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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 109 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 109/ मन्त्र 3
    ऋषिः - जुहूर्ब्रह्मजाया, ऊर्ध्वनाभा वा ब्राह्मः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    हस्ते॑नै॒व ग्रा॒ह्य॑ आ॒धिर॑स्या ब्रह्मजा॒येयमिति॒ चेदवो॑चन् । न दू॒ताय॑ प्र॒ह्ये॑ तस्थ ए॒षा तथा॑ रा॒ष्ट्रं गु॑पि॒तं क्ष॒त्रिय॑स्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हस्ते॑न । ए॒व । ग्रा॒ह्यः॑ । आ॒ऽधिः । अ॒स्याः॒ । ब्र॒ह्म॒ऽजा॒या । इ॒यम् । इति॑ । च॒ । इत् । अवो॑चत् । न । दू॒ताय॑ । प्र॒ऽह्ये॑ । त॒स्थे॒ । ए॒षा । तथा॑ । रा॒ष्ट्रम् । गु॒पि॒तम् । क्ष॒त्रिय॑स्य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हस्तेनैव ग्राह्य आधिरस्या ब्रह्मजायेयमिति चेदवोचन् । न दूताय प्रह्ये तस्थ एषा तथा राष्ट्रं गुपितं क्षत्रियस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हस्तेन । एव । ग्राह्यः । आऽधिः । अस्याः । ब्रह्मऽजाया । इयम् । इति । च । इत् । अवोचत् । न । दूताय । प्रऽह्ये । तस्थे । एषा । तथा । राष्ट्रम् । गुपितम् । क्षत्रियस्य ॥ १०.१०९.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 109; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अस्याः) इस वेदत्रयी का (आधिः) भलीभाँति  धारण करने योग्य या आत्मा में आधान करने योग्य ज्ञानविषय (हस्तेन-एव ग्राह्यः) साक्षात् अध्ययन से ही हस्तगत करना चाहिए (इयं ब्रह्मजाया) यह ब्रह्म परमात्मा से जायमान कन्या है या ब्रह्म-ब्राह्मण के प्रथम अवस्था में ब्रह्मचारी की जाया पत्नी है सहयोगिनी है (इति च-इत्-अवोचन्) और ऐसा ही ऋषि कहते उपदेश देते हैं (एषा दूताय प्रह्ये न तस्थे) यह वेदत्रयी प्रेरित-भेजे दूत के लिए अपने को प्रकाशित नहीं करती, जैसे कोई राजा अपने स्थान पर दूत को भेजे कि तुम मेरे लिये वेदकथा सुन आओ यज्ञ करो (तथा क्षत्रियस्य राष्ट्रं गुपितम्) ऐसा करने पर स्वयं पढ़ने पर राजा का राष्ट्र रक्षित होता है ॥३॥

    भावार्थ

    वेद का अध्ययन स्वयं साक्षात् करने से प्रकाशित होता है, प्रतिनिधि द्वारा नहीं। राजा का राष्ट्र भी स्वयं ज्ञानी होने से सुरक्षित होता है ॥३॥

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    विषय

    स्वाध्याय से कष्ट निवारण

    पदार्थ

    [१] जिस समय लोग परमात्मा-सी दी गई इस वेदवाणी को (इयं ब्रह्मजाया) = 'यह ब्रह्म का प्रादुर्भाव व प्रकाश करनेवाली है' (इति) = इस प्रकार (चेत्) = यदि (अवोचन्) = उच्चारित करते हैं तो (अस्या:) = इस ब्रह्मजाया के (हस्तेन) = हाथ से, आश्रय से ही (आधि:) = सब दुःख [bane, eurse, misery] (ग्राह्य:) = वश में करने योग्य होता है । हमने इस ब्रह्मजाया का हाथ पकड़ा और हमारे सब कष्ट दूर हुए। [२] (एषा) = यह ब्रह्मजाया (प्रह्यो) = [प्रहिताया] भेजे हुए (दूताय) = दूत के लिए (न तस्थे) = स्थित नहीं होती । अर्थात् इसे स्वयं न पढ़कर किसी और से इसका पाठ कराते रहने से ही पुण्य नहीं प्राप्त हो जाता । (क्षत्रियस्य) = एक क्षत्रिय का (राष्ट्रम्) = राष्ट्र भी तो तथा उसी प्रकार (गुपितम्) = रक्षित होता है। राष्ट्र की रक्षा भी राजा स्वयं सावधान व जागरित होकर ही कर पाता है दूसरों को शासन सौंपकर भोग-विलास में पड़े रहनेवाला राजा कभी राष्ट्र को रक्षित नहीं कर पाता। इसी प्रकार वेदवाणी को स्वयं पढ़नेवाला ही वेद से लाभान्वित होता है। स्वयं अध्ययन ही जीवन को उन्नत करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्वाध्याय मनुष्य ने स्वयं करना है। यह स्वाध्याय उसके सब कष्टों को दूर करेगा ।

