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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 51/ मन्त्र 6
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वं कुत्सं॑ शुष्ण॒हत्ये॑ष्वावि॒थार॑न्धयोऽतिथि॒ग्वाय॒ शम्ब॑रम्। म॒हान्तं॑ चिदर्बु॒दं नि क्र॑मीः प॒दा स॒नादे॒व द॑स्यु॒हत्या॑य जज्ञिषे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । कुत्स॑म् । शुष्ण॒ऽहत्ये॑षु । आ॒वि॒थ॒ । अर॑न्धयः । अ॒ति॒थि॒ऽग्वाय॑ । शम्ब॑रम् । म॒हान्त॑म् । चि॒त् । अ॒र्बु॒दम् । नि । क्र॒मीः॒ । प॒दा । स॒नात् । ए॒व । द॒स्यु॒ऽहत्या॑य । ज॒ज्ञि॒षे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथारन्धयोऽतिथिग्वाय शम्बरम्। महान्तं चिदर्बुदं नि क्रमीः पदा सनादेव दस्युहत्याय जज्ञिषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। कुत्सम्। शुष्णऽहत्येषु। आविथ। अरन्धयः। अतिथिऽग्वाय। शम्बरम्। महान्तम्। चित्। अर्बुदम्। नि। क्रमीः। पदा। सनात्। एव। दस्युऽहत्याय। जज्ञिषे ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 51; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरपि सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् वीर ! यतस्त्वं पदा पदाक्रान्तं शत्रुसमूहं चिदिव शुष्णहत्येषु युद्धेषु महान्तं कुत्सं धृत्वा प्रजा आविथ शत्रूनरन्धयोऽतिथिग्वाय शुद्धमार्गायार्बुदं शम्बरं बलं निक्रमीः सनात्पदा दस्युहत्यायैव जज्ञिषे तस्मादस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) सभाध्यक्षः (कुत्सम्) वज्रादिशस्त्रसमूहम् (शुष्णहत्येषु) शुष्णानां बलानां हत्या हननं येषु संग्रामेषु। शुष्णमिति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (आविथ) रक्ष (अरन्धयः) हिन्धि (अतिथिग्वाय) अतिथीनां गमनाय। अत्रातिथ्युपपदाद् गम् धातोः बाहुलकाद् औणादिको ड्वः प्रत्ययः। (शम्बरम्) बलम्। शम्बरमिति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (महान्तम्) महागुणविशिष्टम् (चित्) इव (अर्बुदम्) असङ्ख्यातगुणविशिष्टम् (नि) नितराम् (क्रमीः) क्रमस्व (पदा) पादेन (सनात्) सम्भजनात् (एव) निश्चयार्थे (दस्युहत्याय) दस्यूनां हननं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै (जज्ञिषे) जातोऽसि जातोऽस्ति वा ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    सभाद्यध्यक्षादिभिर्यथा सूर्यस्तथा शत्रून् हत्वा श्रेष्ठान् पालयित्वा शुद्धान् मार्गान् कृत्वाऽसंख्यातं बलं धृत्वा शत्रूणां हननाय प्रभावो वर्द्धनीयः ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी अगले मन्त्र में सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् शूरवीर मनुष्य ! जिससे (त्वम्) तू (पदा) पाद से आक्रान्त हुए शत्रुसमूह को मारनेवाले के (चित्) समान (शुष्णहत्येषु) शत्रुओं के बलों के हनने योग्य व्यवहारों में (महान्तम्) महागुणविशिष्ट (कुत्सम्) वज्रादि को धारण करके प्रजा की (आविथ) रक्षा करते और दुष्टों को (अरन्धयः) मारते हो (अतिथिग्वाय) अतिथियों के जाने-आने को शुद्ध मार्ग के लिये (अर्बुदम्) असंख्यात गुणविशिष्ट (शम्बरम्) बल को (नि क्रमीः) क्रम से बढ़ाते हो (सनात्) अच्छे प्रकार सेवन करने से (पदा) पदाक्रान्त शत्रुसेना का नाश करते हो (दस्युहत्याय) शत्रुओं के मारने रूप व्यवहार के लिये (एव) ही (जज्ञिषे) उत्पन्न हुए हो, इससे हम लोग आप का सत्कार करते हैं ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    सभाध्यक्षादिकों को योग्य है कि जैसे शत्रुओं को मार, श्रेष्ठों की रक्षा, मार्गों को शुद्ध और असंख्यात बल को धारण कर शत्रुओं के मारने के लिये अत्यन्त प्रभाव बढ़ावें ॥ ६ ॥

