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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 40/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - सतःपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यो वा॒घते॒ ददा॑ति सू॒नरं॒ वसु॒ स ध॑त्ते॒ अक्षि॑ति॒ श्रवः॑ । तस्मा॒ इळां॑ सु॒वीरा॒ मा य॑जामहे सु॒प्रतू॑र्तिमने॒हस॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । वा॒घते॑ । ददा॑ति । सू॒नर॑म् । वसु॑ । सः । ध॒त्ते॒ । अक्षि॑ति । श्रवः॑ । तस्मै॑ । इळा॑म् । सु॒ऽवीराम् । आ । य॒जा॒म॒हे॒ । सु॒ऽप्रतू॑र्तिम् । अ॒ने॒हस॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो वाघते ददाति सूनरं वसु स धत्ते अक्षिति श्रवः । तस्मा इळां सुवीरा मा यजामहे सुप्रतूर्तिमनेहसम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । वाघते । ददाति । सूनरम् । वसु । सः । धत्ते । अक्षिति । श्रवः । तस्मै । इळाम् । सुवीराम् । आ । यजामहे । सुप्रतूर्तिम् । अनेहसम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 40; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    (यः) मनुष्यः (वाघते) ऋत्विजे (ददाति) प्रयच्छति (सूनरम्) शोभना नरा यस्मात्तत् (वसु) धनम्। वस्विति धननामसु पठितम्। निघं० २।१०। (सः) मनुष्यः (धत्ते) धरति (अक्षिति) अविद्यमानाक्षितिः क्षयो यस्य तत् (श्रवः) शृण्वन्ति सर्वा विद्या येनान्नेन तत् (तस्मै) मनुष्याय (इडाम्) पृथिवीं वाणीं वा (सुवीराम्) शोभना वीरा यस्यां ताम् (आ) समंतात् (यजामहे) प्राप्नुयाम (सुप्रतूर्त्तिम्) सुष्ठु प्रकृष्ठा तूर्त्तिस्त्वरिता प्राप्तिर्यया ताम् (अनेहसम्) हिंसितुमनर्हां रक्षितुं योग्याम् ॥४॥

    अन्वयः

    विद्वद्भिरितरैर्मनुष्यैश्च परस्परं किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    यो मनुष्यो वाघते सूनरं वसु ददाति यामनेहसं सुप्रतूर्त्तिं सुवीरामिडां वयमायजामहे तेन तया च सोऽक्षिति श्रवो धत्ते ॥४॥

    भावार्थः

    यो मनुष्यः शरीरवाङ्मनोभिर्विदुषः सेवते स एवाक्षयां विद्यां प्राप्य पृथिवीराज्यं भुक्त्वा मुक्तिमाप्नोति। ये वाग्विद्यां प्राप्नुवंति ते विद्वांसोऽन्यान् विदुषः कर्त्तुं शक्नुवंति नेतरे ॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    विद्वान् और अन्य मनुष्यों को एक दूसरे के साथ क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    (यः) जो मनुष्य (वाघते) विद्वान् के लिये (सूनरम्) जिससे उत्तम मनुष्य हों उस (वसु) धन को (ददाति) देता है और जिस (अनेहसम्) हिंसा के अयोग्य (सुप्रतूर्त्तिम्) उत्तमता से शीघ्र प्राप्ति कराने (सुवीराम्) जिससे उत्तम शूरवीर प्राप्त हों (इडाम्) पृथिवी वा वाणी को हम लोग (आयजामहे) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं उससे (सः) वह पुरुष (अक्षिति) जो कभी क्षीणता को न प्राप्त हो उस (श्रवः) धन और विद्या के श्रवण को (धत्ते) करता है ॥४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य शरीर, वाणी, मन और धन से विद्वानों का सेवन करता है वही अक्षय विद्या को प्राप्त हो और पृथिवी के राज्य को भोग कर मुक्ति को प्राप्त होता है। जो पुरुष वाणी विद्या को प्राप्त होते हैं, वे विद्वान् दूसरे को भी पण्डित कर सकते हैं आलसी अविद्वान् पुरुष नहीं ॥४॥

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    विषय

    विद्वान् और अन्य मनुष्यों को एक दूसरे के साथ क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यः मनुष्यः वाघते सूनरं वसु ददाति याम् अनेहसं सुप्रतूर्त्तिं सुवीराम् इडां वयम् आ यजामहे तेन तया च सः अक्षिति श्रवः धत्ते ॥४॥

