ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 51/ मन्त्र 4
ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वम॒पाम॑पि॒धाना॑वृणो॒रपाधा॑रयः॒ पर्व॑ते॒ दानु॑म॒द्वसु॑। वृ॒त्रं यदि॑न्द्र॒ शव॒साव॑धी॒रहि॒मादित्सूर्यं॑ दि॒व्यारो॑हयो दृ॒शे ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒पाम् । अ॒पि॒ऽधाना॑ । अ॒वृ॒णोः॒ । अप॑ । अधा॑रयः । पर्व॑ते । दानु॑ऽमत् । वसु॑ । वृ॒त्रम् । यत् । इ॒न्द्र॒ । शव॑सा । अव॑धीः । अहि॑म् । आत् । इत् । सूर्य॑म् । दि॒वि । आ । अ॒रो॒ह॒यः॒ । दृ॒शे ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमपामपिधानावृणोरपाधारयः पर्वते दानुमद्वसु। वृत्रं यदिन्द्र शवसावधीरहिमादित्सूर्यं दिव्यारोहयो दृशे ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। अपाम्। अपिऽधाना। अवृणोः। अप। अधारयः। पर्वते। दानुऽमत्। वसु। वृत्रम्। यत्। इन्द्र। शवसा। अवधीः। अहिम्। आत्। इत्। सूर्यम्। दिवि। आ। अरोहयः। दृशे ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 51; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृशः किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यत्त्वमपिधाना सूर्य इव शत्रुबन्धनान्यपावृणोर्दूरीकरोषि यथायं रविः पर्वते मेघे जलं दानुमद् वस्वधारयन् सन् वृत्रं विद्युदिव शत्रूनिदवधीः किरणाः सूर्यमिव दृशे न्यायमारोहयस्तस्मात् त्वं राज्यं कर्त्तुमर्हसि ॥ ४ ॥
पदार्थः
(त्वम्) सभेश (अपाम्) जलानाम् (अपिधाना) अपिधानान्यावरणानि (अवृणोः) वृणुयाः (अप) दूरीकरणे (अधारयः) धारयसि। (पर्वते) मेघे (दानुमत्) मेघम् (यत्) यस्मात् (इन्द्र) परमैश्वर्य्यवन् (शवसा) बलेन (अवधीः) हिन्धि (अहिम्) सर्वत्र व्याप्तुमर्हं मेघम् (आत्) अनन्तरम् (इत्) एव (सूर्यम्) (दिवि) प्रकाशे (आ) समन्तात् (अरोहयः) रोहयसि (दृशे) द्रष्टुं दर्शयितुं वा ॥ ४ ॥
भावार्थः
मनुष्याणां योग्यतास्ति येनेश्वरेण यः सर्वान् लोकानाकृष्यान्तरिक्षे स्थाप्य वर्षयित्वा सर्वान् प्रकाश्य च सुखानि ददातीदृशं सूर्य्यं निर्माय स्थापित इति वेदितव्यम् ॥ ३ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह किसके समान क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! (यम्) जिस कारण (त्वम्) आप जैसे सूर्य (अपाम्) जलों के (अपिधाना) आच्छादनों को दूर करता है, वैसे शत्रुओं के बल को (अपावृणोः) दूर करते हो, जैसे (पर्वते) मेघ में (दानुमत्) उत्तम शिखरयुक्त (वसु) द्रव्य वा जल को (अधारयः) धारण करता और (शवसा) बल से (अहिम्) व्याप्त होने योग्य (वृत्रम्) मेघ को (अवधीः) मारता है, वैसे शत्रुओं को छिन्न-भिन्न करते हो और जैसे किरणसमूह (सूर्यम्) सूर्य को (अरोहयः) अच्छे प्रकार स्थापित करते हैं, वैसे न्याय के प्रकाश से युक्त हैं, इससे राज्य करने के योग्य हैं ॥ ४ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि जो सूर्य मेघ के द्वार का छेदन कर, आकर्षण कर, अन्तरिक्ष में स्थापन, वर्षा और सबको प्रकाशित करके सुखों को देता है, उस सूर्य को ईश्वर ने रच कर स्थापन किया है, ऐसा जानें ॥ ४ ॥
विषय
दानुमत् वसु
पदार्थ
१. हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (अपाम्) = प्रजाओं की (अपिधाना) = आवरणभूत वासनाओं को (अपावृणोः) = दूर करते हैं । मानव - जीवन सदा विविध वासनाओं से आवृत - सा हुआ रहता है । प्रभुकृपा होती है तो यह वासनाओं का आवरण दूर हो जाता है । २. हे प्रभो ! आप ही (पर्वते) = [पूरयितव्ये] सदा पूरण होने के योग्य इस पुरुष में (दानुमत् वसु) = शोभन दान से युक्त धन को (अपाधारयः) = धारण करते हैं । मनुष्य में अल्पता के कारण, कमी स्वभावतः ही आ जाती है । मनुष्य