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    विषय

    'शुष्ण, शम्बर व अर्बुद' का संहार

    पदार्थ

    १. 'शुष्ण' काम - असुर का नाम है । यह मनुष्य का शोषण करनेवाला है । काम से शक्ति का क्षय होकर मनुष्य का शोषण हो जाता है । 'कुत्स' वह ऋषि है जो काम की हिंसा के लिए सदा यत्नशील होता है ['कुथ' हिंसायाम्], परन्तु यह कुत्स स्वयं काम को थोड़े ही जीत पाता है ! 'त्वया ह स्विद् युजा वयम्' - उस प्रभु से मिलकर ही यह उसका संहार करता है, अतः कहते हैं - हे प्रभो! (त्वम्) = आप ही (शुष्णहत्येषु) = इस शोषक कामासुर का संहार होने पर (कुत्सम्) = वासनाओं को विनष्ट करनेवाले इस ऋषि को (आविथ) = सुरक्षित करते हो । २. शम्बर शान्ति को आवृत कर डालनेवाला असुर है । यह 'राग - द्वेष, घृणा व क्रूरता' के रूप में मनुष्य में उद्भूत होता है । हे प्रभो ! आप (अतिथिग्वाय) = अतिथिग्व के लिए (शम्बरम्) = इस शम्बरासुर को (अरन्धयः) = नष्ट कर डालते हैं, चीर - फाड़ देते हैं [to rend] | अतिथिम्ब वह व्यक्ति है जोकि 'विद्वान् व्रात्य' अतिथियों के स्वागत के लिए सदा गतिशील होता है । वस्तुतः जिस घर में 'श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ' विद्वान् आते - जाते रहते हैं, उस घर में लोगों की मनोवृत्ति ईर्ष्या - द्वेष से मलिन नहीं होती । ३. 'अर्बुद' [अर -‌ Little बुन्दति Sees] वह असुर है जो औरों को सदा छोटा ही देखता है, अपने को बड़ा मानता है । एवं, जिस व्यक्ति में अभिमान कूट - कूटकर भरा हो वही 'अर्बुद' है । हे प्रभो ! आप (महान्तं चित् अर्बुदम्) = धन - धान्यादि के दृष्टिकोण से अत्यन्त बढ़े हुए भी इस अभिमानी पुरुष को (पदा निक्रमीः) =‌ पाँवों तले कुचल देते हो । यह उक्ति ही बन गई है कि 'अभिमानी का सिर नीचा' [Pride goeth before a fall] ४. इस प्रकार हे प्रभो ! आप (सनात् एव) = सदा से ही (दस्युहत्याय) = इन 'काम, ईष्या व अभिमान' आदि नाशक वृत्तियों के ध्वंस के लिए (जज्ञिषे) होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुकृपा से हम 'काम, ईर्ष्या व अभिमान' से ऊपर उठे ।

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    विषय

    कुत्स की रक्षा, अतिथि के लिये शम्बर का नाश, अर्बुद का नाश

    भावार्थ

    ( त्वम् ) तू ( शुष्णहत्येषु ) प्रजा के धनों और प्राणों को अत्याचारों द्वारा पोषण और रक्त शोषण करने वाले दुष्टों के विनाश करने के अवसरों में ( कुत्सम् आविथ ) वज्र अर्थात् शस्त्रास्त्र बल को धारण कर । और ( शम्बरम् ) सूर्य या वायु जिस प्रकार मेघ को अपने तेज और वेग से आघात करता है उसी प्रकार ( शम्बरम् ) वज्र या शस्त्रों के धारण करने वाले शत्रु सैन्य को ( अरन्धयः ) पीड़ित कर । और (अतिथिग्वाय) अतिथि या पूज्य पुरुषों के गमन करने योग्य, या आश्रय लेने योग्य, उत्तम पुरुषों के हित के लिये या अतिथियों के आदर सत्कार के लिये ( महान्तं चित् अर्बुदम् ) बड़े भारी मेघ के समान दानशील, एवं असंख्यात ऐश्वर्यों और उत्तम गुणों से युक्त पद को ( पदा) अपने ज्ञान और सामर्थ्य से (नि क्रमीः) प्राप्त कर, पहुंच। और (सनात् एव) सदा ही (दस्युहत्याय) दुष्ट पुरुषों के दलन के लिये ( जज्ञिषे ) तू उत्पन्न हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १, ९, १० जगती २, ५, ८ विराड् जगती । ११–१३ निचृज्जगती ३, ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६,७ त्रिष्टुप् ॥ पंचदशर्चं सूक्तम् ।

