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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 29/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    नि ष्वा॑पया मिथू॒दृशा॑ स॒स्तामबु॑ध्यमाने। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । स्वा॒प॒य॒ । मि॒थु॒ऽदृशा॑ । स॒स्ताम् । अबु॑ध्यमाने॒ इति॑ । आ । तु । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । शं॒स॒य॒ । गोषु॑ । अश्वे॑षु । शु॒भ्रिषु॑ । स॒हस्रे॑षु । तु॒वी॒ऽम॒घ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि ष्वापया मिथूदृशा सस्तामबुध्यमाने। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि। स्वापय। मिथुऽदृशा। सस्ताम्। अबुध्यमाने इति। आ। तु। नः। इन्द्र। शंसय। गोषु। अश्वेषु। शुभ्रिषु। सहस्रेषु। तुवीऽमघ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 29; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे तुविमघेन्द्र विद्वन् ! ये मिथूदृशाबुध्यमाने शरीरमनसी आलस्ये वर्त्तमाने सस्तां शयातां पुरुषार्थनाशं प्रापयतस्ते त्वं निष्वापय निवारय पुनः सहस्रेषु शुभ्रिषु गोष्वश्वेषु नोऽस्मानाशंसय॥३॥

    पदार्थः

    (नि) नितरां क्रियायोगे (स्वापय) निवारय। अत्र अन्तर्गतो णिज् अन्येषामपि इति दीर्घश्च (मिथूदृशा) मिथूविषयाशक्तिप्रमादौ हिंसनं च दर्शयतस्तौ। अत्र मिथृमेथृ मेधाहिंसनयोरित्यस्मादौणादिकः कुः प्रत्ययस्तदुपपदाद् दृशेः कर्त्तरि क्विप् सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशोऽन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घश्च। (सस्ताम्) शयाताम् (अबुध्यमाने) बोधनिवारके शरीरमनसी आलस्ये कर्मणि (आ) आदरार्थे (तु) पश्चादर्थे। पूर्ववद्दीर्घः। (नः) अस्मान् (इन्द्र) अविद्यानिद्रादोषनिवारकविद्वन् (शंसय) प्रकृष्टज्ञानवतः कुरु (गोषु) पृथिव्यादिषु (अश्वेषु) व्याप्तिशीलेष्वग्न्यादिषु (शुभ्रिषु) शुभ्राः प्रशस्ता गुणा विद्यन्ते येषु तेषु (सहस्रेषु) अनेकेषु (तुविमघ) तुवि बहुविधं धनमस्ति यस्य तत्सम्बुद्धौ। अन्येषामपि दृश्यत इति पूर्वपदस्य दीर्घः॥३॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः शरीरात्मनोरालस्ये दूरतस्त्यक्त्वा सत्कर्मसु नित्यं प्रयत्नोऽनुसंधेय इति॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह क्या-क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (तुविमघ) अनेक प्रकार के धनयुक्त (इन्द्र) अविद्यारूपी निद्रा और दोषों को दूर करनेवाले विद्वान् ! जो-जो (मिथूदृशा) विषयाशक्ति अर्थात् खोटे काम वा प्रमाद अच्छे कामों के विनाश को दिखानेवाले वा (अबुध्यमाने) बोधनिवारक शरीर और मन (सस्ताम्) शयन और पुरुषार्थ का नाश करते हैं, उनको आप (निष्वापय) अच्छे प्रकार निवारण कर दीजिये (तु) फिर (सहस्रेषु) हजारहों (शुभ्रिषु) प्रशंसनीय गुणवाले (गोषु) पृथिवी आदि पदार्थ वा (अश्वेषु) वस्तु-वस्तु में रहनेवाले अग्नि आदि पदार्थों में (नः) हम लोगों को (आशंसय) अच्छे गुणवाले कीजिये॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को शरीर और आत्मा से आलस्य को दूर छोड़ के उत्तम कर्मों में नित्य प्रयत्न करना चाहिये॥३॥

