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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 29/ मन्त्र 5
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    समि॑न्द्र गर्द॒भं मृ॑ण नु॒वन्तं॑ पा॒पया॑मु॒या। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । इ॒न्द्र॒ । ग॒र्द॒भम् । मृ॒ण॒ । नु॒वन्त॑म् । पा॒पया॑ । अ॒मु॒या । आ । तु । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । शं॒स॒य॒ । गोषु॑ । अश्वे॑षु । शु॒भ्रिषु॑ । स॒हस्रे॑षु । तु॒वी॒ऽम॒घ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिन्द्र गर्दभं मृण नुवन्तं पापयामुया। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। इन्द्र। गर्दभम्। मृण। नुवन्तम्। पापया। अमुया। आ। तु। नः। इन्द्र। शंसय। गोषु। अश्वेषु। शुभ्रिषु। सहस्रेषु। तुवीऽमघ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 29; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स वीरः कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! त्वं गर्दभं तत् स्वभावमिवामुया पापया मिथ्याभाषणान्वितया भाषयाऽस्मान्नुवन्तं कपटेन स्तुवन्तं शत्रुं सम्मृण। हे तुविमघेन्द्र सभाध्यक्ष न्यायाधीश ! त्वं स्वकीयेषु सहस्रेषु शुभ्रिषु गोष्वश्वेषु नोस्मानाशंसय प्राप्तन्यायान् कुरु॥५॥

    पदार्थः

    (सम्) सम्यगर्थे (इन्द्र) सेनाध्यक्ष (गर्दभम्) गर्दभस्य स्वभावयुक्तमिव (मृण) हिंस। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (नुवन्तम्) स्तुवन्तम् (पापया) अधर्मरूपया (अमुया) प्रत्यक्षतया वाचा। (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। पूर्ववद्दीर्घः। (नः) अस्मान् धर्मकारिणः (इन्द्र) न्यायाधीश (शंसय) सत्याननपराधान् संपादय (गोषु) स्वकीयेषु पृथिव्यादिपदार्थेषु (अश्वेषु) हस्त्यश्वादिषु पशुषु (शुभ्रिषु) शुद्धभावेन धर्मव्यवहारेण गृहीतेषु (सहस्रेषु) बहुषु (तुविमघ) तुवि बहुविधं विद्याधर्मधनं यस्य तत्सम्बुद्धौ। अत्र अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यः सभाध्यक्षो न्यायासने स्थित्वा यथा गर्दभतुल्यस्वभावं मूर्खं व्यभिचारिणं पुरुषं कुत्सितं शब्दमुच्चरन्तं तथाऽन्यायमिथ्याभाषणरूपेण साक्ष्येण तिरस्कुर्वन्तं यथायोग्यं दण्डयेत्। ये च सत्यवादिनो धार्मिकास्तेषां सत्कारं च कुर्यात्। यैरन्यायेन परपदार्था गृह्यन्ते तान् दण्डयित्वा ये यस्य पदार्थास्तान् तेभ्यो दापयेत्। एषां सनातनं न्यायाधीशानां धर्मं सदैव समाश्रयेत् तं वयं सततं सत्कुर्याम॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह वीर कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सभाध्यक्ष ! तू (गर्दभम्) गदहे के समान (अमुया) हमारे पीछे (पापया) पापरूप मिथ्याभाषण से युक्त गवाही और भाषण आदि कपट से हम लोगों की (नुवन्तम्) स्तुति करते हुए शत्रु को (सम्मृण) अच्छे प्रकार दण्ड दे (तु) फिर (तुविमघ) हे बहुत से विद्या वा धर्मरूपी धनवाले (इन्द्र) न्यायाधीश तू (सहस्रेषु) हजारह (शुभ्रिषु) शुद्धभाव वा धर्मयुक्त व्यवहारों से ग्रहण किये हुए (गोषु) पृथिवी आदि पदार्थ वा (अश्वेषु) हाथी घोड़ा आदि पशुओं के निमित्त (नः) हम लोगों को (आशंसय) सच्चे व्यवहार वर्तनेवाले अपराधरहित कीजिए॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सभास्वामी न्याय से अपने सिंहासन पर बैठकर जैसे गदहा रूखे और खोटे शब्द के उच्चारण से औरों की निन्दा करते हुए जन को दण्ड दे और जो सत्यवादी धार्मिक जन का सत्कार करे जो अन्याय के साथ औरों के पदार्थ को लेते हैं, उनको दण्ड दे के जिसका जो पदार्थ हो, वह उसको दिला देवे, इस प्रकार सनातन न्याय करनेवालों के धर्म में प्रवृत्त पुरुष का सत्कार हम लोग निरन्तर करें॥५॥