    पदार्थ

    (यः) मनुष्यः= जो मनुष्य, (वाघते) ऋत्विजे = ऋत्विज में, (सूनरम्) शोभना नरा यस्मात्तत्=जिसमें मनुष्य उत्तम हैं, उसके (वसु) धनम्=धन को,  (ददाति) प्रयच्छति=देता है। (याम्)=जिसमें, (अनेहसम्) हिंसितुमनर्हां रक्षितुं योग्याम्=हिंसा और रक्षा के योग्य, (सुप्रतूर्त्तिम्) सुष्ठु प्रकृष्ठा तूर्त्तिस्त्वरिता प्राप्तिर्यया ताम्=जिसमें सुन्दर प्रकृष्ठ और शीघ्र होनेवाली प्राप्तियां हैं, (सुवीराम्) शोभना वीरा यस्यां ताम्=जिसमें उत्तम वीर हैं, उस, (इडाम्) पृथिवीं वाणीं वा=पृथिवी या वाणी को, (वयम्)=हम, (आ) समंतात्=हर ओर से, (यजामहे) प्राप्नुयाम=प्राप्त करें, (च)=और, (तेन)=उसके द्वारा, (सः) मनुष्यः=मनुष्य, (अक्षिति) अविद्यमानाक्षितिः क्षयो यस्य तत्=जिसका अविनाशी स्वभाव है, (श्रवः) शृण्वन्ति सर्वा विद्या येनान्नेन तत्=जिससे सब विद्यायें सुनते हैं, वह,  (धत्ते) धरति=धारण करता है ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो मनुष्य शरीर, वाणी, मन और धन से विद्वानों का सेवन करता है वही अक्षय विद्या को प्राप्त हो और पृथिवी के राज्य को भोग कर मुक्ति को प्राप्त होता है। जो पुरुष वाणी विद्या को प्राप्त होते हैं, वे विद्वान् दूसरे को भी पण्डित कर सकते हैं आलसी अविद्वान् पुरुष नहीं ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यः) जो मनुष्य (वाघते) ऋत्विजों में (सूनरम्) उत्तम है, वह (वसु) धन को  (ददाति) देता है। (याम्) जिसमें (अनेहसम्) हिंसा और रक्षा के योग्य (सुप्रतूर्त्तिम्) सुन्दर प्रकृष्ट और शीघ्र होनेवाली प्राप्तियां हैं, (सुवीराम्) जिसमें उत्तम वीर हैं, उस (इडाम्) पृथिवी या वाणी को (वयम्) हम (आ) हर ओर से (यजामहे) प्राप्त करें (च) और (तेन) उसके द्वारा (सः) मनुष्य (अक्षिति) जिसका अविनाशी स्वभाव है [और] (श्रवः) जिससे सब विद्यायें सुनते हैं, वह  (धत्ते) [समस्त चर और अचर जगत् को] धारण करता है ॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यः) मनुष्यः (वाघते) ऋत्विजे (ददाति) प्रयच्छति (सूनरम्) शोभना नरा यस्मात्तत् (वसु) धनम्। वस्विति धननामसु पठितम्। निघं० २।१०। (सः) मनुष्यः (धत्ते) धरति (अक्षिति) अविद्यमानाक्षितिः क्षयो यस्य तत् (श्रवः) शृण्वन्ति सर्वा विद्या येनान्नेन तत् (तस्मै) मनुष्याय (इडाम्) पृथिवीं वाणीं वा (सुवीराम्) शोभना वीरा यस्यां ताम् (आ) समंतात् (यजामहे) प्राप्नुयाम (सुप्रतूर्त्तिम्) सुष्ठु प्रकृष्ठा तूर्त्तिस्त्वरिता प्राप्तिर्यया ताम् (अनेहसम्) हिंसितुमनर्हां रक्षितुं योग्याम् ॥४॥ 
    विषयः- विद्वद्भिरितरैर्मनुष्यैश्च परस्परं किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- यो मनुष्यो वाघते सूनरं वसु ददाति यामनेहसं सुप्रतूर्त्तिं सुवीरामिडां वयमायजामहे तेन तया च सोऽक्षिति श्रवो धत्ते ॥४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यो मनुष्यः शरीरवाङ्मनोभिर्विदुषः सेवते स एवाक्षयां विद्यां प्राप्य पृथिवीराज्यं भुक्त्वा मुक्तिमाप्नोति। ये वाग्विद्यां प्राप्नुवंति ते विद्वांसोऽन्यान् विदुषः कर्त्तुं शक्नुवंति नेतरे ॥४॥

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    विषय

    दान के सर्वश्रेष्ठ पात्र [आचार्य]

    पदार्थ

    १. (यः) - जो (वाघते) - ज्ञान की वाणियों का वहन करनेवाले [वोढारः , निरु० ११/१६] ब्रह्मणस्पति आचार्य के लिए (सूनरम्) - [शोभना नराः यस्मात्, द०] जिसके द्वारा मनुष्यों को उत्तम बनाया जाता है उस (वसुः) - धन को (ददाति) - देता है, (सः) - वह मनुष्य (अक्षिति) - नक्षीण होनेवाले (श्रवः) - धन [नि० २१०] यश [नि० १९] तथा अन्न [नि० १० ॥ ३] को (धत्ते) - धारण करता है । ज्ञानी आचार्यों को दिया गया धन मनुष्यों के जीवनों को उत्तम बनाने में विनियुक्त होता है, एवं यह दान सर्वोत्तम दान होता है । इस दान के देनेवाले का धन क्षीण न होकर बढ़ता है, इसकी प्रशंसा होती है और इसे कभी भी अन्न की कमी नहीं होती । 
    २. (तस्मा) - इस पुरुष के लिए (इळाम्) - उस ज्ञान की वाणी को (आ यजामहे) - सब प्रकार से संगत करते हैं, जो वाणी (सुवीराम्) - पुरुष को उत्तम वीर बनानेवाली है, (सुप्रतूर्तिम्) - [शोभना प्रतूर्तिः शत्रूणां हिंसनं यस्याः] उत्तमता से शत्रुओं का हिंसन करनेवाली है तथा (अनेहसम्) - [न हन्यते] अहिंस्य है, अर्थात् सदा स्वाध्याय के द्वारा रक्षा के योग्य है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञान देकर मनुष्यों का निर्माण करनेवाले आचार्यों के लिए दान देना हमारे अक्षय धन का कारण बनता है । 
     

