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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 40/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - पथ्यावृहती स्वरः - मध्यमः

    प्र नू॒नं ब्रह्म॑ण॒स्पति॒र्मन्त्रं॑ वदत्यु॒क्थ्य॑म् । यस्मि॒न्निन्द्रो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा दे॒वा ओकां॑सि चक्रिरे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । नू॒नम् । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ । मन्त्र॑म् । व॒द॒ति॒ । उ॒क्थ्य॑म् । यस्मि॑न् । इन्द्रः॑ । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । दे॒वाः । ओकां॑सि । च॒क्रि॒रे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं वदत्युक्थ्यम् । यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा देवा ओकांसि चक्रिरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । नूनम् । ब्रह्मणः । पतिः । मन्त्रम् । वदति । उक्थ्यम् । यस्मिन् । इन्द्रः । वरुणः । मित्रः । अर्यमा । देवाः । ओकांसि । चक्रिरे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 40; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (प्र) (नूनम्) निश्चये (ब्रह्मणः) बृहतो जगतो वेदस्य वा (पतिः) न्यायाधीशः स्वामी (मन्त्रम्) वेदस्थमन्त्रसमूहम् (वदति) उपदिशति (उक्थ्यम्) वक्तुं श्रोतुं योग्येषु ऋग्वेदादिषु भवम् (यस्मिन्) जगदीश्वरे (इन्द्रः) विद्युत् (वरुणः) चन्द्रसमुद्रतारकादिसमूहः (मित्रः) प्राणः (अर्य्यमा) वायुः (देवाः) पृथिव्यादयोलोका विद्वांसो वा (ओकांसि) गृहाणि (चक्रिरे) कृतवन्तः सन्ति ॥५॥

    अन्वयः

    अथेश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    यो ब्रह्मणस्पतिरीश्वरो नूनमुक्थ्यं मन्त्रं प्रवदति यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्य्यमा देवश्चौकांसि चक्रिरे तमेव वयं यजामहे ॥५॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या येनेश्वरेण वेदा उपदिष्टा यः सर्वजगदभिव्याप्य स्थितोस्ति यस्मिन् सर्वे पृथिव्यादयो लोकास्तिष्ठन्ति मुक्तिसमये विद्वांसश्च निवसन्ति स एव सर्वैर्मनुष्यैरुपास्योस्ति न चास्माद्भिन्नोऽन्यः ॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब ईश्वर कैसा है, उसका उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    जो (ब्रह्मणस्पतिः) बड़े भारी जगत् और वेदों का पति स्वामी न्यायाधीश ईश्वर (नूनम्) निश्चय करके (उक्थ्यम्) कहने सुनने योग्य वेदवचनों में होनेवाले (मंत्रम्) वेदमन्त्र समूह का (प्रवदति) उपदेश करता है वा (यस्मिन्) जिस जगदीश्वर में (इन्द्रः) बिजुली (वरुणः) समुद्र चन्द्रतारे आदि लोकान्तर (मित्रः) प्राण (अर्यमा) वायु और (देवाः) पृथिवी आदिलोक और विद्वान् लोग (ओकांसि) स्थानों को (चक्रिरे) किये हुए हैं, उसी परमेश्वर का हम लोग सत्कार करें ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को उचित है कि जिस ईश्वर ने वेदों का उपदेश किया है, जो सब जगत् में व्याप्त होकर स्थित है जिसमें सब पृथिवी आदि लोक रहते और मुक्ति समय में विद्वान् लोग निवास करते हैं उसी परमेश्वर की उपासना करनी चाहिये इससे भिन्न किसी की नहीं ॥५॥

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    विषय

    अब ईश्वर कैसा है, उसका उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यः ब्रह्मणः पतिः ईश्वरः नूनम् उक्थ्यं मन्त्रं प्रवदति यस्मिन् इन्द्रः वरुणः मित्रः अर्य्यमा देवाः च ओकांसि चक्रिरे तम् एव वयं यजामहे ॥५॥