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    विषय

    फिर वह वीर कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे इन्द्र ! त्वं गर्दभं तत् स्वभावम् इव अमुया पापया मिथ्याभाषणान्वितया भाषया अस्मान् नुवन्तं कपटेन स्तुवन्तं शत्रुं सं मृण। हे तुविमघ इन्द्र सभाध्यक्ष न्यायाधीश! त्वं स्वकीयेषु सहस्रेषु शुभ्रिषु गोषु अश्वेषु नः अस्मान् आशंसय प्राप्तन्यायान् कुरु॥५॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सेनाध्यक्ष! (त्वम्)=तू, (गर्दभम्) गर्दभस्य स्वभावयुक्तमिव=गदहे के स्वभाव के समान, (तत्)=उस, (स्वभावम्)=स्वभाव को, (इव)=जैसे, (अमुया) प्रत्यक्षतया वाचा= प्रत्यक्षरूप से कहे गए,  (पापया) अधर्मरूपया=अधर्म रूप पाप और (मिथ्याभाषणान्वितया)=मिथ्याभाषण से,  (नुवन्तम्) स्तुवन्तम्=स्तुति करते हुए,  (सम्) सम्यगर्थे=अच्छे प्रकार से, (मृण) हिंस= दण्ड दे, हे  (तुविमघ) तुवि बहुविधं विद्याधर्मधनं यस्य तत्सम्बुद्धौ=बहुत से विद्या वा धर्मरूपी धनवाले (इन्द्र) सेनाध्यक्ष=सेनाध्यक्ष, (सभाध्यक्ष)=सभाध्यक्ष और (न्यायाधीश)=न्यायाधीश! (त्वम्)=तुम, (स्वकीयेषु)=अपने, (सहस्रेषु) बहुषु=बहुत, (शुभ्रिषु) शुद्धभावेन धर्मव्यवहारेण गृहीतेषु=शुद्धभाव वा धर्मयुक्त व्यवहारों से ग्रहण किये हुए, (गोषु) स्वकीयेषु पृथिव्यादिपदार्थेषु=अपने पृथिवी आदि पदार्थौं में, (अश्वेषु) हस्त्यश्वादिषु पशुषु=हाथी घोड़ा आदि पशुओं के निमित्त, (नः) अस्मान्=हम लोगों को, (आ) समन्तात्=अच्छी तरह से, (शंसय) सत्याननपराधान् संपादय=सच्चे व्यवहार में वर्तनेवाले अपराधरहित बनाइये॥५॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सभास्वामी न्याय के अपने आसन पर बैठकर गदहे के स्वभाव के समान मूर्ख व्यभिचारी को गाली के शब्दों का उच्चारण करता है और अन्याय और मिथ्या भाषण रूपी साक्ष्यों से तिरस्कार करता हुआ  यथायोग्य दण्ड देता है। और जो सत्यवादी धार्मिक हैं,  उनका सत्कार भी करे। जिसके द्वारा अन्याय के साथ अन्य लोगों के पदार्थ ले लिये जाते हैं, उनको दण्ड दे के जिसका जो पदार्थ हो, वह उसको दिला देवे। इस प्रकार के सनातन न्याय करनेवालों का जो धर्म का सदा आश्रय लेते हैं,  उनका हम लोग निरन्तर सत्कार करें॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (इन्द्र) सेनाध्यक्ष! (त्वम्) तू (गर्दभम्) गदहे के स्वभाव  के समान (तत्) उस (स्वभावम्) स्वभाव को (इव) जैसे (अमुया) प्रत्यक्षरूप से कहे गए (पापया) अधर्म रूप पाप और (मिथ्याभाषणान्वितया) मिथ्याभाषण से (नुवन्तम्) स्तुति करते हुए, (सम्) अच्छे प्रकार से (मृण) दण्ड दे।  हे  (तुविमघ) बहुत से विद्या वा धर्मरूपी धनवाले (इन्द्र) सेनाध्यक्ष, (सभाध्यक्ष) सभाध्यक्ष और  (न्यायाधीश) न्यायाधीश! (त्वम्) तुम अपने (सहस्रेषु) बहुत (शुभ्रिषु) शुद्धभाव वा धर्मयुक्त व्यवहारों से ग्रहण किये हुए (गोषु) अपने पृथिवी आदि पदार्थौं में (अश्वेषु) हाथी घोड़ा आदि पशुओं के निमित्त (नः) हम लोगों को (आ) अच्छी तरह से (शंसय) सच्चे व्यवहार में वर्तनेवाले और अपराधरहित बनाइये॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सम्) सम्यगर्थे (इन्द्र) सेनाध्यक्ष (गर्दभम्) गर्दभस्य स्वभावयुक्तमिव (मृण) हिंस। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (नुवन्तम्) स्तुवन्तम् (पापया) अधर्मरूपया (अमुया) प्रत्यक्षतया वाचा। (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। पूर्ववद्दीर्घः। (नः) अस्मान् धर्मकारिणः (इन्द्र) न्यायाधीश (शंसय) सत्याननपराधान् संपादय (गोषु) स्वकीयेषु पृथिव्यादिपदार्थेषु (अश्वेषु) हस्त्यश्वादिषु पशुषु (शुभ्रिषु) शुद्धभावेन धर्मव्यवहारेण गृहीतेषु (सहस्रेषु) बहुषु (तुविमघ) तुवि बहुविधं विद्याधर्मधनं यस्य तत्सम्बुद्धौ। अत्र अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः॥५॥
    विषयः- पुनः स वीरः कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे इन्द्र ! त्वं गर्दभं तत् स्वभावमिवामुया पापया मिथ्याभाषणान्वितया भाषयाऽस्मान्नुवन्तं कपटेन स्तुवन्तं शत्रुं सम्मृण। हे तुविमघेन्द्र सभाध्यक्ष न्यायाधीश ! त्वं स्वकीयेषु सहस्रेषु शुभ्रिषु गोष्वश्वेषु नोस्मानाशंसय प्राप्तन्यायान् कुरु॥५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यः सभाध्यक्षो न्यायासने स्थित्वा यथा गर्दभतुल्यस्वभावं मूर्खं व्यभिचारिणं पुरुषं कुत्सितं शब्दमुच्चरन्तं तथाऽन्यायमिथ्याभाषणरूपेण साक्ष्येण तिरस्कुर्वन्तं यथायोग्यं दण्डयेत्। ये च सत्यवादिनो धार्मिकास्तेषां सत्कारं च कुर्यात्। यैरन्यायेन परपदार्था गृह्यन्ते तान् दण्डयित्वा ये यस्य पदार्थास्तान् तेभ्यो दापयेत्। एषां सनातनं न्यायाधीशानां धर्मं सदैव समाश्रयेत् तं वयं सततं सत्कुर्याम॥५॥

