शत्रुजन हैं, वे (ससन्तु) निद्रां प्राप्नुवन्तु=सो जावें, और (ये)=जो, (अरातयः) अविद्यमानारातिर्दानं येषां शत्रूणां ते=जो दान आदि धर्म से रहित शत्रुजन हैं, वे (च)=भी, (ते)=आपको, (सर्वे)=समस्त, (बोधन्तु) जानन्तु=जानें, (तु) पुनरर्थे=और फिर, हे (इन्द्र) उत्कृष्टैश्वर्य्यसभाध्यक्ष सेनापते=उत्कृष्ट ऐश्वर्ययुक्त सभाध्यक्ष सेनापते, (वीरपुरुष)= वीरपुरुष! (त्वम्)=तू, (सहस्रेषु) अनेकेषु=अनेकों में, (शुभ्रिषु) शुभ्राः प्रशस्ता गुणा विद्यन्ते येषु तेषु=शुभ्र प्रशंसनीय गुणवाले, (गोषु) पृथिव्यादिषु=पृथिवी आदि पदार्थ वा, (अश्वेषु) व्याप्तिशीलेष्वग्न्यादिषु=वस्तु-वस्तु में रहनेवाले अग्नि आदि पदार्थों में, (नः) अस्मान्=हम लोगों को, (आ) समन्तात्=अच्छी तरह से, (शंसय) शत्रूणां विजयेन प्रशंसायुक्तान् कुरु=शत्रुओं पर विजय से प्रशंसावाले करो॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    हमारे द्वारा अपनी सेना में शूर मनुष्यों की रक्षा करके आनन्दित होना चाहिये, जिसके भय से दुष्ट शत्रुओं को निद्रा में सुला दिया जाये जिससे वे कभी न जागें। जिससे हम लोग नित्य निष्कण्टक चक्रवर्त्ति राज्य का सेवन करें॥४॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- चक्रवर्त्ति राज्य ऋग्वेद के मन्त्र संख्या (०१.०४.०७) में स्पष्ट किया गया है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (तुविमघ) अनेक प्रकार के प्रशंसनीय विद्याधन हैं, जिसमें,  (सेनापते)=[ऐसे] सेनापते!  (तव)=आपके, (अरातयः)  जो दान आदि धर्म से रहित शत्रुजन हैं, वे (ससन्तु) निद्रां प्राप्नुवन्तु=सो जावें, और (ये)=जो, (अरातयः) अविद्यमानारातिर्दानं येषां शत्रूणां ते=जो दान आदि धर्म से रहित शत्रुजन हैं, वे (च)=भी, (ते)=आपको, (सर्वे)=समस्त, (बोधन्तु) जानन्तु=जानें, (तु) पुनरर्थे=और फिर, हे (इन्द्र) उत्कृष्टैश्वर्य्यसभाध्यक्ष सेनापते=उत्कृष्ट ऐश्वर्ययुक्त सभाध्यक्ष सेनापते, (वीरपुरुष)=वीरपुरुष! (त्वम्)=तू, (सहस्रेषु) अनेकेषु=अनेकों में, (शुभ्रिषु) शुभ्राः प्रशस्ता गुणा विद्यन्ते येषु तेषु=शुभ्र प्रशंसनीय गुणवाले, (गोषु) पृथिव्यादिषु=पृथिवी आदि पदार्थ वा, (अश्वेषु) व्याप्तिशीलेष्वग्न्यादिषु=वस्तु-वस्तु में रहनेवाले अग्नि आदि पदार्थों में, (नः) अस्मान्=हम लोगों को, (आ) समन्तात्=अच्छी तरह से, (शंसय) शत्रूणां विजयेन प्रशंसायुक्तान् कुरु=शत्रुओं पर विजय से प्रशंसावाले करो॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (ससन्तु) निद्रां प्राप्नुवन्तु (त्याः) वक्ष्यमाणाः (अरातयः) अविद्यमानारातिर्दानं येषां शत्रूणां ते (बोधन्तु) जानन्तु (शूर) शृणाति हिनस्ति शत्रुबलान्याक्रमति। अत्र 'शॄ हिंसायाम्' इत्यस्माद् बाहुलकाड्डूरन्प्रत्ययः। (रातयः) दातारः (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। ऋचि तुनु० इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (इन्द्र) उत्कृष्टैश्वर्य्यसभाध्यक्ष सेनापते (शंसय) शत्रूणां विजयेन प्रशंसायुक्तान् कुरु (गोषु) सूर्य्यादिषु (अश्वेषु) (शुभ्रिषु) (सहस्रेषु) उक्तार्थेषु (तुविमघ) अस्यार्थसाधुत्वे पूर्ववत्॥४॥
    विषयः- मनुष्यैः कीदृशान् वीरान् सङ्गृह्य शत्रवो निवारणीया इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे तुवीमघ शूर सेनापते ! तवारातयः ससन्तु ये रातयश्च ते सर्वे बोधन्तु तु पुनः हे इन्द्र वीरपुरुष ! त्वं सहस्रेषु शुभ्रिषु गोष्वश्वेषु नोऽस्मानाशंसय॥४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अस्माभिः स्वसेनासु शूरा मनुष्या रक्षित्वा हर्षणीया येषां भयाद् दुष्टाः शत्रवः शयीरन् कदाचिन्मा जाग्रतु, येन वयं निष्कण्टकं चक्रवर्त्तिराज्यं नित्यं सेवेमहीति॥४॥
     