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    विषय

    फिर भी इस मन्त्र में सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्वन् वीर ! यतः त्वं पदा पदाक्रान्तं शत्रुसमूहं चित् इव शुष्णहत्येषु युद्धेषु महान्तं कुत्सं धृत्वा प्रजा आविथ शत्रून् अरन्धयः अतिथिग्वाय शुद्धमार्गाय अर्बुदं शम्बरं बलं नि क्रमीः सनात् पदा दस्युहत्याय एव जज्ञिषे तस्मात् अस्माभिः सत्कर्त्तव्यः असि ॥ ६ ॥

    पदार्थ

    हे (विद्वन्)= विद्वान्, (वीर)=वीर ! (यतः)=क्योंकि, (त्वम्) सभाध्यक्षः= सभाध्यक्ष, (पदा) पादेन=पैर के द्वारा, (पदाक्रान्तम्)= काबू करते हुए, (शत्रुसमूहम्)= शत्रुओं के समूह के, (चित्) इव =समान, (शुष्णहत्येषु) शुष्णानां बलानां हत्या हननं येषु संग्रामेषु=जिन संग्रामों में अग्नि और बल से हत्या की जाती हैं, ऐसे (युद्धेषु)= संग्रामों में, (महान्तम्) महागुणविशिष्टम् = विशिष्ट महागुणों से, (कुत्सम्) वज्रादिशस्त्रसमूहम्= वज्र आदि शस्त्रों के समूह को, (धृत्वा)=धारण करके, (प्रजा) = प्रजा की, (आविथ) रक्ष=रक्षा करो, (शत्रून्) =शत्रुओं को, (अरन्धयः) हिन्धि=मारो, (अतिथिग्वाय) अतिथीनां गमनाय=अतिथियों के जाने के लिये, (शुद्धमार्गाय)= शुद्ध मार्ग हेतु, (अर्बुदम्) असङ्ख्यातगुणविशिष्टम् = असंख्य विशेष गुणोंसे युक्त, (शम्बरम्) बलम्= बल को, (नि) नितराम् = लगातार, (क्रमीः) क्रमस्व= निर्बाध रूप से आगे बढ़ो, (सनात्) सम्भजनात्= प्रदान करने से ही, (पदा) पादेन=पैरों के द्वारा, (दस्युहत्याय) दस्यूनां हननं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै=दस्युओं को मारने में, (एव) निश्चयार्थे=ही, (जज्ञिषे) जातोऽसि जातोऽस्ति वा=तू उत्पन्न हो, (तस्मात्)=इसलिये, (अस्माभिः)=हमारे द्वारा, (सत्कर्त्तव्यः)=उत्तम कर्त्तव्य, (असि) =होवें॥ ६ ॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    कृत भाषानुवाद सभाध्यक्ष और सूर्य आदि वैसे ही शत्रुओं को मार, श्रेष्ठों की रक्षा करके, शुद्ध मार्ग बना करके, असंख्य बलों को धारण करके, शत्रुओं के मारने के लिये प्रभावी और बढ़ानेवाले होवें ॥६॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (विद्वन्) विद्वान् (वीर) वीर ! (यतः) क्योंकि (त्वम्) सभाध्यक्ष (पदा) पैर के द्वारा (पदाक्रान्तम्) काबू करते हुए, (शत्रुसमूहम्) शत्रुओं के समूह के (चित्) समान, (शुष्णहत्येषु) जिन संग्रामों में अग्नि और बल से हत्या की जाती हैं, [ऐसे] (युद्धेषु) संग्रामों में, (महान्तम्) विशिष्ट महागुणों से (कुत्सम्) वज्र आदि शस्त्रों के समूह को (धृत्वा) धारण करके, (प्रजा) प्रजा की (आविथ) रक्षा करें। (शत्रून्) शत्रुओं को (अरन्धयः) मारें। (अतिथिग्वाय) अतिथियों के जाने के लिये (शुद्धमार्गाय) शुद्ध मार्ग हेतु (अर्बुदम्) विशेष असंख्य गुणों से युक्त (शम्बरम्) बल से (नि) लगातार (क्रमीः) निर्बाध रूप से आगे बढ़ें। (सनात्) [बल] प्रदान करने से ही (पदा) पैरों के द्वारा (दस्युहत्याय) दस्युओं को मारने में (एव) ही, (जज्ञिषे) तू उत्पन्न हो, (तस्मात्) इसलिये [ये] (अस्माभिः) हमारे द्वारा (सत्कर्त्तव्यः) उत्तम कर्त्तव्य (असि) होवें॥ ६ ॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) सभाध्यक्षः (कुत्सम्) वज्रादिशस्त्रसमूहम् (शुष्णहत्येषु) शुष्णानां बलानां हत्या हननं येषु संग्रामेषु। शुष्णमिति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (आविथ) रक्ष (अरन्धयः) हिन्धि (अतिथिग्वाय) अतिथीनां गमनाय। अत्रातिथ्युपपदाद् गम् धातोः बाहुलकाद् औणादिको ड्वः प्रत्ययः। (शम्बरम्) बलम्। शम्बरमिति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (महान्तम्) महागुणविशिष्टम् (चित्) इव (अर्बुदम्) असङ्ख्यातगुणविशिष्टम् (नि) नितराम् (क्रमीः) क्रमस्व (पदा) पादेन (सनात्) सम्भजनात् (एव) निश्चयार्थे (दस्युहत्याय) दस्यूनां हननं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै (जज्ञिषे) जातोऽसि जातोऽस्ति वा ॥६॥ विषयः- पुनरपि सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- हे विद्वन् वीर ! यतस्त्वं पदा पदाक्रान्तं शत्रुसमूहं चिदिव शुष्णहत्येषु युद्धेषु महान्तं कुत्सं धृत्वा प्रजा आविथ शत्रूनरन्धयोऽतिथिग्वाय शुद्धमार्गायार्बुदं शम्बरं बलं निक्रमीः सनात्पदा दस्युहत्यायैव जज्ञिषे तस्मादस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि ॥६॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- सभाद्यध्यक्षादिभिर्यथा सूर्यस्तथा शत्रून् हत्वा श्रेष्ठान् पालयित्वा शुद्धान् मार्गान् कृत्वाऽसंख्यातं बलं धृत्वा शत्रूणां हननाय प्रभावो वर्द्धनीयः ॥६॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सभाध्यक्षांनी शत्रूंना मारण्यासाठी व श्रेष्ठांच्या रक्षणाचे मार्ग निष्कंटक करण्यासाठी असंख्य बल धारण करावे व शत्रूंचे हनन करण्यासाठी आपला प्रभाव वाढवावा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    In the battles against exploiters and destroyers, protect the men and materials of defence. Destroy the demon and the highway man for the safety of travellers. Crush with your feet the great serpentine bubbles of poison. You always rise and stand for the destruction of the wicked enemies.

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    Subject of the mantra

    Then, in this mantra the qualities of the chairman of the assembly have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvan) =scholar, (vīra)= hero, (yataḥ) =because, (tvam) = President of the assembly, (padā) =with feet, (padākrāntam) =controlling, (śatrusamūham) =of the group of enemies, (cit) =like, (śuṣṇahatyeṣu)=In battles where fire and force kill, [aise]=such, (yuddheṣu) =in battles, (mahāntam)= with special great qualities, (kutsam)=a group of weapons like thunder bolt etc. (dhṛtvā) =holding, (prajā) =of the people, (āvitha) =protect, (śatrūn) =to enemies, (arandhayaḥ) =kill, (atithigvāya) =for the guests to go, (śuddhamārgāya)=for the pure path, (arbudam)= having many special qualities, (śambaram) =by force, (ni) =continually, (kramīḥ)=proceed seamlessly, (sanāt)= just by providing, [bala] =force, (padā) =with feet, (dasyuhatyāya)=in killing bandits, (eva) =only, (jajñiṣe) =you get born, (tasmāt) =therefore, [ye]=these, (asmābhiḥ) =by us, (satkarttavyaḥ)=good duty, (asi) =be.

