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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 51/ मन्त्र 12
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    आ स्मा॒ रथं॑ वृष॒पाणे॑षु तिष्ठसि शार्या॒तस्य॒ प्रभृ॑ता॒ येषु॒ मन्द॑से। इन्द्र॒ यथा॑ सु॒तसो॑मेषु चा॒कनो॑ऽन॒र्वाणं॒ श्लोक॒मा रो॑हसे दि॒वि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । स्म॒ । रथ॑म् । वृ॒ष॒ऽपाने॑षु । ति॒ष्ठ॒सि॒ । शा॒र्या॒तस्य॑ । प्रऽभृ॑ताः । येषु॑ । मन्द॑से । इन्द्र॑ । यथा॑ । सु॒तऽसो॑मेषु । चा॒कनः॑ । अ॒न॒र्वाण॑म् । श्लोक॑म् । आ । रो॒ह॒से॒ । दि॒वि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ स्मा रथं वृषपाणेषु तिष्ठसि शार्यातस्य प्रभृता येषु मन्दसे। इन्द्र यथा सुतसोमेषु चाकनोऽनर्वाणं श्लोकमा रोहसे दिवि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। स्म। रथम्। वृषऽपानेषु। तिष्ठसि। शार्यातस्य। प्रऽभृताः। येषु। मन्दसे। इन्द्र। यथा। सुतऽसोमेषु। चाकनः। अनर्वाणम्। श्लोकम्। आ। रोहसे। दिवि ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 51; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र विद्वन् सभाध्यक्ष ! यस्मात्त्वं यथा विद्वांसः पदार्थविद्यां सम्यगेत्य सुखानि प्राप्नुवन्ति ये शार्य्यातस्य येषु सुतसोमेषु वृषपाणेषु व्यवहारेषु प्रभृतास्तथैतान् प्राप्य मन्दसेऽनर्वाणं रथं श्लोकमातिष्ठसि चाकन दिव्यारोहसे तस्मात्त्वं योग्योऽसि ॥ १२ ॥

    पदार्थः

    (आ) अभितः (स्म) एव (रथम्) विमानादिकम् (वृषपाणेषु) ये वृषन्ति पोषयन्ति ते वृषाः सोमादयः पदार्थास्तेषां पानेषु (तिष्ठसि) (शार्य्यातस्य) यो वीरसमूहं शरितुं हिंसितुं योग्यान् समन्तान्निरन्तरमतति व्याप्नोति तस्य मध्ये। अत्र शृधातोर्ण्यत् अतधातोरच् प्रत्ययः। (प्रभृताः) प्रकृष्टतया धृताः (येषु) उत्तमगुणेषु पदार्थेषु। (मन्दसे) हर्षसि (इन्द्र) उत्कृष्टैश्वर्य्ययुक्त (यथा) येन प्रकारेण (सुतसोमेषु) सुता निष्पादिताः सोमा उत्तमा रसा येभ्यस्तेषु (चाकनः) कामयसे (अनर्वाणम्) अग्न्याद्यश्वसहितं पश्वाद्यश्वरहितम्। अर्वेत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं०१.१४) (श्लोकम्) सर्वावयवैः संहितां वाचम् (आ) समन्तात् (रोहसे) (दिवि) द्योतनात्मके सूर्यप्रकाशयुक्तेऽन्तरिक्ष इव न्यायप्रकाशे ॥ १२ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। नहि विमानादियानैर्विद्वत्सङ्गेन च विना कस्यचित्सुखं सम्भवति तस्माद्विद्वत्सभां पदार्थज्ञानोपयोगौ च कृत्वा सर्वैरानन्दितव्यम् ॥ १२ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) उत्तम ऐश्वर्यवाले सभाध्यक्ष ! जिससे तू (यथा) जैसे विद्वान् लोग पदार्थविद्या को सिद्ध करके सुखों को प्राप्त होते और जो (शार्यातस्य) वीर पुरुष के (येषु) जिन (सुतसोमेषु) उत्तम रसों से युक्त (वृषपाणेषु) पुष्टि करनेवाले सोमलतादि पदार्थों अर्थात् वैद्यक शास्त्र की रीति से अति श्रेष्ठ बनाये हुए उत्तम व्यवहारों में (प्रभृताः) धारण किये हों, वैसे उनको प्राप्त होके (मन्दसे) आनन्दित होने और (अनर्वाणम्) अग्नि आदि अश्वसहित, पशु आदि अश्वरहित (श्लोकम्) सब अवयवों से सहित रथ के मध्य (स्म) ही (आतिष्ठसि) स्थित और उस की (चाकनः) इच्छा करते हैं और (दिवि) प्रकाशरूप सूर्य्यलोक में (आरोहसे) आरोहण करते हो (स्म) इसलिये आप योग्य हो ॥ १२ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। विमानादि यान वा विद्वानों के सङ्ग के विना किसी मनुष्य को सुख नहीं हो सकता। इससे विद्वानों के सभा वा पदार्थों के ज्ञान के उपयोग से सब मनुष्यों को आनन्द में रहना चाहिये ॥ १२ ॥

