ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 40/ मन्त्र 3
प्रैतु॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॒ प्र दे॒व्ये॑तु सू॒नृता॑ । अच्छा॑ वी॒रं नर्यं॑ प॒ङ्क्तिरा॑धसं दे॒वा य॒ज्ञं न॑यन्तु नः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ए॒तु॒ । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ । प्र । दे॒वी । ए॒तु॒ । सू॒नृता॑ । अच्छ॑ । वी॒रम् । नर्य॑म् । प॒ङ्क्तिऽरा॑धसम् । दे॒वाः । य॒ज्ञम् । न॒य॒न्तु॒ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रैतु ब्रह्मणस्पतिः प्र देव्येतु सूनृता । अच्छा वीरं नर्यं पङ्क्तिराधसं देवा यज्ञं नयन्तु नः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । एतु । ब्रह्मणः । पतिः । प्र । देवी । एतु । सूनृता । अच्छ । वीरम् । नर्यम् । पङ्क्तिराधसम् । देवाः । यज्ञम् । नयन्तु । नः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 40; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(प्र) प्रकृष्टार्थे (एतु) प्राप्नोतु (ब्रह्मणः) चतुर्वेदविदः (पतिः) पालयिता (प्र) प्रतीतार्थे (देवी) सर्वशास्त्र बोधेन देदीप्यमाना (एतु) प्राप्नोतु (सूनृता) प्रियसत्याचरणलक्षवाणीयुक्ता (अच्छ) शुद्धार्थे। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः#। (वीरम्) पूर्णशरीरात्मबलप्रदम् (नर्यम्) नरेषु साधुं हितकारिणम् (पंक्तिराधसम्) यः पंक्तीर्धर्मात्मवीरमनुष्यसमूहान् राध्नोति यद्वा पंक्त्यर्थं राधोऽन्नं यस्य तम् (देवाः) विद्वांसः (यज्ञम्) पठनपाठनश्रवणोपदेशाख्यम् (नयंतु) प्रापयन्तु (नः) अस्मान् ॥३॥ #[अ० ६।३।१३६।]
अन्वयः
पुनस्तैः #कथं वर्त्तितव्यमित्याह। #[मिथः। सं०]
पदार्थः
हे विद्वन् ! ब्रह्मणः पतिर्भवान् यं पंक्तिराधसं नर्यमच्छा वीरं सुखप्रापकं यज्ञं प्रैतु हे विदुषि ! सूनृता देवी सती भवत्यप्येतं प्रैतु तं नो देवाः प्रणयन्तु ॥३॥
भावार्थः
सर्वैर्मनुष्यैरिदं कर्त्तव्यमाकांक्षितव्यं च यतो विद्यावृद्धिः स्यादिति ॥३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर ये लोग अन्योऽन्य कैसे वर्तें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे विद्वान् ! (ब्रह्मणः) वेदों का (पतिः) प्रचार करनेवाले आप जिस (पंक्तिराधसम्) धर्मात्मा और वीर पुरुषों को सिद्धकारक (अच्छावीरम्) शुद्ध पूर्ण शरीर आत्मबलयुक्त वीरों की प्राप्ति के हेतु (यज्ञम्) पठन पाठन श्रवण आदि क्रियारूप यज्ञ को (प्रैतु) प्राप्त होते और हे विद्यायुक्त स्त्री ! (सूनृता) उस वेदवाणी की शिक्षा सहित (देवी) सब विद्या सुशीलता से प्रकाशमान होकर आप भी जिस यज्ञ को प्राप्त हो उस यज्ञ को (देवाः) विद्वान् लोग (नः) हम लोगों को (प्रणयंतु) प्राप्त करावें ॥३॥
भावार्थ
सब मनुष्यों को ऐसी इच्छा करनी चाहिये कि जिससे विद्या की वृद्धि होती जाय ॥३॥
विषय
फिर ये लोग अन्योऽन्य कैसे वर्तें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे विद्वन् ! ब्रह्मणः पतिःभवान् यं पंक्तिराधसं नर्यम् अच्छा वीरं सुखप्रापकं यज्ञं प्र एतु हे विदुषि ! सूनृता देवी सती भवति एति अपि एतं प्र एतु तं नः देवाः प्र नयन्तु ॥३॥
पदार्थ
