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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 51/ मन्त्र 10
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    तक्ष॒द्यत्त॑ उ॒शना॒ सह॑सा॒ सहो॒ वि रोद॑सी म॒ज्मना॑ बाधते॒ शवः॑। आ त्वा॒ वात॑स्य नृमणो मनो॒युज॒ आ पूर्य॑माणमवहन्न॒भि श्रवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तक्ष॑त् । यत् । ते॒ । उ॒शना॑ । सह॑सा । सहः॑ । वि । रोद॑सी॒ इति॑ । म॒ज्मना॑ । बा॒ध॒ते॒ । शवः॑ । आ । त्वा॒ । वात॑स्य । नृ॒ऽम॒नः॒ । म॒नः॒ऽयुजः॑ । आ । पूर्य॑माणम् । अ॒व॒ह॒न् । अ॒भि । श्रवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तक्षद्यत्त उशना सहसा सहो वि रोदसी मज्मना बाधते शवः। आ त्वा वातस्य नृमणो मनोयुज आ पूर्यमाणमवहन्नभि श्रवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तक्षत्। यत्। ते। उशना। सहसा। सहः। वि। रोदसी इति। मज्मना। बाधते। शवः। आ। त्वा। वातस्य। नृऽमनः। मनःऽयुजः। आ। पूर्यमाणम्। अवहन्। अभि। श्रवः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 51; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सभाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे नृमणो विद्वन्नुशना ! भवान् सहसा शत्रूणां सहो हत्वा सूर्यो रोदसी भूमिप्रकाशाविव मज्मना स्वकीयेन शुद्धेन बलेन शवः शत्रूणां बलं विबाधत आतक्षच्च। मनोयुजो भृत्यास्त्वा त्वामाश्रित्य ते तव वातस्यापूर्यमाणं श्रवोऽभ्यवहन् समन्तात् प्राप्नुयुः ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (तक्षत्) तनूकरोति (यत्) (ते) तव (उशना) कामयमानः (सहसा) सामर्थ्येनाकर्षणेन वा (सहः) बलं सहनम् (वि) विशेषार्थे (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (मज्मना) शुद्धेन बलेन। मज्मेति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (बाधते) विलोडयति (शवः) बलम् (आ) समन्तात् (त्वा) त्वाम् (वातस्य) बलिष्ठस्य वायोरिव (नृमणः) नृषु नयनकारिषु मनो यस्य तत्सम्बुद्धौ (मनोयुजः) ये मनसा युज्यन्ते ते भृत्याः (आ) समन्तात् (पूर्य्यमाणम्) न्यूनतारहितम् (अवहन्) प्राप्नुयुः (अभि) आभिमुख्ये (श्रवः) श्रवणमन्नं वा ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि विदुषा सेनाध्यक्षेण विना पृथिवीराज्यव्यवस्था शत्रूणां बलहानिर्विद्यासद्गुणप्रकाशा उत्तमान्नादिप्राप्तिश्च जायते ॥ १० ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (नृमणाः) मनुष्यों में मन देनेवाले (उशना) कामयमान विद्वान् आप ! (सहसा) अपने सामर्थ्य से शत्रुओं के (सहः) बल का हनन कर के जैसे सूर्य (रोदसी) भूमि और प्रकाश को करता है, वैसे (मज्मना) शुद्ध बल से (शवः) शत्रुओं के बल को (विबाधते) विलोड़न वा (आतक्षत्) छेदन करते हो और (ते) आप के (मनोयुजः) मन से युक्त होनेवाले भृत्य (त्वा) आप का आश्रय ले के (ते) आप के (वातस्य) बलयुक्त वायु के सम्बन्धी (आपूर्यमाणम्) न्यूनतारहित (श्रवः) श्रवण और अन्नादि को (अभ्यावहन्) प्राप्त होवें ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् सभाध्यक्ष के विना पृथिवी के राज्य की व्यवस्था शत्रुओं के बल की हानि विद्यादि सद्गुणों का प्रकाश और उत्तम अन्नादि की प्राप्ति नहीं होती ॥ १० ॥