    विशेष / सूचना

    सूचना - "तस्मा" का अर्थ तस्मात् - से किया जाए तो अर्थ इस प्रकार होगा कि 'उस आचार्य से हम वेदवाणी को अपने साथ सङ्गत करते हैं, जो वेदवाणी...........' 
     

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    विषय

    कन्यादान, भूमिदान ।

    भावार्थ

    (यः) जो (वाधते) विद्वान् पुरुष को (सूनरम्) उत्तम पुरुषों, या नायकों से युक्त (वसु) राज्यैश्वर्य, या वसनेवाली प्रजा रूप धन को (धत्ते) धारण करता है। (तस्मै) उस नायक को (सुवीराम्) वीर्यवती (सुप्रतूर्त्तिम्) बहुत अच्छी प्रकार सब ज्ञानों, पदार्थों और सुखों को देनेवाली (अनेहसम्) गौ के समान कभी न मारने योग्य, निर्दोष, निष्पाप (इळां) कन्या के समान भूमि को (आ यजामहे) प्रदान करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्वो घौर ऋषिः ॥ बृहस्पतिर्देवता ॥ छन्दः—२, १, ८, निचदुपरिष्टाद्बृहती । ५ पथ्याबृहती । ३, ७ आर्चीत्रिष्टुप् । ४,६ सतः पंक्तिनिचृत्पंक्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो माणूस शरीर, वाणी, मन व धनाने विद्वानांचा स्वीकार करतो तोच अक्षय विद्या प्राप्त करून, पृथ्वीचे राज्य भोगून मुक्ती प्राप्त करतो. जे पुरुष वाणी विद्या प्राप्त करतात ते विद्वान दुसऱ्यालाही पंडित करू शकतात. आळशी अविद्वान पुरुष नाही. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The man who gives to the scholar of divinity and the high-priest of yajna wealth by which noble people arise commands imperishable honour and fame. For him we pray and work for the gift of divine speech and sacred earth, inviolable, holy and instantly productive, which creates and raises noble heroes.

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    Subject of the mantra

    How should scholars and other humans behave with each other, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ)=The man who, (vāghate)=in ṛtvija persons, (sūnaram)=is perfect, their (vasu)=to wealths, (dadāti)=gives, (yām)=in which, (anehasam)=capable of violence and defense, (supratūrttim)=there are beautiful, bright and quick achievements, (suvīrām)=who has the best heroes, that (iḍām) =to the earth or speech, (vayam)=we, (ā)=from all sides, (yajāmahe)=obtain, (ca)=and, (tena)=by that, (saḥ)=human, (akṣiti) who has an immortal nature [aura]=and, (śravaḥ)=the one from whom all the listen teachings, (dhatte)= sustains, [samasta cara aura acara jagat ko]= to all the variable and invariable worlds.

    English Translation (K.K.V.)

    The man who is the best among ṛtvijas, he gives wealth. In which there are beautiful, excellent and quick attainments worthy of violence and protection. May we obtain that earth or speech from all sides, in which there are great heroes, and by him the man, who has an imperishable nature and from whom all the listen knowledge, that sustains the whole world, both movable and immovable.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The man who serves the learned with the body, speech, mind and money, he attains imperishable knowledge and attains liberation by enjoying the kingdom of the earth. Men who are blessed with speech and knowledge, those scholars can make others a scholar, not lazy uneducated men.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should learned persons and others do mutually is taught in the 4th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    He, who gives a noble present to a highly learned priest, wins fame that shall never decay or enjoys inexhaustible abundance. For him we invoke the noble speech that produces great heroes, that makes men active in achieving their goal and that is inviolable.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वाघते) ऋत्विजे | = For a highly learned and intelligent priest. वाघत इति मेधाविनाम ( निघ० ३.१५ ) वाघत इति ऋत्विङ् नाम ( निघ० ३.१८ ) ( इडाम् ) पृथिवीं वाणीं वा इडेति पृथिवीनाम १.१) इडेतिवाङ्नाम ( निघ० १.११) ( सुमतूर्तिम् ) सुष्टु प्रकृष्टा तृर्तिः त्वरिता प्राप्तिर्यया ताम् ॥ = That which enables to achieve the end soon. ( अनेहसम् ) हिंसितुमन, रक्षितुं योग्याम् = Inviolable, worth-preserving.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The man who serves learned persons with body, speech and mind, acquires inexhaustible wisdom, enjoys the earthly kingdom and then attains emancipation. Those who are well-versed in the science of speech or language, can make others learned and not others.

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