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    विषय

    सोमरक्षण के साधन व परिणाम

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में जीव के इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनने का उल्लेख था । उसी का विस्तार करते हुए कहते हैं कि (वृष - पाणेषु) = सोम के पान के निमित्त (स्म) = निश्चय से (रथम्) = इस शरीररूप रथ को (आतिष्ठसि) = तू पूर्णरूप से अधिष्ठित करता है । वस्तुतः अपने पर पूर्ण काबू किये बिना शरीर में उत्पन्न सोम का रक्षण सम्भव भी तो नहीं । २. ये सोमकण (शार्यातस्य) = [शरितुं हिंसितुं योग्याः कामादयः, तान् अतति आक्रामति] नष्ट करने योग्य कामादि पर आक्रमण करनेवाले के जीवन में ही (प्रभृताः) = प्रकर्षेण भृत होते हैं । सोमकणों की रक्षा वही कर पाता है जो कामादि पर निरन्तर आक्रमण करके इन्हें नष्ट करने के लिए यत्नशील रहता है । (येषु) = जिन सोमकणों के सुरक्षित होने पर (मन्दसे) = तू हर्ष का अनुभव करता है अथवा जिन सोमकणों की रक्षा के निमित्त तू प्रभु का स्तवन करता है [मन्द् - to praise] | ३. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष (यथा) = जैसे तू (सुतसोमेषु) = इन उत्पन्न सोमकणों में (चाकनः) = कामनावाला होता है, उसी प्रकार तू (दिवि) = प्रकाश में (अनर्वाणम्) = हिंसित न होनेवाले (श्लोकम्) = यश को (आरोहसे) = प्राप्त करता है । वस्तुतः जितनी - जितनी सोम की रक्षा होती है, उतना - उतना ही ज्ञान का प्रकाश बढ़ता है और मनुष्य यशस्वी कार्यों को करनेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - सोमरक्षण के लिए आवश्यक है कि हम शरीररूपी रथ पर पूर्ण नियन्त्रण रक्खें, कामादि वासनाओं पर आक्रमण करनेवाले हों, प्रभुस्तवन की वृत्तिवाले हों । सोमरक्षण का परिणाम होगा कि हमारे ज्ञान का प्रकाश बढ़ेगा और हम यशस्वी जीवनवाले होंगे ।

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    विषय

    शार्यात अनर्वा श्लोक

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) शत्रुओं के नाशक और ऐश्वर्य के स्वामिन्! तू जब (वृषपाणेषु) मेघ के समान शरवर्षण करनेवाले वीर पुरुषों के योग्य बलकारी ऐश्वर्यों, रसों, पदार्थों के पान और उपभोग और प्राप्ति और परिपालन के अवसरों में (रथम्) रथ पर (आतिष्ठसि स्म) जमकर बैठता । और (येषु) जिनके बल पर तू ( मन्दसे) सब आनन्द विनोद प्राप्त करता या युद्ध में प्रयाण करता है वे भी (शार्यातस्य) शरों से मारने योग्य, शत्रुओं के बीच में विचरने के अवसर, संग्राम आदि के लिए (प्रभृता) अच्छी प्रकार वेतन और अन्न द्वारा भरण पोषण किये जायं । ( यथा ) जिस प्रकार से तू (सुतसोमेषु) अभिषेक द्वारा प्राप्त ऐश्वर्यों या अभिषिक्त राजाओं के बीच (अनर्वाणम्) प्रतिद्वन्दी वीर से रहित, अद्वितीय राष्ट्रको (चाकनः) प्राप्त करना चाहता है। उसी प्रकार (दिवि) राजसभा और विज्ञानों के बीच भी ( श्लोकम् ) स्तुति वाणी को या स्तुति योग्य यश,ख्याति या उत्तम पद को (आरोहसे) प्राप्त कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १, ९, १० जगती २, ५, ८ विराड् जगती । ११–१३ निचृज्जगती ३, ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६,७ त्रिष्टुप् ॥ पंचदशर्चं सूक्तम् ।