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    विषय

    ज्ञान व यश की ओर

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार जिस समय राजा अपव्रतों को दूर करके अनुव्रतों को उत्तम परिस्थिति प्राप्त कराता है, तब (यत्) = यदि (उशना) = सर्वलोकहित की कामनावाला वह प्रभु (सहसा) = सब बुराइयों का पराभव करनेवाले बल के द्वारा (ते सहः) = तेरे बल को (तक्षत्) = तीन करता है, तो (शवः) = तेरा यह बल (मज्मना) = अपनी शोधक शक्ति से [मस्ज् शुद्धौ] (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक को (विबाधते) = विशिष्ट रूप से आलोडित करनेवाला होता है । सारा संसार भी उसके विरोध में हो तो भी वह पराजित नहीं होता और सम्पूर्ण संसार में एक हलचल मचा देता है, जोकि संसार का शोधन करनेवाली होती है । २. हे (नृमणः) = [नृषु मनो यस्य] लोकहित की भावनायुक्त मनवाले ! (त्वा) = शोधक शक्ति से संसार को आलोडित करनेवाले तुझे (आपूर्यमाणम्) = प्रभु के द्वारा शक्ति से पूर्ण किये जाते हुए तुझे (वातस्य) = आत्मा के (मनोयुजः) = मन से युक्त ये इन्द्रियरूप अश्व (श्रवः अभि) = ज्ञान व यश के प्रति (आवहन्) = प्राप्त करानेवाले हों । आत्मा को यहाँ 'वात' शब्द से कहा गया है । 'वा' धातु से 'वात' शब्द बना है, 'अत्' धातु से 'आत्मा' । दोनों धातुओं का अर्थ गति है । आत्मा को स्वाभाविक रूप से गतिशील होना ही चाहिए । यह आत्मा रथी है । इसके शरीररूप रथ में इन्द्रियरूप अश्व जुते हैं । ये इन्द्रियरूप अश्व मनरूपी लगाम से युक्त हैं । जब ये घोड़े लगाम द्वारा काबू में होते हैं, तब ये ज्ञान और उत्तम कर्मों द्वारा यश का वर्धन करनेवाले होते हैं । ३. यह सब होता तभी है जब सबका हित चाहनेवाले प्रभु अपने बल से जीव को बलयुक्त करते हैं । प्रभु के तेज से तेजस्वी बनकर यह प्रभुभक्त अपने जीवन को तो शुद्ध बनाता ही है, इसी बल के द्वारा यह सम्पूर्ण संसार में भी उस हलचल को पैदा करता है, जो सारे संसार की शोधक होती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुकृपा से हम तेजस्वी बनकर, शोधक बल से संसार को शुद्ध करनेवाले हों । वशीभूत इन्द्रियाँ हमें ज्ञान व यश की ओर ले - चलें ।

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    विषय

    उशना

    भावार्थ

    हे राजन् ! (यत्) जब ( ते सहः ) तेरे बल को (उशनाः) तेरी मैत्री और वृद्धि करनेवाला सहायक मन्त्री या मित्र राजा अपने (सहसा ) शत्रु पराजयकारी बल से (तक्षत्) अति अधिक तीक्ष्ण कर देता है, तब (मज्मना ) अपने महान् सामर्थ्य से तेरा ( शवः ) सैन्यबल ( रोदसी विबाधते ) आकाश और भूमि दोनों के समान स्वपक्ष और पर- पक्ष दोनों को विविध प्रकार से पीड़ित करता है, दोनों को भयभीत करता है । हे (नृमणः ) नेता पुरुषों के प्रति मनोयोग देनेहारे ! अथवा प्रजा के हितों में दत्तचित्त ! एव प्रजाओं को वश करनेहारे ! (वातस्य मनोयुजः) वायु के वेग से चलनेवाले मन अर्थात् इच्छानुसार रथ में जुड़कर चलनेहारे तीव्र, वेगवान् अश्व और अश्वारोही भृत्यगण ( आ पूर्यमाणम् ) सब प्रकार से भरे पूरे, पूर्ण कोशवान् (त्वा) तुझको (श्रवः ) यश, धन और ऐश्वर्य ( अभि आवहन् ) सब तरफ से प्राप्त करावें । इति दशमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १, ९, १० जगती २, ५, ८ विराड् जगती । ११–१३ निचृज्जगती ३, ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६,७ त्रिष्टुप् ॥ पंचदशर्चं सूक्तम् ।