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    विषय

    प्रकृति ब्रह्मजाया का वर्णन।

    भावार्थ

    (अस्याः आधिः) इसका सब ओर से वशीकृत स्वरूप (हस्तेन) हाथ के समान व्यापक बल से ही (ग्राह्यः) ग्रहण करने योग्य है। विद्वान् जन इसका (ब्रह्म-जाया इति च) महान् परमेश्वर की, वा महान् विश्व रूप पुत्र की उत्पादक जाया के समान ही (अवोचन्) उपदेश करते हैं। (एषा) वह प्रकृति (दूताय) संतापकारी, अन्य अवान्तर कारक के वा (प्रह्ये) प्रेरक के अधीन (न तस्थे) विद्यमान न थी। प्रत्युत उसी सर्वशक्तिमान् की प्रेरणा के अधीन थी (तथा) उस प्रकार से (क्षत्रियस्य) बल, वीर्यशाली परमेश्वर का (राष्ट्रम्) देदीप्यमान तेज, बलशाली राजा के राष्ट्र के समान ही (गुपितम्) सुरक्षित रहता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्जुहूर्ब्रह्मजायोर्ध्वनाभा वा ब्राह्मः। विश्वेदेवा देवताः। छन्दः-१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४, ५ त्रिष्टुप्। ६, ७ अनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अस्याः-आधिः) अस्याः खलु वेदत्रय्याः-आधातव्यः समन्ताद् धारणीयं आधानकरणीयो वा ज्ञानविषयः (हस्तेन-एव ग्राह्यः) साक्षादध्ययनेनैव ग्राह्यो हस्तगतः कर्त्तव्यः (ब्रह्मजाया इयम्-इति च-इत्-अवोचन्) इयं ब्रह्मणः परमात्मनो जायमाना कन्या तस्माज्जायमानत्वाद् यद्वा ब्राह्मणस्य प्रथमवयसि ब्रह्मचारिणो जायेति ह्यृषयो वदन्ति-उपदिशन्ति (एषा दूताय प्रह्ये न तस्थे) इयं वेदत्रयी प्रेरिताय दूताय न तिष्ठति यथा कश्चिद् राजा स्वयं नाधीत्य दूतं प्रेष्यति त्वं मम स्थाने वेदश्रवणं कुरु यजस्व वा तथा कारिताय राज्ञे नात्मानं प्रकाशयति “प्रकाशन-स्थेयाख्ययोश्च” [अष्टा० १।३।२३] इत्यात्मनेपदं तथा (क्षत्रियस्य राष्ट्रं गुपितम्) तथा राज्ञो राष्ट्रं गुपितं रक्षितं भवति वेदज्ञानश्रवणेनेत्यर्थः ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The received form of this divine Vak is to be practically received by hard discipline. “This is the child of heaven,” this having been said, “This is not for communication without practice,” this is the important injunction. It does not wait for any one, it does not stand still, it moves on. Its meaning is hidden like the state of the dominion of a ruler.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेदाचे अध्ययन स्वत: साक्षात करण्याने ज्ञान प्रकट होते, प्रतिनिधीद्वारे नाही. राजाचे राज्यही स्वत: ज्ञानी झाल्यास सुरक्षित राहते. ॥३॥

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