    पदार्थ

    (यः)=जो,  (ब्रह्मणः) बृहतो जगतो वेदस्य वा=महान् जगत् या वेद का,  (पतिः) न्यायाधीशः स्वामी=न्यायाधीश और स्वामी, (ईश्वरः)=ईश्वर  है। (नूनम्) निश्चये=निश्चय से, (उक्थ्यम्)= स्तुति के साथ, (मन्त्रम्) वेदस्थमन्त्रसमूहम्=वेदमन्त्रों के समूह का, (वदति) उपदिशति=उपदेश करता है। (यस्मिन्) जगदीश्वरे=ईश्वर में, (इन्द्रः) विद्युत्= विद्युत्,  (वरुणः) चन्द्रसमुद्रतारकादिसमूहः=चन्द्रमा, समुद्र, तारों आदि कासमूह है।  (मित्रः) प्राणः=प्राण, (अर्य्यमा) वायुः=वायु, (च)=और, (देवाः) पृथिव्यादयोलोका विद्वांसो वा=पृथिवी आदि लोक या  विद्वांन् है और (ओकांसि) गृहाणि= गृह, (चक्रिरे) कृतवन्तः सन्ति=बनाये गये हैं। (तम्)=उनको, (एव)=ही,  (वयम्)=हम, (यजामहे)=उसी [परमेश्वर का] सत्कार करें ॥५॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों को उचित है कि जिस ईश्वर ने वेदों का उपदेश किया है, जो सब जगत् में व्याप्त होकर स्थित है जिसमें सब पृथिवी आदि लोक रहते और मुक्ति समय में विद्वान् लोग निवास करते हैं उसी परमेश्वर की उपासना करनी चाहिये इससे भिन्न किसी की नहीं ॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यः) जो  (ब्रह्मणः) महान् जगत् या वेद का  (पतिः) स्वामी और न्यायाधीश (ईश्वरः) ईश्वर है।[वह]  (नूनम्) निश्चय से ही (उक्थ्यम्) स्तुति के साथ (मन्त्रम्) वेदमन्त्रों के समूह का (वदति) उपदेश करता है। (यस्मिन्) ईश्वर में (इन्द्रः) विद्युत्  (वरुणः) चन्द्रमा, समुद्र, तारों आदि का समूह विद्यमान हैं।  (मित्रः) प्राण, (अर्य्यमा) वायु (च) और (देवाः) पृथिवी आदि लोक या  विद्वांन् और (ओकांसि) गृह (चक्रिरे) बनाये गये हैं। [वे उसी में विद्यमान हैं।] (तम्) उस [परमेश्वर का] (एव) ही  (वयम्) हम (यजामहे) सत्कार करें ॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (प्र) (नूनम्) निश्चये (ब्रह्मणः) बृहतो जगतो वेदस्य वा (पतिः) न्यायाधीशः स्वामी (मन्त्रम्) वेदस्थमन्त्रसमूहम् (वदति) उपदिशति (उक्थ्यम्) वक्तुं श्रोतुं योग्येषु ऋग्वेदादिषु भवम् (यस्मिन्) जगदीश्वरे (इन्द्रः) विद्युत् (वरुणः) चन्द्रसमुद्रतारकादिसमूहः (मित्रः) प्राणः (अर्य्यमा) वायुः (देवाः) पृथिव्यादयोलोका विद्वांसो वा (ओकांसि) गृहाणि (चक्रिरे) कृतवन्तः सन्ति ॥५॥ 
    विषयः- अथेश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- यो ब्रह्मणस्पतिरीश्वरो नूनमुक्थ्यं मन्त्रं प्रवदति यस्मिन्निन्द्रो वरुणो मित्रो अर्य्यमा देवाश्चौकांसि चक्रिरे तमेव वयं यजामहे ॥५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्या येनेश्वरेण वेदा उपदिष्टा यः सर्वजगदभिव्याप्य स्थितोस्ति यस्मिन् सर्वे पृथिव्यादयो लोकास्तिष्ठन्ति मुक्तिसमये विद्वांसश्च निवसन्ति स एव सर्वैर्मनुष्यैरुपास्योस्ति न चास्माद्भिन्नोऽन्यः ॥५॥

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    विषय

    आचार्य का कर्तव्य

    पदार्थ

    १. (नूनम्) - निश्चय से (ब्रह्मणस्पतिः) - ज्ञान का पति आचार्य (उक्थ्यम्) - स्तुति के योग्य प्रशंसनीय (मन्त्रम्) - वेद - प्रतिपादित ज्ञान की वाणीरूप मन्त्र को (प्रवदति) - प्रकर्षेण व्यक्त करके कहता है, अर्थात् उसकी व्याख्या करता है । 
    २. यह मन्त्ररूप वाणी वह है (यस्मिन्) - जिसमें (इन्द्रः) - इन्द्र (वरुणः) - वरुण, (मित्रः) - मित्र व (अर्यमा) - अर्यमा आदि (देवाः) - सब देव (ओंकासि) - घरों को (चक्रिरे) - बनाते हैं, अर्थात् इन मन्त्रात्मक वाणियों में सभी देवों का तथा देवों के अधिष्ठाता महादेव का उल्लेख है । प्रकृति के तेंतीस देव हैं । इनका अधिष्ठाता चौंतीसवाँ महादेव है । वेद में इन सबका व्याख्यान है । उससे इन देवताओं का स्वरूप जानकर हम इनसे पूरा लाभ उठा पाते हैं । आचार्य का यही कर्तव्य है कि वह इन मन्त्रों द्वारा विद्यार्थी को सब प्राकृतिक शक्तियों व प्रभु का ज्ञान देने का पूर्ण प्रयत्न करे । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - वेदमन्त्रों में सभी देवों का वर्णन है । इनसे आचार्य विद्यार्थी के लिए सब आवश्यक ज्ञान देने का प्रयत्न करता है । 
     