हे (विद्वन्)=विद्वान् (ब्रह्मणः) चतुर्वेदविदः=चारों वेद के ज्ञाता, (पतिः) पालयिता=पालन करनेवाले! (भवान्)=आप, (यम्)=जिस, (पंक्तिराधसम्) यः पंक्तीर्धर्मात्मवीरमनुष्यसमूहान् राध्नोति यद्वा पंक्त्यर्थं राधोऽन्नं यस्य तम्=धर्मात्मा और वीर पुरुषों के समूह को पंक्तिबद्ध करता है, अथवा पंक्ति के लिये जिसमें अन्न की कृपा है, (नर्यम्) नरेषु साधुं हितकारिणम्=मनुष्यों में उत्तम हितकारी, (अच्छा) शुद्धार्थे=शुद्ध, (वीरम्) पूर्णशरीरात्मबलप्रदम्=पूर्ण शरीर और आत्मबल प्रदान कर्ता, (सुखप्रापकम्)= सुख प्राप्त करानेवाला, (यज्ञम्) पठनपाठनश्रवणोपदेशाख्यम्= पठन-पाठन, श्रवण और उपदेश, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (एतु) प्राप्नोतु=प्राप्त करो। हे (विदुषि)=विदुषि! (सूनृता) प्रियसत्याचरणलक्षणवाणीयुक्ता= प्रिय सत्य आचरण के लक्षणों और वाणी से युक्त, (देवी) सर्वशास्त्र बोधेन देदीप्यमाना=समस्त शास्त्रों के ज्ञान से प्रकाशित, (सती)=तपस्विनी, (भवति)=होती है। (एति)=आगमन में, (अपि)=भी, (एतम्)=इसको, (प्र) प्रतीतार्थे=विस्वास से, (एतु) प्राप्नोतु=प्राप्त करो। (तम्)=उसको, (नः) अस्मान्=हमारे, (देवाः) विद्वांसः=विद्वान्, (प्र) प्रतीतार्थे= विस्वास से, (नयंतु) प्रापयन्तु=प्राप्त करते हैं॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
सब मनुष्यों को ऐसी इच्छा करनी चाहिये कि जिससे विद्या की वृद्धि होती जाय ॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (विद्वन्) विद्वान्, (ब्रह्मणः) चारों वेदों के ज्ञाता [और] (पतिः) पालन करनेवाले ! (भवान्) आप (यम्) जिस (पंक्तिराधसम्) धर्मात्मा और वीर पुरुषों के समूह को पंक्तिबद्ध करते हो, अथवा पंक्ति के लिये जिसमें अन्न की कृपा है, (नर्यम्) [ऐसे] मनुष्यों में उत्तम हितकारी, (अच्छा) शुद्ध, (वीरम्) पूर्ण शरीर और आत्मबल प्रदान कर्ता, (सुखप्रापकम्) सुख प्राप्त करानेवाले, (यज्ञम्) पठन-पाठन, श्रवण और उपदेशों को (प्र) प्रकृष्ट रूप से, (एतु) प्राप्त करो। हे (विदुषि) विदुषि ! (सूनृता) प्रिय सत्य आचरण के लक्षणों और वाणी से युक्त, (देवी) समस्त शास्त्रों के ज्ञान से प्रकाशित (सती) तपस्विनी (भवति) होती है। (एति) आगमन में (अपि) भी (एतम्) इसको (प्र) प्रयास से (एतु) प्राप्त करो। (तम्) उसको (नः) हमारे (देवाः) विद्वान् (प्र) स्पष्ट रूप से (नयंतु) प्राप्त करते हैं॥३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (प्र) प्रकृष्टार्थे (एतु) प्राप्नोतु (ब्रह्मणः) चतुर्वेदविदः (पतिः) पालयिता (प्र) प्रतीतार्थे (देवी) सर्वशास्त्र बोधेन देदीप्यमाना (एतु) प्राप्नोतु (सूनृता) प्रियसत्याचरणलक्षवाणीयुक्ता (अच्छ) शुद्धार्थे। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः#। (वीरम्) पूर्णशरीरात्मबलप्रदम् (नर्यम्) नरेषु साधुं हितकारिणम् (पंक्तिराधसम्) यः पंक्तीर्धर्मात्मवीरमनुष्यसमूहान् राध्नोति यद्वा पंक्त्यर्थं राधोऽन्नं यस्य तम् (देवाः) विद्वांसः (यज्ञम्) पठनपाठनश्रवणोपदेशाख्यम् (नयंतु) प्रापयन्तु (नः) अस्मान् ॥३॥ #[अ० ६।३।१३६।]
विषयः- पुनस्तैः कथं मिथः वर्त्तितव्यमित्याह।