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    विषय

    गर्दभ - हिंसन

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) - सब इन्द्रियों के ऐश्वर्य को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! (अमुया पापया) - उस पापयुक्त सदा अशुभ शब्दों को बोलनेवाली वाणी से (नुवन्तम्) - शब्द करते हुए , बकवास करते हुए( गर्दभम्) - इस गधे को - नासमझ को (सं - मृण) - पूर्णतया नष्ट कर दो [मृण हिंसायाम्] , अर्थात् प्रभु - कृपा से हम कभी भी अशुभ शब्दों को बोलनेवाले न हों , गधे के समान न बनें । समझदार बनकर सदा शुभ शब्द ही बोलें । औरों के अवगुणों को प्रकट करते हुए हम सचमुच नासमझी का काम कर रहे होते हैं । व्यर्थ के वैर - विरोध को तो इससे बढ़ाते ही हैं । यह पाप - कथा हमारे अपने अकल्याण का कारण हो जाती है - 'कथापि खलु पापानामलमश्रेयसे यतः' । 

    २. हे (इन्द्र) - परमैश्वर्यशाली प्रभो ! आप (नः) - हमें (शुभ्रिषु) - शुद्ध व (सहस्त्रेषु) - सदा प्रसन्न (गोषु अश्वेषु) - ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों में (आशंसय) - प्रशंसनीय जीवनवाला बना दीजिए । (तुवीमघ) - आप महान् ऐश्वर्यवाले हैं , मैं भी आपके समान ही 'तुवीमघ' बनने का प्रयत्न करू । उसका मार्ग यही है कि मैं औरों की निन्दा न करता फिरूं , अपने जीवन को उत्कृष्ट बनाऊँ । 

     

    भावार्थ

    भावार्थ - यह वाणी पापमय है जो औरों की अपकीर्ति ही प्रकट करती रहती है । हम ऐसा करनेवाले गधे न बनें । 