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    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे इन्द्र विद्वन् सभाध्यक्ष ! यस्मात् त्वं यथा विद्वांसः पदार्थविद्यां सम्यक् एत्य सुखानि प्राप्नुवन्ति ये शार्य्यातस्य येषु सुतसोमेषु वृषपाणेषु व्यवहारेषु प्रभृताः तथा एतान् प्राप्य मन्दसे अनर्वाणं रथं श्लोकम् आ तिष्ठसि चाकन दिव्य आरोहसे तस्मात् त्वं योग्यः असि ॥ १२ ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) उत्कृष्टैश्वर्य्ययुक्त= उत्कृष्ट ऐश्वर्य्य युक्त, (विद्वन्)= विद्वान्, (सभाध्यक्ष)= सभाध्यक्ष ! (यस्मात्)=क्योंकि, (त्वम्)=तुम, (यथा) येन प्रकारेण=जिस प्रकार से, (विद्वांसः)= विद्वान्, (पदार्थविद्याम्)= पदार्थ विद्या को, (सम्यक्)= सम्यक् रूप से, (एत्य)=प्राप्त करके, (सुखानि)=सुख, (प्राप्नुवन्ति)= प्राप्त करते हैं, (ये)=जो, (शार्य्यातस्य) यो वीरसमूहं शरितुं हिंसितुं योग्यान् समन्तान्निरन्तरमतति व्याप्नोति तस्य मध्ये=जो वीरों के समूह हर ओर से निरन्तर फैलते हैं, उनके बीच से (येषु) उत्तमगुणेषु पदार्थेषु= उत्तम गुणों के पदार्थों में से, (सुतसोमेषु) सुता निष्पादिताः सोमा उत्तमा रसा येभ्यस्तेषु=सोम से निचोड़े हुए रस को, (वृषपाणेषु) ये वृषन्ति पोषयन्ति ते वृषाः सोमादयः पदार्थास्तेषां पानेषु=सोम आदि पदार्थों के रस को पीने के, (व्यवहारेषु)= व्यवहार में, (प्रभृताः) प्रकृष्टतया धृताः=प्रकृष्ट रूप से धारण किये हुए, (तथा)=वैसे ही, (एतान्)=इनको, (प्राप्य)=प्राप्त करके, (मन्दसे) हर्षसि= हर्षित होता है, (अनर्वाणम्) अग्न्याद्यश्वसहितं पश्वाद्यश्वरहितम्=विना अश्व और पशु के अग्नि शक्ति से चलनेवाले, (रथम्) विमानादिकम्= विमान आदि, (श्लोकम्) सर्वावयवैः संहितां वाचम्=सब अवयवों के द्वारा जुड़ी हुई वाणी को, (आ) अभितः=हर ओर से, [दिवि] द्योतनात्मके सूर्यप्रकाशयुक्तेऽन्तरिक्ष इव न्यायप्रकाशे=चमक रहे सूर्य के प्रकाश से युक्त अन्तरिक्ष के प्रकाश के समान न्याय के प्रकाश में, (तिष्ठसि)=स्थापित हो। (चाकनः) कामयसे=कामना करते हो, (दिव्य)= दिव्य, (आरोहसे)= आरोहण से, (तस्मात्)=इसलिये, (त्वम्)=तुम, (योग्यः)= योग्य, (असि)=हो ॥१२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। विमान आदि यानों के द्वारा विद्वानों की सङ्गति के विना किसी को सुख सम्भव नहीं हो सकता है। इसलिये विद्वानों की सभा को पदार्थों के ज्ञान का उपयोग करके सब मनुष्यों को आनन्दित होना चाहिये ॥१२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (इन्द्र) उत्कृष्ट ऐश्वर्य्य युक्त (विद्वन्) विद्वान् (सभाध्यक्ष) सभाध्यक्ष ! (यस्मात्) क्योंकि (त्वम्) तुम (यथा) जिस प्रकार से (विद्वांसः) विद्वान् हो और (पदार्थविद्याम्) पदार्थ विद्या को (सम्यक्) सम्यक् रूप से (एत्य) प्राप्त करके (सुखानि)सुखों को (प्राप्नुवन्ति) प्राप्त करते हैं, (ये) जो (शार्य्यातस्य) वीरों के समूह हर ओर से निरन्तर फैलते हैं, उनके बीच से (येषु) उत्तम गुणों के पदार्थों में से (सुतसोमेषु) सोम से निचोड़े हुए रस को (वृषपाणेषु) पीने के (व्यवहारेषु) व्यवहार में (प्रभृताः) प्रकृष्ट रूप से धारण किये हुए हैं, (तथा) वैसे ही (एतान्) इनको (प्राप्य) प्राप्त करके (मन्दसे) हर्षित होते हो। (अनर्वाणम्) विना अश्व और पशु के, अग्नि शक्ति से चलनेवाले (रथम्) विमान आदि (श्लोकम्) सब अवयवों के द्वारा जुड़ी हुई वाणी को (आ) हर ओर से [दिवि] चमक रहे सूर्य के प्रकाश से युक्त अन्तरिक्ष के प्रकाश के समान न्याय के प्रकाश में (तिष्ठसि) स्थापित होकर (चाकनः) कामना करते हुए (दिव्य) दिव्य, (आरोहसे) आरोहण के लिये, (तस्मात्) इसलिये (त्वम्) तुम (योग्यः) योग्य (असि) हो ॥१२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) अभितः (स्म) एव (रथम्) विमानादिकम् (वृषपाणेषु) ये वृषन्ति पोषयन्ति ते वृषाः सोमादयः पदार्थास्तेषां पानेषु (तिष्ठसि) (शार्य्यातस्य) यो वीरसमूहं शरितुं हिंसितुं योग्यान् समन्तान्निरन्तरमतति व्याप्नोति तस्य मध्ये। अत्र शृधातोर्ण्यत् अतधातोरच् प्रत्ययः। (प्रभृताः) प्रकृष्टतया धृताः (येषु) उत्तमगुणेषु पदार्थेषु। (मन्दसे) हर्षसि (इन्द्र) उत्कृष्टैश्वर्य्ययुक्त (यथा) येन प्रकारेण (सुतसोमेषु) सुता निष्पादिताः सोमा उत्तमा रसा येभ्यस्तेषु (चाकनः) कामयसे (अनर्वाणम्) अग्न्याद्यश्वसहितं पश्वाद्यश्वरहितम्। अर्वेत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं०१.१४) (श्लोकम्) सर्वावयवैः संहितां वाचम् (आ) समन्तात् (रोहसे) (दिवि) द्योतनात्मके सूर्यप्रकाशयुक्तेऽन्तरिक्ष इव न्यायप्रकाशे ॥१२॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे इन्द्र विद्वन् सभाध्यक्ष ! यस्मात्त्वं यथा विद्वांसः पदार्थविद्यां सम्यगेत्य सुखानि प्राप्नुवन्ति ये शार्य्यातस्य येषु सुतसोमेषु वृषपाणेषु व्यवहारेषु प्रभृतास्तथैतान् प्राप्य मन्दसेऽनर्वाणं रथं श्लोकमातिष्ठसि चाकन दिव्यारोहसे तस्मात्त्वं योग्योऽसि ॥ १२ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। नहि विमानादियानैर्विद्वत्सङ्गेन च विना कस्यचित्सुखं सम्भवति तस्माद्विद्वत्सभां पदार्थज्ञानोपयोगौ च कृत्वा सर्वैरानन्दितव्यम् ॥१२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. विमान इत्यादी यान व विद्वानांच्या संगतीशिवाय कोणत्याही माणसाला सुख मिळू शकत नाही. त्यामुळे विद्वानांची सभा व ज्ञानाचा उपयोग करून सर्व माणसांनी आनंदात राहावे. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, in the soma-celebrations of humanity you ride the chariot of glory won by the brave and the intelligent and rejoice in the celebrations. And as you rejoice in the delightful celebrations of blessed achievements, you pilot the celestial car worthy of praise and ascend to the heights of heaven.