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    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे नृमणः विद्वन् उशना ! भवान् सहसा शत्रूणां सहः हत्वा सूर्यः रोदसी भूमिप्रकाशौ इव मज्मना स्वकीयेन शुद्धेन बलेन शवः शत्रूणां बलं वि बाधते आ तक्षत् च। मनोयुजः भृत्याः त्वा त्वाम् आश्रित्य ते तव वातस्य अपूर्यमाणं श्रवः अभि अवहन् समन्तात् प्राप्नुयुः ॥१०॥

    पदार्थ

    हे (नृमणः) नृषु नयनकारिषु मनो यस्य तत्सम्बुद्धौ= मनुष्यों का नेतृत्व करनेवाले मनोहारी, (विद्वन्)= विद्वान्, (उशना) कामयमानः=कामना करते हुए ! (भवान्)=आप, (सहसा) सामर्थ्येनाकर्षणेन वा=सामर्थ्य या आकर्षण से, (शत्रूणाम्)= शत्रुओं के, (सहः) बलं सहनम्= बल को, (हत्वा)=मारकर, (सूर्यः)= सूर्य, (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ= द्यावा और पृथिवी, (भूमिप्रकाशौ)= भूमि और प्रकाश के, (इव)=समान, (मज्मना) शुद्धेन बलेन= शुद्ध बल से, (स्वकीयेन)=अपने, (शुद्धेन)= शुद्ध, (बलेन)= बल से, (शत्रूणाम्)= शत्रुओं के, (बलम्)=बल पर, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (बाधते) विलोडयति=काबू पा लेते हो, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (च)=और, (तक्षत्) तनूकरोति=कम कर देते हो। (मनोयुजः) ये मनसा युज्यन्ते ते भृत्याः=जो सेवक मन से लगे हैं, (त्वा) त्वाम्=तुम पर, (आश्रित्य)= आश्रित, (ते) तव = तुम्हारा, (वातस्य) बलिष्ठस्य वायोरिव=वायु के समान अतिशय बलवान्, (पूर्य्यमाणम्) न्यूनतारहितम्=न्यूनता रहित, (श्रवः) श्रवणमन्नं वा=श्रवण या अन्न को, (अभि) आभिमुख्ये=सामने से, (अवहन्) प्राप्नुयुः समन्तात् =हर ओर से से, (प्राप्नुयुः)=प्राप्त करो१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् सभाध्यक्ष के विना पृथिवी के राज्य की व्यवस्था, शत्रुओं के बल की हानि, विद्यादि सद्गुणों का प्रकाश और उत्तम अन्नादि की प्राप्ति नहीं होती है ॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (नृमणः) मनुष्यों का नेतृत्व करनेवाले मनोहारी, (विद्वन्) विद्वान् (उशना) कामना करते हुए ! (भवान्) आप (सहसा) सामर्थ्य या आकर्षण से (शत्रूणाम्) शत्रुओं के (सहः) बल को (हत्वा) मारकर (सूर्यः) सूर्य, (रोदसी) द्यावा और पृथिवी, (भूमिप्रकाशौ) भूमि और प्रकाश के (इव) समान (स्वकीयेन) अपने (शुद्धेन) शुद्ध (बलेन) बल से (शत्रूणाम्) शत्रुओं के (बलम्) बल पर (वि) विशेष रूप से (बाधते) काबू पा लेते हो। (च) और [बल को] (आ) हर ओर से (तक्षत्) कम कर देते हो। (मनोयुजः) जो सेवक मन से लगे हैं, (त्वा) तुम पर (आश्रित्य) आश्रित, (ते) तुम्हारे (वातस्य) वायु के समान अतिशय बलवान्, (पूर्य्यमाणम्) न्यूनता रहित (श्रवः) श्रवण या भोजन को (अवहन्) हर ओर से (प्राप्नुयुः) प्राप्त करो ॥ १०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (तक्षत्) तनूकरोति (यत्) (ते) तव (उशना) कामयमानः (सहसा) सामर्थ्येनाकर्षणेन वा (सहः) बलं सहनम् (वि) विशेषार्थे (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (मज्मना) शुद्धेन बलेन। मज्मेति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (बाधते) विलोडयति (शवः) बलम् (आ) समन्तात् (त्वा) त्वाम् (वातस्य) बलिष्ठस्य वायोरिव (नृमणः) नृषु नयनकारिषु मनो यस्य तत्सम्बुद्धौ (मनोयुजः) ये मनसा युज्यन्ते ते भृत्याः (आ) समन्तात् (पूर्य्यमाणम्) न्यूनतारहितम् (अवहन्) प्राप्नुयुः (अभि) आभिमुख्ये (श्रवः) श्रवणमन्नं वा ॥ १० ॥ विषयः- पुनः सभाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे नृमणो विद्वन्नुशना ! भवान् सहसा शत्रूणां सहो हत्वा सूर्यो रोदसी भूमिप्रकाशाविव मज्मना स्वकीयेन शुद्धेन बलेन शवः शत्रूणां बलं विबाधत आतक्षच्च। मनोयुजो भृत्यास्त्वा त्वामाश्रित्य ते तव वातस्यापूर्यमाणं श्रवोऽभ्यवहन् समन्तात् प्राप्नुयुः ॥ १० ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि विदुषा सेनाध्यक्षेण विना पृथिवीराज्यव्यवस्था शत्रूणां बलहानिर्विद्यासद्गुणप्रकाशा उत्तमान्नादिप्राप्तिश्च जायते ॥१०॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वान सेनाध्यक्षाशिवाय पृथ्वीवरील राज्याची व्यवस्था, शत्रूंच्या बलाची हानी, विद्या इत्यादी सद्गुणांचा प्रकाश व उत्तम अन्न इत्यादींची प्राप्ती होत नाही. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ushana, power of love and honour, with courage and dignity tempered and sharpened, your valour and grandeur, and your valour and splendour with its speed and sharpness bounds the heaven and earth. Indra, admirable hero of humanity, may the currents of wind fast as mind elevate you, lord of fulfilment, and amply fulfilled, may they carry your fame to the heavens.

