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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 109 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 109/ मन्त्र 4
    ऋषिः - जुहूर्ब्रह्मजाया, ऊर्ध्वनाभा वा ब्राह्मः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दे॒वा ए॒तस्या॑मवदन्त॒ पूर्वे॑ सप्तऋ॒षय॒स्तप॑से॒ ये नि॑षे॒दुः । भी॒मा जा॒या ब्रा॑ह्म॒णस्योप॑नीता दु॒र्धां द॑धाति पर॒मे व्यो॑मन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वाः । ए॒तस्या॑म् । अ॒व॒द॒न्त॒ । पूर्वे॑ । स॒प्त॒ऽऋ॒षयः॑ । तप॑से । ये । नि॒ऽसे॒दुः । भी॒मा । जा॒या । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । उप॑ऽनीता । दुः॒ऽधाम् । द॒धा॒ति॒ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तऋषयस्तपसे ये निषेदुः । भीमा जाया ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धां दधाति परमे व्योमन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवाः । एतस्याम् । अवदन्त । पूर्वे । सप्तऽऋषयः । तपसे । ये । निऽसेदुः । भीमा । जाया । ब्राह्मणस्य । उपऽनीता । दुःऽधाम् । दधाति । परमे । विऽओमन् ॥ १०.१०९.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 109; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पूर्वे देवाः) पूर्व विद्वान् अग्नि आदि वेदप्रकाशक ऋषि (एतस्याम्) इस वेदत्रयी में निष्णात (अवदन्त) इसका उपदेश करते हैं (सप्त ऋषयः) सप्त जिसमें प्रविष्ट मन्त्रद्रष्टा विद्वान् (ये तपसे निषेदुः) जो ब्रह्मचर्यरूप तप के लिए स्थिर रहते हैं (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मचारी की (भीमा जाया) भयङ्करी पाप नष्ट करनेवाली जायारूपी वेदत्रयी (उपनीता) उपनयन संस्कार से प्राप्त गुरु से पढ़ी हुई (दुर्धाम्) दुर्धा-दुर्धारणा-तप से धारण करने योग्य (परमे व्योमन्) ब्रह्मचारी को परम व्यापक परमेश्वर में या मोक्ष में (दधाति) धारण कराती है-स्थापित करती है ॥४॥

    भावार्थ

    वेदत्रयी का उपदेश अग्नि आदि परम ऋषियों द्वारा मिलता है, ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले ब्रह्मचर्यनिष्ठ होकर मन्त्रार्थों को जाननेवाले ऋषि इसे जानते हैं और जनाते हैं, यह ब्रह्मचारी के पाप नष्ट करनेवाली उपनयन संस्कार द्वारा गुरु से प्राप्त होती है, उसे वह परमात्मा में या मोक्ष में पहुँचाती है ॥४॥

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    विषय

    देवों तथा ऋषियों के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (पूर्वे देवा:) = सृष्टि के प्रारम्भ में होनेवाले 'पूर्वे चत्वारः' अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा नामक देव तथा (सप्त ऋषयः) = सात ऋषि [महर्षयः सप्त ] (एतस्याम्) = इस ब्रह्मजाया के विषय में, वेदवाणी के विषय में (अवदन्त) = परस्पर वार्ता करते हैं, आपस में मिलकर ज्ञान की ही चर्चा करते हैं। वे ऋषि (ये) = जो (तपसे) = तप के लिए (निषेदुः) = निश्चय से आसीन होते हैं, अर्थात् जो अपना जीवन तपस्यामय बिताते हैं । तपस्या के बिना ज्ञान प्राप्ति का सम्भव ही नहीं। [२] (ब्राह्मणस्य) = उस ज्ञान पुञ्ज प्रभु की (जाया) = यह वेदवाणीरूप पत्नी उपनीता समीप प्राप्त करायी जाने पर (भीमा) = शत्रुओं के लिए भयंकर होती है। जब हम इसकी आराधना के द्वारा हृदय को प्रकाशमय करते हैं तो यह काम-क्रोधादि शत्रुओं का विध्वंस करनेवाली होती है। उसके शत्रुओं के लिए यह भयंकर होती है जो (दुर्धाम्) = कठिनता से, तीव्र तप के द्वारा धारण करने योग्य इसको परमे (व्योमन्) = उत्कृष्ट हृदयाकाश में दधाति धारण करता है। हम हृदयों में इसे धारित करते हैं तो यह हमारे शत्रुओं का विध्वंस कर देती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ–देव तथा ऋषि तपस्या के द्वारा वेदवाणी को प्राप्त करते हैं। यह उनके शत्रुओं का विध्वंस करती है। वस्तुतः इसके धारण से ही देवत्व व ऋषित्व प्राप्त होता है ।