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    Subject of the mantra

    Then how is that chairman of the gathering, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra)= full of opulence, (vidvan) scholar, (sabhādhyakṣa) =chairman, (yasmāt) =because, (tvam)=you, (yathā)=in the manner, (vidvāṃsaḥ) =are scholar and, (padārthavidyām) = the material science, (samyak) =properly, (etya) =obtaining, (sukhāni) =to the delight, (prāpnuvanti) =obtain, (ye) =those, (śāryyātasya)=groups of heroes spread continuously from all sides, from among them, (yeṣu)=of the best quality materials, (sutasomeṣu)=to the juice squeezed from Soma, (vṛṣapāṇeṣu) =for drinking, (vyavahāreṣu) =in practice, (prabhṛtāḥ)= are beautifully possessing, (tathā) =in the same way, (etān) =to these, (prāpya) =having obtained, (mandase)=become happy, (anarvāṇam) =without horses and animals, moving on the power of fire, (ratham) =aircrafts etc., (ślokam)=speech connected through all components, (ā)=from all sides,e [divi] =In the light of justice like the light of space with the light of the shining Sun, (tiṣṭhasi) =being positioned, (cākanaḥ) =desiring, (divya) =devine, (ārohase)=to climb, (tasmāt) =therefore, (tvam) =you, (yogyaḥ) =eligible, (asi) =are.