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    विषय

    फिर वह क्या-क्या करे, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे तुविमघ इन्द्र विद्वन्! ये मिथूदृशौ अबुध्यमाने शरीरमनसी आलस्ये वर्त्तमाने सस्तां शयातां पुरुषार्थनाशं प्रापयतः ते त्वं निष्वापय निवारय पुनः सहस्रेषु शुभ्रिषु गोषु अश्वेषु नःअस्मान् आ शंसय॥३॥

    पदार्थ

    हे (तुविमघ) तुवि बहुविधं धनमस्ति यस्य तत्सम्बुद्धौ= अनेक प्रकार के धनयुक्त, (इन्द्र) अविद्यानिद्रादोषनिवारकविद्वन्=अविद्या, अनिद्रा और दोषों को दूर करनेवाले विद्वान् !  (ये)=जो,  (मिथूदृशा) मिथूविषयाशक्तिप्रमादौ हिंसनं च दर्शयतस्तौ=विषयाशक्ति, प्रमाद और हिंसा को दिखानेवाले दोनों,  (अबुध्यमाने) बोधनिवारके शरीरमनसी आलस्ये कर्मणि=शरीर और मन के आलस्य कर्मों के ज्ञान को दूर करनेवाले,  (वर्त्तमाने)=उपस्थित, (सस्ताम्) शयाताम्=शयन करते हैं, [उनको] (प्रापयतः)=प्राप्त करते हुए, (ते) त्वम्=आप, (नि) नितरां क्रियायोगे=अच्छे प्रकार से, (स्वापय) निवारय=निवारण कर दीजिये, (पुनः)= फिर, (सहस्रेषु) अनेकेषु=अनेकों में,  (शुभ्रिषु) शुभ्राः प्रशस्ता गुणा विद्यन्ते येषु तेषु=प्रशंसनीय गुणवालों में, (गोषु) पृथिव्यादिषु=पृथिवी आदि पदार्थ में,  (अश्वेषु) व्याप्तिशीलेष्वग्न्यादिषु=वस्तु-वस्तु में रहनेवाले अग्नि आदि पदार्थों में, (नः) अस्मान्=हम लोगों को, (आ) समन्तात=अच्छे, (शंसय) प्रकृष्टज्ञानवतः कुरु=प्रकृष्ट ज्ञान वाले कीजिये ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों के द्वारा शरीर आत्मा से आलस्य को दूर छोड़ के उत्तम कर्मों में नित्य प्रयत्न करना चाहिये॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (तुविमघ)  अनेक प्रकार के धन से युक्त  (इन्द्र) अविद्या, अनिद्रा और दोषों को दूर करनेवाले विद्वान् ! (ये) जो  (मिथूदृशा)  विषयाशक्ति, प्रमाद और हिंसा को दिखानेवाले दोनों,   (अबुध्यमाने) शरीर और मन के आलस्य कर्मों के ज्ञान को दूर करनेवाले,   (वर्त्तमाने) उपस्थित  होकर (सस्ताम्) शयन करते हैं। [उनको] (प्रापयतः) प्राप्त करते हुए (ते) आप  (नि) अच्छे प्रकार से (स्वापय)  निवारण कर दीजिये, (पुनः) और फिर (सहस्रेषु)  अनेकों में  (शुभ्रिषु) प्रशंसनीय गुणवाले (गोषु)  पृथिवी आदि पदार्थ या (अश्वेषु)  वस्तु-वस्तु में रहनेवाले अग्नि आदि पदार्थों में (नः)  हम लोगों को (आ) अच्छे प्रकार से (शंसय) प्रकृष्ट ज्ञान वाले कीजिये ॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (नि) नितरां क्रियायोगे (स्वापय) निवारय। अत्र अन्तर्गतो णिज् अन्येषामपि इति दीर्घश्च (मिथूदृशा) मिथूविषयाशक्तिप्रमादौ हिंसनं च दर्शयतस्तौ। अत्र मिथृमेथृ मेधाहिंसनयोरित्यस्मादौणादिकः कुः प्रत्ययस्तदुपपदाद् दृशेः कर्त्तरि क्विप् सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशोऽन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घश्च। (सस्ताम्) शयाताम् (अबुध्यमाने) बोधनिवारके शरीरमनसी आलस्ये कर्मणि (आ) आदरार्थे (तु) पश्चादर्थे। पूर्ववद्दीर्घः। (नः) अस्मान् (इन्द्र) अविद्यानिद्रादोषनिवारकविद्वन् (शंसय) प्रकृष्टज्ञानवतः कुरु (गोषु) पृथिव्यादिषु (अश्वेषु) व्याप्तिशीलेष्वग्न्यादिषु (शुभ्रिषु) शुभ्राः प्रशस्ता गुणा विद्यन्ते येषु तेषु (सहस्रेषु) अनेकेषु (तुविमघ) तुवि बहुविधं धनमस्ति यस्य तत्सम्बुद्धौ। अन्येषामपि दृश्यत इति पूर्वपदस्य दीर्घः॥३॥
    विषयः- पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे तुविमघेन्द्र विद्वन् ! ये मिथूदृशाबुध्यमाने शरीरमनसी आलस्ये वर्त्तमाने सस्तां शयातां पुरुषार्थनाशं प्रापयतस्ते त्वं निष्वापय निवारय पुनः सहस्रेषु शुभ्रिषु गोष्वश्वेषु नोऽस्मानाशंसय॥३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैः शरीरात्मनोरालस्ये दूरतस्त्यक्त्वा सत्कर्मसु नित्यं प्रयत्नोऽनुसंधेय इति॥३॥