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    विषय

    सात ऋषि, सात देवगण, सात प्राण, प्रकृति की महती शक्ति और परमेश्वर की ओम् शक्ति द्वारा प्रकृति का धारण।

    भावार्थ

    (ये) जो (एतस्याम्) इसमें (पूर्वे) पूर्व ही विद्यमान, (सप्त-ऋषयः) सात ज्ञान निदर्शक, कारण रूप तत्त्व, या ज्ञानवान् तत्वदर्शी ऋषि (तपसे निषेदुः) तप के लिये विराजे वे (देवाः) देव, प्रकाशमान तत्त्व या विद्वान् जन इस प्रकृति के समबन्ध में (अवदन्त) बतलाते हैं कि (ब्राह्मणस्य) ब्रह्म, परमेश्वर की शक्ति से उत्पन्न संसार की (जाया) उत्पन्न करने वाली, परमेश्वर की पत्नी के तुल्य प्रकृति (उप-नीता) समीप प्राप्त होकर (भीमा) अति भयानक है, वह विशाल अति शक्तिशालिनी है। वह प्रभु (परमे वि-ओमन्) परम व्योम, परम रक्षा, वल पर ही उस (दुर्धाम्) दुर्धारणीय विशाल प्रकृति को (दधाति) धारण करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्जुहूर्ब्रह्मजायोर्ध्वनाभा वा ब्राह्मः। विश्वेदेवा देवताः। छन्दः-१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४, ५ त्रिष्टुप्। ६, ७ अनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पूर्वे देवाः-एतस्याम्-अवदन्त) पूर्वे विद्वांसः-अग्निप्रभृतयः-एतस्यां वेदत्रय्यां निष्णाताः खल्वेतां वेदत्रयीमुपदिशन्ति (सप्त ऋषयः) सृप्ताः-अस्यां प्रविष्टा मन्त्रद्रष्टारो विद्वांसः (ये तपसे निषेदुः) ये ब्रह्मचर्यव्रताय निषीदन्ति “ब्रह्मचर्येण तपसा” (ब्राह्मणस्य भीमा जाया) ब्राह्मणस्य ब्रह्मचारिणो भयङ्करी पापनाशिनी जाया वेदत्रयी (उपनीता) उपनयनसंस्कारेण प्राप्ता गुरोः सकाशादधीता (दुर्धाम्) दुर्धा सुस्थाने “अम् विभक्तिव्यत्ययेन” दुर्धारणा तपसा धारणीया सा (परमे व्योमन् दधाति) तं ब्राह्मणं ब्रह्मचारिणं परमे खलूत्कृष्टे व्यापके ब्रह्मणि मोक्षे वा “ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्” [ऋ० १।१६४।३९] “व्योमनि व्योमवद् व्यापके-ब्रह्मणि” [ऋ० १।१४३।२ दयानन्दः] धारयति-स्थापयति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The divinities of eternal time and seven ancient sages who sit down for tapas and cosmic yajna speak and communicate this. It is the mighty companion of the devotee of Brahman received through discipline of celibacy and initiation. Brhaspati, lord of Infinity holds this sublime Vak in infinite space and time.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेदत्रयीचा उपदेश अग्नी इत्यादी परम ऋषीद्वारे मिळतो. ब्रह्मचर्याचे पालन करून ब्रह्मचर्यनिष्ठ राहून मंत्रार्थ जाणणारे ऋषी हे सर्व जाणतात व जाणवून देतात. हे ज्ञान ब्रह्मचाऱ्याचे पाप नष्ट करणाऱ्या उपनयन संस्कारातून गुरुद्वारे प्राप्त होते व त्याला परमात्म्यात किंवा मोक्षात पोचविते. ॥४॥

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