को सदा ही 'अभ्यास व वैराग्य' आदि उपायों से अपना पूरण करना होता है । इसी से मनुष्य को यहाँ 'पर्वत' - पूरयितव्य कहा है । धन उन्नति में सहायक है, परन्तु दानादि से रहित होने पर यही धन लोभवृद्धि का कारण बन जाता है । प्रभु धन देते हैं, साथ ही दान की वृत्ति भी देते हैं । ३. प्रभु जीव को निर्देश करते हैं कि हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता बननेवाले पुरुष (यत्) = जब (शवसा) गति के द्वारा, सदा कर्म में लगे रहने के द्वारा [शवतिर्गतिकर्मा] (अहिम्) = [आहन्तारम्] सब प्रकार से हिंसित करनेवाले (वृत्रम्) = इस कामरूप वृत्र को (अवधीः) = तू नष्ट करता है (आत् इत्) = तब ही (दृशे) = तत्त्वदर्शन के लिए अथवा आत्म - साक्षात्कार के लिए (सूर्यम्) = ज्ञान के सूर्य को (दिवि) = मस्तिष्करूप द्युलोक में (आरोहयः) = तू आरूढ़ करता है । वासनारूप मेष का आवरण हटने पर ही तो ज्ञान के सूर्य का प्रकाश चमकेगा ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभुकृपा से हमारी वासना विनष्ट हो । हमें ज्ञान प्राप्त हो और हम दानयुक्त धन को प्राप्त करें ।
विषय
वृष्टि विज्ञान का उपदेश । वृत्रवध ।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्! शत्रुहन्तः ! ( अपाम् अपिधाना ) सूर्य जिस प्रकार जलों को आकाश में रखने वाले कारणों को दूर कर देता है उसी प्रकार तू (अपाम् ) प्रजाओं और आप्त विद्वानों के ( अपिधाना ) शत्रुओं के द्वारा उत्पन्न किये बन्धनों को ( अप अवृणोः ) दूर कर । और जिस प्रकार सूर्य (पर्वते) मेघ में और पर्वत पर ( दानुमत् वसु) दान देने योग्य और जीवन प्रदान करनेवाले जल को (अधारयः ) धारण करता है । उसी प्रकार तु भी (पर्वते) पर्वत के समान गम्भीर स्थिर तथा मेघ के समान सब को निष्पक्षपात होकर सुखजनक पदार्थ देने वाले पुरुष को ( दानुमत् वसु) प्रजा के हित के लिये देने योग्य ऐश्वर्य को (अधारयः) धारण करा । और (यत्) जिस प्रकार वायु ( शवसा अहिम् अवधीः ) बल से मेघ को आघात करता है और ( आत् सूर्यम् दृशे दिवि आरोहयः ) अनन्तर सब को प्रकाश से दिखाने के लिये सूर्य को मध्य आकाश में स्थापित करता है उसी प्रकार हे सेनापते ! तू ( शवसा ) बलपूर्वक ( अहिम् ) सब ओर से आघात करने वाले शत्रु, दस्यु आदि को (अवधीः) नाश कर और (आत्) उसके पश्चात् (दिवि) न्याय प्रकाशन के पद, राजसभा के ऊपर ( दृशे ) व्यवहारों के देखने और न्याय के मार्ग को दर्शाने के लिये (सूर्यम्) सूर्य के समान तेजस्वी और ज्ञानवान् पुरुष को (आरोहयः) उच्च पद पर स्थापित कर । परमेश्वर—जलों को वर्षाता है वह पर्वत में पाने योग्य बहु मूल्य रत्न उत्पन्न करता । बलसे आवरक ज्ञान को दूर करता और सूर्य को आकाश में प्रकाश के लिये स्थापित करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १, ९, १० जगती २, ५, ८ विराड् जगती । ११–१३ निचृज्जगती ३, ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६,७ त्रिष्टुप् ॥ पंचदशर्चं सूक्तम् ।
विषय
फिर वह जगदीश्वर किसके समान क्या करे, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे इन्द्र ! यत् त्वम् अपिधाना सूर्य इव शत्रुबन्धनानि अपावृणोः दूरीकरोषि यथा अयं रविः पर्वते मेघे जलं दानुमत् वसु अधारयन् सन् वृत्रं विद्युत् इव शत्रून् इत् अवधीः किरणाः सूर्यम् इव दृशे न्यायम् अरोहयः तस्मात् त्वं राज्यं कर्त्तुम् अर्हसि ॥ ४ ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्यवन्=परम ऐश्वर्यवान् ईश्वर ! (यत्) यस्मात्=क्योंकि, (त्वम्) सभेश=सभा के स्वामी, [(शवसा) बलेन]=बल से, [(अपाम्) जलानाम्]= जलों के, (अपिधाना) अपिधानान्यावरणानि=आवरण को अर्थात् बादलों को, (सूर्य)=सूर्य के, (इव)=समान, (शत्रुबन्धनानि) = शत्रुओं के बन्धनों को, (अप) दूरीकरणे दूरीकरोषि=दूर करता है [और] [(अधारयः) धारयसि]=धारण करते हो, (अवृणोः) = स्वीकार करो, (यथा)=जैसे, (अयम्)=यह, (रविः)=सूर्य, (पर्वते) मेघे=बादल में, [(आत्) अनन्तरम्]=बाद में, (जलम्)= जल को, (दानुमत्) मेघम्=मेघ, (वसु) =वृक्ष, (अधारयन्)=धारण, (सन् )=करते हुए, (वृत्रम्)=मेघ, (विद्युत्)= विद्युत् के, (इव) =समान, (शत्रून्)=शत्रुओं को, (इत्) एव=ही, (अवधीः) हिन्धि=मारता है, (किरणाः)=किरणें, (दिवि) प्रकाशे= प्रकाश के, (इव) =समान, (दृशे) द्रष्टुं दर्शयितुं वा=दिखाई देती हैं, (न्यायम्) = न्याय के मार्ग पर, (अरोहयः) रोहयसि=बढ़ते हो, (तस्मात्)=इसलिये, (त्वम्)=तुम, (राज्यम्)= राज्य, (कर्त्तुम्)=करने के, (अर्हसि)=योग्य हो ॥ ४ ॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों में योग्यता है कि जिस ईश्वर ने इस सब जगत् को आकर्षण शक्ति से अन्तरिक्ष में स्थापित करके, वर्षा कराकर सबको प्रकाशित करके सुखों को देता है, उस सूर्य को ईश्वर ने रच कर स्थापन किया है, ऐसा जानें ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्यवान् ईश्वर ! (यत्) क्योंकि, (त्वम्) सभा के स्वामी [(शवसा)] बल से [(अपाम्)] जलों के (अपिधाना) आवरण को अर्थात् बादलों को (सूर्य) सूर्य के (इव) समान, (शत्रुबन्धनानि) शत्रुओं के बन्धनों को (अप) दूर करता है [और ऐसा तुम] [(अधारयः)] धारण करते हो, [तुम यह] (अवृणोः) स्वीकार करो। (यथा) जैसे (अयम्) यह (रविः) सूर्य (पर्वते) बादल में [(आत्) अनन्तरम्] बाद में (जलम्) जल को (दानुमत्) मेघ (वसु) वृक्ष (अधारयन्) धारण (सन्) करते हुए (विद्युत्) विद्युत् के (इव) समान (शत्रून्) शत्रुओं को (इत्) ही (अवधीः) =मार देता है। (किरणाः) किरणें (दिवि) प्रकाश के (इव) समान (दृशे) दिखाई देती हैं। (न्यायम्) न्याय के मार्ग पर (अरोहयः) बढ़ते हो, (तस्मात्) इसलिये (त्वम्) तुम (राज्यम्) राज्य (कर्त्तुम्) करने के (अर्हसि) योग्य हो ॥ ४ ॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) सभेश (अपाम्) जलानाम् (अपिधाना) अपिधानान्यावरणानि (अवृणोः) वृणुयाः (अप) दूरीकरणे (अधारयः) धारयसि। (पर्वते) मेघे (दानुमत्) मेघम् (यत्) यस्मात् (इन्द्र) परमैश्वर्य्यवन् (शवसा) बलेन (अवधीः) हिन्धि (अहिम्) सर्वत्र व्याप्तुमर्हं मेघम् (आत्) अनन्तरम् (इत्) एव (सूर्यम्) (दिवि) प्रकाशे (आ) समन्तात् (अरोहयः) रोहयसि (दृशे) द्रष्टुं दर्शयितुं वा ॥ ४ ॥ विषयः- पुनः स कीदृशः किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे इन्द्र ! यत्त्वमपिधाना सूर्य इव शत्रुबन्धनान्यपावृणोर्दूरीकरोषि यथायं रविः पर्वते मेघे जलं दानुमद् वस्वधारयन् सन् वृत्रं विद्युदिव शत्रूनिदवधीः किरणाः सूर्यमिव दृशे न्यायमरोहयस्तस्मात् त्वं राज्यं कर्त्तुमर्हसि ॥ ४ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्याणां योग्यतास्ति येनेश्वरेण यः सर्वान् लोकानाकृष्यान्तरिक्षे स्थाप्य वर्षयित्वा सर्वान् प्रकाश्य च सुखानि ददातीदृशं सूर्य्यं निर्माय स्थापित इति वेदितव्यम् ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी हे जाणावे की जो मेघाचे छेदन, आकर्षण करून अंतरिक्षात स्थापन करून वृष्टी करवितो व सर्वांना प्रकाशित करून सुख देतो त्या सूर्याला ईश्वराने निर्माण केलेले आहे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The vapours hold up the wealth of waters in the cloud. Indra, you open up the cloud-hold of waters when you break up the cloud with the thunderbolt. And then you raise up the divine and brilliant sun high up in space for the world to see.