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    विषय

    आत्मालोचन व स्वाध्याय

    पदार्थ

    १. उत्तम जीवन के लिए यह आवश्यक है कि हम अपना ही आत्मालोचन करें और अपने जीवनों की कमी को दूर करने का प्रयत्न करें । इसी के लिए स्वाध्याय द्वारा अपने बोध को बढ़ाएँ । घर में पति - पत्नी हैं । वे एक - दूसरे के ही दोषों को देखेंगे तो प्रेम की इतिश्री होकर घर नरक बन जाएगा । स्कूल में अध्यापक व विद्यार्थी ऐसा ही करने लगें तो शिक्षा का वातावरण समाप्त हो जाएगा । राष्ट्र में राजा और प्रजा परस्पर दोष देखने लगें तो राष्ट्र अवनत होकर शत्रुओं से पादाक्रान्त कर लिया जाएगा , अतः मन्त्र में प्रार्थना करते हैं कि (मिथूदृशा) - एक दूसरे को ही देखनेवालों को (निष्वापया) - निश्चित रूप से सुला दीजिए , अर्थात् हम एक - दूसरे को ही देखने में न लगे रहें , अपने ही जीवन का आलोचन करनेवाले बनें । 

    २. (अबुध्यमाने) - जो प्रतिदिन स्वाध्याय के द्वारा अपने बोध को बढ़ाते नहीं वे (सस्ताम्) - [सम् Cease] समाप्त हो जाएँ हम नैत्यिक स्वाध्याय के द्वारा अपने ज्ञान को बढ़ानेवाले हों । 

    ३. प्रभु से कहते हैं कि हे (इन्द्र) - प्रभो ! आत्मालोचन व स्वाध्याय करनेवाले (नः) - हमें आप (शभ्रेषु) - शुद्ध व (सहस्त्रेषु) - प्रसादयुक्त (गोषु) - ज्ञानेन्द्रियों में तथा (अश्वेषु) - कर्मेन्द्रियों में (आशंसय) - प्रशंसायुक्त जीवनवाला बनाइए । (तुवीमघ) - आप तो महान् ऐश्वर्यवाले हैं , हमें भी अपने ही समान ऐश्वर्ययुक्त कीजिए । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम अपना ही आलोचन करें , औरों की आलोचना न करते रहें , हम स्वाध्यायशील बनें । 