अन्वयः- हे विद्वन् ! ब्रह्मणः पतिर्भवान् यं पंक्तिराधसं नर्यमच्छा वीरं सुखप्रापकं यज्ञं प्रैतु हे विदुषि ! सूनृता देवी सती भवत्यप्येतं प्रैतु तं नो देवाः प्रणयन्तु ॥३॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- सर्वैर्मनुष्यैरिदं कर्त्तव्यमाकांक्षितव्यं च यतो विद्यावृद्धिः स्यादिति ॥३॥
विषय
सूनृता वाणी व नर्ययज्ञ
पदार्थ
१. हमें (ब्रह्मणस्पतिः) - ज्ञान का पति आचार्य (प्रैतु) - प्रकर्षेण प्राप्त हो । 'प्रकर्षेण प्राप्ति' यही है कि हम उसके अत्यन्त प्रिय हों ।
२. (देवी) - दिव्य गुणों को जन्म देनेवाली (सूनृता) - [सु+ऊन+ऋत] दुःखों का परिहाण करनेवाली शुभ और सत्यवाणी (प्र एतु) - हमें प्रकर्षण प्राप्त हो, अर्थात् हमें यही वाणी रुचिकर हो, अनृत की ओर झुकाव ही न हो ।
३. (देवाः) - विद्वान् आचार्य (नः) - हमारे (वीरम्) - शक्तिसम्पन्न पुत्र को (नर्यम्) - लोकहितकारी (पंक्तिराधसम्) - 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शद्र व निषाद - इन पाँच वर्गों का हित सिद्ध करनेवाले (यज्ञं अच्छ) - यज्ञ की ओर (नयन्तु) - ले - चलें, अर्थात् विद्वान् आचार्य की कृपा से हमारे सन्तान वीर तो हों ही, वे सदा लोकहितकारी यज्ञों में भी प्रवृत्त होनेवाले हों, ध्वंसात्मक कर्मों की ओर उनका झुकाव न हो ।
भावार्थ
भावार्थ - हमें ज्ञानी आचार्य प्राप्त हों, सूनुत वाणी प्राप्त हो, हमारी वीर सन्तान यज्ञशील हो ।
विषय
स्त्री का उन्नत पद ।
भावार्थ
(ब्रह्मणः) वेद के सत्यज्ञान तथा विद्वान्, वेदज्ञ ब्राह्मण गण का पालक राजा (प्र एतु) आगे, उच्चपद पर आवे। (सूनृता) प्रिय, उत्तम सत्याचरण तथा सत्य शास्त्रयुक्त वाणी बोलनेवाली (देवी) विदुषी स्त्री तथा राजसभा ( प्र एतु) उच्चपद पर विराजे। (देवाः) विद्वान्गण (वीरं) वीर (नर्यं) नेता पुरुषों में प्रमुख (पंक्तिराधसम्) सेना के वीर पुरुषों की पंक्तियों को वश करने में कुशल पुरुष को (नः) हमारे (यज्ञम्) सुव्यवस्थित राष्ट्र कार्य में (नयतु) प्राप्त करावे। परमेश्वर के पक्ष में—वेद ज्ञान का पालक परमेश्वर आचार्य हमें साक्षात् हो (सूनृता देवी) सत्य वेदवाणी हमें ज्ञात हो। सबका हितकारी वीर्यवान् अक्षरपंक्ति का ज्ञाता विद्वान् स्वाध्याय, यश या ज्ञान के प्रवचन कार्य में अग्रणी हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कण्वो घौर ऋषिः ॥ बृहस्पतिर्देवता ॥ छन्दः—२, १, ८, निचदुपरिष्टाद्बृहती । ५ पथ्याबृहती । ३, ७ आर्चीत्रिष्टुप् । ४,६ सतः पंक्तिनिचृत्पंक्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व माणसांनी अशी इच्छा ठेवली पाहिजे की, ज्यामुळे विद्येची वृद्धी होत जावी. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May the lord of divine knowledge move forward. May the lady scholar of divine truth and law move forward. May the generous and brilliant men of yajna carry and conduct our yajnas of the achievement of manly heroes for five-fold gifts of wealth and well-being.
Subject of the mantra