Subject of the mantra
Then what should that god do like whom, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra) =having much opulence God, (yat) =because, (tvam) =lord of the gathering, [(śavasā)] =by power, [(apām)] =to waters, (apidhānā)= to the cover i.e. to the clouds, (sūrya) =of the Sun, (iva) =like, (śatrubandhanāni) = the shackles of enemies, (apa)= puts away, [aura aisā tuma]=and such you, [(adhārayaḥ)] =possess,, [tuma yaha]=you this, (avṛṇoḥ)=accept, (yathā) =like, (ayam) =this, (raviḥ)=Sun, (parvate) =in the clouds, [(āt) anantaram] =afterwards, (jalam) =to the water, (dānumat) =cloud, (vasu) =tree, (adhārayan) =hold, (san) =doing, (vidyut) =of the thunder, (iva) =like, (śatrūn) =to enemies, (it) =only, (avadhīḥ) =kills, (kiraṇāḥ) =rays, (divi) =of the light, (iva) =like, (dṛśe) =appear, (nyāyam) =on the way to justice, (arohayaḥ) =go forward, (tasmāt) =therefor, (tvam) =you, (rājyanam) =to rain, (karttum) =of ruling, (arhasi) =are capable.
English Translation (K.K.V.)
O most glorious God! Because the master of the gathering removes the cover of waters i.e. clouds like the Sun removes the bonds of the enemies and you are holding this, you accept this. Just like this Sun kills the enemies like lightning while holding the cloud in tree and later water in the cloud. Rays appear like light. You move on the path of justice, that's why you are eligible to rule.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Human beings have the ability to know that the God who established this entire world in space with the power of attraction, causes rain, illuminates everyone and gives happiness, has created and established the Sun.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is he (Indra) and what should he do is taught further in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) O Indra (President of the Assembly) as thou removest the shackles of the enemies as the sun takes off all covering of the water, like the sun bearing the life-giving water in the cloud or the mountain, thou givest wealth to a man who is firm like the hills. As the lightning strikes the cloud, thou strikest down the enemy with thy might. As the rays exhibit the sun in the sky, so that people may see him, in the same manner, thou manifestest justice for all to see. Therefore thou art fit to rule. (2) The Mantra is also applicable to God who establishes the sun in the sky for all to see. It is He who destroys all internal enemies by giving power to His devotees to resist them and gives happiness. Rishi Dayananda refers clearly to this spiritual interpretation in the Bhavartha or purport given below.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should know that it is God who has created the sun that attracts all the worlds, and causes rain and gives happiness to all by illuminating them. (The President of the Assembly should imitate God in discharging his duties and should be full of splendor and mighty like the sun.)
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