    English Translation (K.K.V.)

    O learned speaker of excellent opulence! Because of the way you are learned and attain happiness by properly acquiring material knowledge, from among the groups of heroes who spread incessantly on all sides, drinking the juice squeezed from Soma from the substances of the best qualities. You have imbibed it excellently in your behaviour, similarly you become happy after receiving it. Wishing for the divine ascent, being established in the light of justice, like the light of space with the light of the Sun shining from all sides, without horses and animals, and joined by all the elements like aircraft moving on the power of fire, etc. That's why you are worthy.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra.Happiness cannot be possible for anyone without the association of scholars through aircraft etc. That's why all human beings should be happy by using the knowledge of substances in the assembly of scholars.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How' should he (Indra) be is taught further in the 12th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (learned President of the Assembly), as learned persons enjoy happiness having acquired the knowledge of Physics and other sciences, so thou sit test in a car like aero plane etc. and enjoyest the drink of Soma ( essence of various nourishing herbs and plants) prepared by brave soldiers and noble virtues and substances. Thou mountest thy chariot without horses (animals) but endowed with the fire, electricity etc. quite willingly. Thy speech is refined and perfect. Like the firmament illuminated by the sun, thou shinest in the light of justice.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रथम् ) विमानादिरथम् = Vehicle like the aero plane etc. ( वृषपानेषु ) ये वृषन्ति पोषयन्ति ते वृषा: सोमादयः पदार्था: तेषां पानेषु । = On the occasion of drinking. Soma and other nourishing articles and juices. ( शार्यातस्य ) यो वीरसमूहं शरितुं हिंसितुं योग्यान् समन्तान् निरन्तरम् अतति व्याप्नोति तस्य मध्ये अत्र शृधातोर्ण्यत् । अत धातोः अच् प्रत्ययः = In the midest of brave persons. ( अनर्वाणम् ) अग्न्याद्यश्वसहितं पश्वाद्यश्वरहितम् । अर्वैत्यश्वनाम ( निघ० १.१४) = Horseless but endowed with fire and electricity etc.( दिवि ) द्योतनात्मके सूर्ये प्रकाशयुक्ते अन्तरिक्ष इव न्यायप्रकाशे = In the light of justice like the firmament illuminated with the light of the sun. (श्लोकम् ) सर्वावयव-संहितां वाचम् = Refined and perfect speech.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    None can enjoy happiness without the use of aero planes and other vehicles and the association with the learned persons. Therefore one should enjoy bliss by organizing the conferences of highly learned persons and by the knowledge and application of physics and other sciences.

    Translator's Notes

    रथो रमते रममाणोऽस्मिन् तिष्ठतीतिवा (निरुबते ९.११ ) शृ-हिसायाम् अत-सातत्यगमने श्लोक इति वाङ्नाम (निघ० १.११) It is wrong on the part of Sayanacharya, Wilson and Griffith to take Sharyata as the proper noun or name of a particular Rajarshi and try to explain the Mantra on the basis of an absurd myth proving the jealous nature of Indra, being angry with a Rishi's praise of Ashvins. Such absurd myths should be rejected altogether. There is no reference to them in the text. The word शर्वात Sharyata has been explained by Rishi Dayananda etymologically as यो वीरसमूहं शरितु हिंसितु योग्यान् समन्तात् निरन्तरम् अतति व्याप्नोति तस्य मध्ये । It may also mean शर्माभिः अंगुलिभि: निवृत्तानि कर्माणि शार्याणि तानि अतति व्याप्नोति स शार्वात: शर्वा इत्यंगुलिनाम ( निघ० २.५ ) = A brave and active person. (Sec Rishi Dayananda's commentary on Yaj. 7.35). शार्यातस्य योद्धु: मानवस्य यजमानस्य शरवत् शर्योऽपि बाणार्थ वेदे शर्यो योद्धा च बाणैः । आर्यः - अरणशीलो नित्योपयोगी यजमानः सर्वोऽपि यज्ञशत्रुभिर्योद्धा भवतीति कपालिशास्त्रिणां टिप्पणी द्रष्टव्या = This note given by the great scholar Shri Kapali Shastri substantiates the interpretation given by Rishi Dayananda.

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