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    Subject of the mantra

    Then how should he be the head of the assembly, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (nṛmaṇaḥ)=the charming one who leads men, (vidvan) =learned, (uśanā) =desiring, (bhavān) =you, (sahasā) =by the attraction of capability, (śatrūṇām) =of enemies, (sahaḥ) =to power, (hatvā) =killing, (sūryaḥ) =Sun, (rodasī)= heaven and earth, (bhūmiprakāśau) =by land and light, (iva) =like, (svakīyena) =own, (śuddhena) =pure, (balena) =by power, (śatrūṇām) =of enemies, (balam) =at power, (vi) =specially, (bādhate)=get control, (ca) =and, [bala ko]=to power, (ā) =from all sides, (takṣat) =reduce, (manoyujaḥ)=the servants who are engaged mentally, (tvā) =at you, (āśritya) =dependant, (te) =your, (vātasya)=extremely strong like the air, (pūryyamāṇam)=free from deficiencies, (śravaḥ)= to hear or eat, (avahan) =from all sides, (prāpnuyuḥ) =obtain.

    English Translation (K.K.V.)

    O charming one who leads men, the learned wisher! By defeating the power of the enemies with your power or attraction, you especially control the power of the enemies with your pure power like the Sun, the heaven and the earth, the land and the light. And you reduce the force from all sides. Servants who are engaged mentally, dependent on you, very strong like your air, get hearing or food from every side.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Without a scholarly leader, there is no arrangement of the kingdom of the earth, loss of the power of the enemies, illumination of learned virtues and good food et cetera.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O friend or well-wisher of men, desiring the welfare of all, thou shouldst diminish and destroy the power of thy enemies with thy pure might like the sun that dispels all darkness. Thy servants that are devoted to thee-who art mighty like the wind, and full of virtues should approach thee from all sides and get knowledge and food from thee.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( मज्मना ) शुद्धेन बलेन मज्मेति बलनाम (निघ० २.९) = with pure might. ( वातस्य) बलिष्ठस्य वायोरिव = of the mighty like the wind.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Without the help and guidance of the learned commander in-chief of the army, it is not possible to establish law and order on earth, the destruction of the power of the enemies, the manifestation and diffusion of knowledge and noble virtues and the acquisition of food materials and other articles.

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