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    विषय

    आचार्य और ईश्वर का ज्ञानोपदेश

    भावार्थ

    (यस्मिन्) जिसके आश्रय पर (इन्द्रः) शत्रु विजयी सेनापति, (वरुणः) दुष्टों का निवारक, सर्वश्रेष्ठ राजा, (मित्रः) सबका स्नेही विद्वान् पुरुष (अर्यमा) न्यायाधीश आदि (देवाः) समस्न विद्वान्जन (ओकांसि) अपने २ स्थान, पद, (चक्रिरे) बनाये रहते हैं (नूनं) निश्चय से (ब्रह्मणः पतिः) वह वेदज्ञान का पालक विद्वान् (उक्थ्यं) कहने और श्रवण करने योग्य (मन्त्रं) मन्त्र, विचार (वदति) कहता है वह सर्वमान्य है। परमेश्वर के पक्ष में—(ब्रह्मणः पतिः) वह वेद या महान् जगत् का पालक परमेश्वर जिसके आश्रय पर (इन्द्रः) विद्युत् (वरुणः) समुद्र मेघ आदि (मित्रः) प्राणगण, (अर्यमा) वायु और (देवाः) पृथिवी आदि लोक (ओकांसि) अपना आश्रय बनाये हुए हैं, वही प्रभु (उक्थ्यं मन्त्रं वदति) उपदेश और श्रवण करनेयोग्य वेदमन्त्रों का उपदेश करता है। इति विंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्वो घौर ऋषिः ॥ बृहस्पतिर्देवता ॥ छन्दः—२, १, ८, निचदुपरिष्टाद्बृहती । ५ पथ्याबृहती । ३, ७ आर्चीत्रिष्टुप् । ४,६ सतः पंक्तिनिचृत्पंक्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या ईश्वराने वेदांचा उपदेश केलेला आहे, जो सर्व जगात व्याप्त असून त्यात स्थित आहे. ज्याच्यात सर्व पृथ्वी इत्यादी गोल आहेत व मुक्तीच्या वेळी विद्वान लोक त्याच्यात निवास करतात. माणसांनी त्याच परमेश्वराची उपासना केली पाहिजे. त्यापेक्षा वेगळ्या कुणाची नाही. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Surely the master of divinity and high-priest of yajna and Vedic speech chants the celebrated hymns of the Lord of the Universe in whose infinite presence Indra (electric energy), Varuna (sun, moon and oceans, etc.), Mitra (prana energy), Aryama (winds) and other divine powers of nature such as earth find their abode and sustenance.

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    Subject of the mantra

    Now, how is God, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ)=That, (brahmaṇaḥ)=of the great world or the Vedas, (patiḥ)=master and judge, (īśvaraḥ)=God is, [vaha]=that, (nūnam)=definitely, (ukthyam)=with praise, (mantram)=of set of Veda mantras, (vadati)=preaches (yasmin)=in God, (indraḥ)=electricity, (varuṇaḥ)=Moon, sea, group of stars etc. exist. (mitraḥ)=life breath, (aryyamā)=air, (ca)=and, (devāḥ)= Earth etc. people or scholars and, (okāṃsi)=houses, (cakrire)=have been made, [usī meṃ vidyamāna haiṃ]=they exist in the same, (tam) =of that, [parameśvara kā]=God, (eva)=only, (vayam) =we, (yajāmahe)=welcome.

    English Translation (K.K.V.)

    The Lord and judge of the great world or that of Vedas is God. He preaches a set of Vedas mantras with praise and determination only. The group of electricity, moon, sea, stars etc. exist in God. Life-breath, air and earth et cetera have been created as the worlds or scholars and houses have been made by Him. They exist in Him only. We should respect that God only.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    It is appropriate for humans that the God who has preached the Vedas, who is present all over the world, in whom all the earth et cetera, people live and the learned people reside at the time of liberation. Only that God should be worshipped, not anyone other than him.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is God is taught in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Verily God, the Just Lord of the vast universe and the Vedas, proclaims or reveals the admirable, worthy to be heard and spoken, Mantras contained in the Vedas. It is in Him that electricity, Ocean, Moon and stars, Prana (vital energy), air, the earth and other worlds and learned persons have made their dwelling place (as He is Omnipresent, pervading and controlling all ).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ब्रह्मणस्पतिः) बृहतो जगतः वेदस्य वा न्यायाधीशः स्वामी = The just Lord of the vast Universe and the Vedas. ( वरुण:) चन्द्रसमुद्रतारकादिसमूहः = The moon, ocean and group of stars etc. (मित्र:) प्राणः = Vital energy. (अर्यमा) वायु: = Air.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should adore only that one God who has revealed the Vedas (in the beginning of the Human creation) who pervades the entire Universe, in Whom the earth and other globes reside and in Whom learned persons abide during emancipation.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has translated Mitra as प्राण for which there are several clear authorities, for instance. प्राणो वै मित्र:-(शतपथ ८.४.२.६ ) प्राणो मित्रम् (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे ३.३.६) प्राणोदानौ मित्रावरुणौ ( शतपथ ३.२.२.१३) = Varuna ( वरुण:) has been interpreted by Rishi Dayananda as चन्द्रसमुद्रतारकादिसमूह: For moon and stars etc. the authority is असौदयुलोको वरुण: (शत० १२.९.२.१२) The meaning of water or ocean etc. is too well-known for which such authorities as आसु वै वरुणः (तैत्तिरीय १.६.५.६) etc. may be quoted.

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