Then, how these people behave with each other, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vidvan) =scholar ! (brahmaṇaḥ)= conversant of the four Vedas, [aura]=and, (patiḥ)=follower, (bhavān)=you, (yam)=which, (paṃktirādhasam)=you line up the group of pious and brave men, or for the line that is blessed with food, (naryam)= best benefactor of humans, [aise]=such, (acchā)=pure, (vīram)=giver of perfect body and soul, (sukhaprāpakam)= bringers of happiness, (yajñam)=to reading, listening and preachings, (pra)=outstandingly, (etu) =obtain, O (viduṣi)=wise woman ! (sūnṛtā)=beloved of true character and speech, (devī)=enlightened by the knowledge of all the scriptures, (satī)=female devotee, (bhavati)=occurs, (eti)=in arrival, (api)=also, (etam)=to it, (pra)=with effort, (etu)=obtain, (tam)=to that, (naḥ)=our, (devāḥ)=scholars, (pra)=clearly, (nayaṃtu)=receive.
English Translation (K.K.V.)
O scholar, conversant and follower of the four Vedas! The group of pious and brave men you line up or for the line that is blessed with food. In such people, best benefactor, pure, full of body and self-strength, giver of happiness, get excellent readings, listening and preaching. O wise woman! With dear truthful conduct is a female devotee, enlightened by the knowledge of all the scriptures and with the full of speech. At the time of arrival, attain this with efforts. Our scholars get it clearly.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
All human beings should have such a desire that knowledge increases.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should they (learned persons) deal is taught in the 3rd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May the Master of the Vedic Knowledge and protector of the knower of the four Vedas come to our Yajna (in the form of studying and teaching) which gives us perfect physical and spiritual power, which is beneficial to all mankind and which accomplishes the desires and objects of the band of righteous and brave men. May a learned lady shining with the knowledge of all Shastras, endowed with pleasant and truthful speech also attend this Yajna. May all enlightened persons lead us to this Yajna (of reading, teaching, hearing and delivering sermons).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(देवी) सर्वशास्त्रबोधेन देदीप्यमाना | = Shining on account of the knowledge of all shastras. ( सूनृता) प्रियसत्याचरणलक्षणवाणीयुक्ता = Endowed with pleasant and true speech. ( पंक्तिराधसम्) पंक्तीधर्मात्मवीरमनुष्यसमूहान् राध्नोति यद्वा पंक्तयर्थ राधः अन्नं यस्य = That which accomplishes the desires and objects of the band of righteous brave persons. ( यज्ञम् ) पठनपाठनश्रवणोपदेशाख्यम् । = Yajna in the form of reading and teaching, hearing and delivering sermons regarding the Vedas.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All men should do and desire that there may be development and diffusion of knowledge.
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