    English Translation (K.K.V.)

    O learned hero! Because the President of the assembly should protect the people by controlling them with his feet, like a group of enemies, in such battles in which killing is done by fire and force, by possessing a group of weapons like thunder bolt etc. with special great qualities. Kill the enemies. For the pure path for the guests to go, move forward uninterruptedly with the special force with innumerable qualities. By providing strength, you are born only in killing the bandits with your feet, so this should be the best duty by us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the President of the Assembly are further taught in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned and brave person, in the battles whether tyrants are slain or trodden down, thou shouldst wield powerful weapons and protect thy subjects. Thou shouldst slay thy enemies. For attending upon the guests and thus treading upon the path of righteousness, thou shouldst bear great might full of innumerable virtues. Thou art born to tread with thy foot upon the thieves, robbers and other wicked people or for the destruction of the oppressors. It is for this reason that, thou art worthy of respect.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (शुष्णहत्येषु ) शुष्णानां बलानां हत्या हननं येषु संग्रामेषु शुष्णमिति बलनाम ( निघ० २.९ ) = In battles where strength is displayed. ( अतिथिग्वाय) अतिथीनां गमनाय अत्रातिथ्युपपदाद् गम्धातोर्बाहुलका दौणादिकोड्व: प्रत्ययः = For approaching or serving the guests. ( शम्बरम्) बलम् | शम्बरमिति बलनाम ( निघ० २.९) = Power or strength. ( अर्बुदम्) असंख्यातगुणविशिष्टम् = Endowed with or full of innumerable virtues.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the President of the Assembly, the Commander of the army and other officers of the State to kill their enemies like the sun dispelling darkness, to protect the righteous, to tread upon the noble path, to bear infinite might and to increase their influence to put an end to their' foes.

    Translator's Notes

    It is regrettable that Skanda Swami, Venkatamadhava, Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and many others have taken Kutsa, Shushna, Atithigva, Shambara and Arbuda as proper nouns denoting some sages, kings, or demons. But as has been pointed out before, it is against the fundamental principle of the Vedic terminology and strangely enough, opposed to the principles enunciated and supported by Skanda Swami in his commentary on the Nirukta and Sayanacharya in the introduction to his commentary on the Rigveda. The inconsistency of these great scholars of the medieval period is therefore all the more surprising and deplorable. Rishi Dayananda has interpreted some of these words like कुत्स (Kutsa) शुष्ण (Shushna ) शम्बर (Shambara) on the authority of the Vedic Lexicon which clearly states. कुत्सइति वज्रनाम ( निघ० २.२० ) = Thunderbolt or weapon. शुष्णमिति बलनाम (निघ० २.९) =Strength. शम्बरमिति बलनाम ( निघ० २.१ ) = Strength. Regarding af even Skanda Swami explains it as अतिथीन् प्रति परिचारकतया गच्छतीत्यतिथिग्वः । = He who serves the guests. The meaning given by Sayanacharya is also similar i. e. to be approached by guests. But wrongly they have taken it to mean here a king name Divodasa which word does not at all occur in the Mantra. It is gratifying to see that a great South Indian Scholar and Yogi Shri Kapali Shastri has clearly hinted at the derivative meanings of these words in his Siddhanjana Bhashya on the Rigveda. After quoting Sayanacharya's meanings he writes- अत्र कुत्सशुष्णादीनां गूढोऽर्थः ज्ञेयः | कुत्सः उक्तः । ( १. ३३.१४ ) देवद्वेषिणां शत्रूणां वा कुत्सनात् अधः करणात् कुत्सः इत्युत्पश्यामः । शुष्ण:- शोषयिता रसानाम् । अतिथिग्वाय-अतिथीनाम् अग्निप्रभृतीनां देवानां स्वस्मिन् स्थानासनादिसुखविधायक: पुरुषो यजमानो दिवो दास्ये वर्तत इति दिवो दास उच्यते । शं सुखं वृणोति सुखस्य आवरक इति । ( श्री कपालिशास्त्री सिद्धांजनभाष्ये २ य खण्डे ) पृ० २६७ । Thus he has given derivative and secret meanings of Kutsa, Shushna, Atithigva and shambara, which need not be explained at length.

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