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    विषय

    अदान का त्याग , दान का स्वीकार

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) - सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! आपकी कृपा से (त्या) - वे (अरातयः) - दान न देने की वृत्तियाँ (ससन्तु) - हमारे जीवनों में से समाप्त हो जाएँ और (शूर) - हे सब शत्रुओं का हिंसन करनेवाले प्रभो ! (रातयः) - ज्ञानवृत्तियाँ (बोधन्तु) - जाग उठें , अर्थात् हम न देने की वृत्ति को समाप्त करके देने की वृत्ति का अपने में पोषण करें । यह दानवृत्ति ही सब बुराइयों का दान - [दाप् लवणे] खण्डन करती है और यही वृत्ति जीवन का दान - [दैप् शोधने] शोधन करती है । 

    २. हे प्रभो ! आप इस दानवृत्ति से (नः) - हमें (शुभ्रिषु) - शुद्ध व (सहस्त्रेषु) - आनन्दयुक्त (गोषु) - ज्ञानेन्द्रियों व (अश्वेषु) - कर्मेन्द्रियों में (आशंसय) - सर्वतः प्रशंसनीय बना दीजिए । (तुविमघ) - हे प्रभो ! आप महान् ऐश्वर्यवाले हैं , जीवन को शुद्ध बनाकर मैं भी आपका ही अंश - छोटा रूप बन जाऊँगा । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम अदानवृत्ति से दूर रहें और दान की भावना ही हमारे जीवन में सदा जाग्रत् रहे । 

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (त्याः) वे (अरातयः) दानशील शत्रुगण, (ससन्तु) अचेत होकर सोवें। हे (शूर) शूरवीर! (रातयः) दानशील प्रजाएं (बोधन्तु) ज्ञानवान् जागृत, सावधान होकर रहें। (आतू न० इत्यादि) पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिर्ऋषिः । इन्द्रो देवता । पङ्क्तिश्छन्दः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आम्ही आपल्या सेनेत शूर माणसेच बाळगली पाहिजेत व त्यांना आनंदी ठेवले पाहिजे. ज्यामुळे भयाने दुष्ट व शत्रूलोक जसे निद्रेत शांत असतात तसेच जागृतावस्थेतही असावेत. त्यासाठी आम्हीही सदैव निष्कंटक चक्रवर्ती राज्याचे सेवन करावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord of glory, heroic strength and courage, let adversities go to sleep and breathe out, let good fortunes awake and prosper, and let us advance and establish in an admirable state of thousand-fold wealth and generosity, cows and horses.

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    Subject of the mantra

    How men should accept the heroes and stave off enemies, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (tuvimagha)=there are many types of praiseworthy treasure of knowledge, in which, (senāpate)=Commandant, [aise]=such, senāpate! (tava)=your, (arātayaḥ)=those enemies who are devoid of charity etc., (sasantu)=sleep and, (ye)=those, (arātayaḥ)=those enemies who are devoid of charity etc., (ca)=also, (te)=to you, (sarve)=all, (bodhantu)=must know, (tu)=and then, He=O! (indra)=excellent majesty chairman general, (vīrapuruṣa)=brave man (tvam)=you, (sahasreṣu)=in many, (śubhriṣu)=shining and admirable, (goṣu)=earth etc. substances and, (aśveṣu)=present in every matter fire etc. objects, (naḥ)=to us, (ā)=in a good way, (śaṃsaya)=be praised by victory over enemies.

    English Translation (K.K.V.)

    O many types of praiseworthy! There are many types of praiseworthy treasures of knowledge, in which are such commanders! May your enemies who are devoid of charity etc. religion go to sleep and those enemies who are devoid of charity etc. righteousness may also know you all. And then, O excellent glorious leader of the assembly, the brave man! You make us praiseworthy by victory over our enemies in many, in the earth etc. substances having good praiseworthy qualities and the fire etc. present in objects.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    We should rejoice by protecting the brave men in our army, fearing which wicked enemies should be put to sleep so that they will never wake up. So that we may regularly enjoy the state of free from trouble Chakravarti kingdom.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    The Chakravarti kingdom has been explained in the Rigveda's mantra number (01.04.07).

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What kind of men should be gathered in order to destroy enemies is taught in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra, (President of Assembly or commander in-chief possessing noble wealth of wisdom and strength etc.) may those who are our miserly enemies slumber and O hero, those who are righteous people of charitable disposition and thus givers of happiness, be awake. Make us noble and virtuous in every way.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अरातयः) अविद्यमाना रातिनं येषां शत्रूणां ते ।= Miserly enemies. ( रातयः) दातार:= Givers of wealth in charity or givers of happiness. रा-दाने । (इन्द्र) उत्कृष्टैश्वर्य सभाध्यक्ष सेनापते । = Prosperous President or commander-in-chief of the armies. ( शूर) शृणाति हिनस्ति शत्रुबलान्याक्रमति । अत्र शृ हिंसायाम् इत्यस्माद् बाहुलकाङ्करन् प्रत्ययः । = Hero.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    We should always engage brave persons in our armies and they should always be kept satisfied and pleased, so that unrighteous enemies may sleep out of dread. Let them never be alert or awake, so that we may enjoy good and vast Government without any obstruction.

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