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ज़ो स्त्री पुरुष (मिथूदृशा) मिथ्या दृष्टि से युक्त, दुःख से मिले विषय सुख को वास्तविक सुख मानने वाले, और प्रमाद आलस्य करने वाले होकर (अबुध्यमाने) कुछ भी ज्ञान न प्राप्त कर, मूर्ख रहते हुए (सस्ताम्) सदा सोते हैं उनको (निः स्वाप्य) उस कुमार्ग से हटा। और हे (इन्द्र तुवीमव गोषु अश्वेषु सहस्त्रेषु शुभ्रिषु नः आशंसय) इत्यादि पूर्ववत्। अथवा—हे (इन्द्र) राजन् (मिथूदृशा) परस्पर प्रेम से मिथुन होकर, सुसंगत होकर देखने वाले स्त्री पुरुष रात्रि के समय (अबुद्धयमाने सस्ताम्) अचेत होकर सोवें। उन को (निः स्वापय) खूब सोये रहने दे। अर्थात् तेरे उत्तम राज्य शासन में सब निश्चिन्त होकर सोवें। और हमें तू गवादि पशु, अश्वों और ऐश्वर्यों से युक्त कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिर्ऋषिः । इन्द्रो देवता । पङ्क्तिश्छन्दः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी आळस सोडून शरीर व आत्मा याद्वारे सदैव उत्तम कर्म केले पाहिजे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, glorious lord of vitality, vision and will to live, eliminate the phantom of illusion and sloth of body and mind which mislead and depress, and let us awake and rise to a splendid state of a thousand-fold brilliance of knowledge, generous prosperity and fast advancement.

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    Subject of the mantra

    Then, what should he do? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (tuvimagha)=rich in various ways, (indra)=The scholar who removes ignorance, insomnia and defects, (ye)=those, (mithūdṛśā)=both of those depicting attachment towards worldly objects, laziness and violence, (abudhyamāne)=who removes the knowledge of the laziness of the body and the mind, (varttamāne)= by being present, (sastām)=do sleep, [unako]=to them, (prāpayataḥ)=receive, (te)=you, (ni)=properly, (svāpaya)=remove, (punaḥ)=and then, (sahasreṣu)=in many, (śubhriṣu)=of admirable qualities, (goṣu)=earth etc. substances, (yā)=or, (aśveṣu)=present in every substance like fire etc. (naḥ)=to us, (ā)=in a good way, [aura]=and, (śaṃsaya)=make us specifically knowledgeable.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar rich in various ways who removes ignorance, insomnia and defects! Both of those showing attachment towards worldly objects, laziness and violence, who removes the knowledge of the laziness of the body and the mind by going to sleep. By being present, getting them, you get rid of them properly and then make us specifically knowledgeable of things present in every substance like fire et cetera.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Every effort should be made by human beings in good deeds, leaving the laziness away from the body and soul.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What else should he (Indra) do is taught further in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person-remover of ignorance and indolence, turn away the body and mind which show attachment, laziness and violence and which are not alert, as they are impediments to enlightenment. Make us full of good knowledge, good rulers, having good cows, utilizing fire and horses in various ways, O possessor of the wealth of various kinds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( मिथूदृशा ) मिथू विषयासक्तिप्रमादौ हिंसनं च दर्शयतस्तौ । अत्र मिथृ मेथृ-मेधा हिंसनयोः इत्यस्मात् औणादिकः कुः प्रत्ययः । तदुपपदात् दृशेः कर्तरिक्विप् सुपांसुलुक् इत्याकारादेशः अन्येषामपि दृश्यते (अष्टा० ६.३.१३७) इति दीर्घश्च । = Showing attachment, sloth and violence. ( सस्ताम् ) शयाताम् | ( इन्द्र) अविद्यानिद्रादोष निवारकविंद्वन् । = Sleep.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should keep away or remove the laziness of the body and the soul and should always endeavor to do noble deeds.

    Translator's Notes

    सस्ति स्वपितिकर्मा (निघ० ३.१२) इन्द्र:- शत्रूणां दारयिता वा द्रावयिता वा इति निरुक्ते १०;८ । = The destroyer or remover of enemies. Here Rishi Dayananda has taken the internal enemies in the form of ignorance and indolence.

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