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) राजन्! प्रभो! सभाध्यक्ष! तू (अमुया) अमुक २ नाना प्रकार की (पापया) पापयुक्त वाणी से (नुवन्तम्) निन्दा करते हुए (गर्दभं) कर्णकटु बोलने वाले, निन्दक, गधे के समान नीच पुरुप को (सं मृण) अच्छी प्रकार दण्डित कर। (गोषु अश्वेषु सहस्त्रेषु) गौ आदि पशु और सहस्रों सुखप्रद ऐश्वर्यों के विषय में हमें (आ शंसय) उत्तम, निर्दोष प्रसिद्ध कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिर्ऋषिः । इन्द्रो देवता । पङ्क्तिश्छन्दः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सभेच्या अध्यक्षाने (राजाने) न्यायपूर्वक गाढवाप्रमाणे मूर्ख, व्यभिचारी पुरुषांना, खोटे बोलणाऱ्यांना व इतरांची निंदा करणाऱ्या लोकांना दंड द्यावा व सत्यवादी धार्मिक लोकांचा सत्कार करावा. जे अन्यायाने इतरांचे पदार्थ घेतात त्यांना दंड द्यावा. जो ज्याचा पदार्थ असेल त्याला तो द्यावा. याप्रकारे सनातन न्याय करणाऱ्या धर्मात प्रवृत्त असणाऱ्या पुरुषाचा आम्ही सदैव सत्कार करावा ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, glorious lord of justice and power, upholder of truth and Dharma, discriminate and throw out that brayer shouting his praises with that vile intention of his and help us establish ourselves in a splendid state of thousand-fold purity and truth with wealth of cows and horses.

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    Subject of the mantra

    Then, how that hero should be? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra)=commandant, (tvam)=you,(gardabham)=like the nature of a donkey, (tat)=that,(svabhāvam)=disposition, (iva)=as, (amuyā)=directly stated, (pāpayā)=unrighteous sin, [aura]=and, (mithyābhāṣaṇānvitayā)=misrepresentation, (nuvantam)=praising, (sam)=properly, (mṛṇa)=give punishment, (he)=O! (tuvimagha)= rich in the form of enormous knowledge or righteousness, (indra)=commandant, (sabhādhyakṣa)=Army Chief, [aura]=and, (nyāyādhīśa)=judge, (tvam)=you, (sahasreṣu)=umpteen, (śubhriṣu)=adopted by pure or righteous activities (goṣu=in own earth etc. substances, (aśveṣu)=for the sake of animals like elephant, horse etc., (naḥ)=to us, (ā)=well, (śaṃsaya)=be honest and free from guilt.

    English Translation (K.K.V.)

    O commandant! You shall punish that of disposition like the nature of a donkey, glorifying it with sin and misrepresentation in the form of iniquity that has been explicitly stated. O chief of the army, chief of staff and judge, who has riches in the form of enormous knowledge and righteousness! You have received from your very pure nature or righteous activities, in your earth etc., make us people well behaved and guiltless for the sake of animals like elephant, horse et cetera.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is latent vocal simile as a figurative in this mantra. The chief councilor who sits on his seat of justice, utters abusive words to a foolish adulterer like a donkey's nature and, despising the evidence of injustice and false speech, gives the appropriate punishment. And those who are truthful righteous, they should also be respected. By whom the goods of other people are taken unjustly, punish those who have what they have, let them get it. Let us always give hospitality to such eternal justice-doers who always take shelter of dharma (righteousness).

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should that hero be is taught in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O commander-in-chief of the army or judge, destroy this un-righteous person of ass-like nature praising us falsely and deceitfully. O President of the Assembly possessing wisdom and wealth, see to it that we get with justice horses and cattle etc. which are genuinely our own.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्र) सेनाध्यक्ष, न्यायाधीश | = Commander of an army or dispenser of justice. (गर्दभम् ) गर्दभस्य स्वभावयुक्तम् इव । = Man of ass-like nature-stupid. ( शंसय ) सत्यान् अनपराधान् सम्पादय | Make us free from guilt.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The president of the council of ministers who occupies the seat of justice should give due punishment to the person who is of as ass-like nature i.e. stupid and adulterous, speaking in a discordant manner and submitting false and unjust evidence. He should respect truthful and righteous persons. He should punish those who take away others' articles and arrange to give them to their real owners. We should also honor the person who observes the eternal law of these dispensers of justice.

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