ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 109/ मन्त्र 5
ऋषिः - जुहूर्ब्रह्मजाया, ऊर्ध्वनाभा वा ब्राह्मः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ब्र॒ह्म॒चा॒री च॑रति॒ वेवि॑ष॒द्विष॒: स दे॒वानां॑ भव॒त्येक॒मङ्ग॑म् । तेन॑ जा॒यामन्व॑विन्द॒द्बृह॒स्पति॒: सोमे॑न नी॒तां जु॒ह्वं१॒॑ न दे॑वाः ॥
स्वर सहित पद पाठब्र॒ह्म॒ऽचा॒री । च॒र॒ति॒ । वेवि॑षत् । विषः॑ । सः । दे॒वाना॑म् । भ॒व॒ति॒ । एक॑म् । अङ्ग॑म् । तेन॑ । जा॒याम् । अनु॑ । अ॒वि॒न्द॒त् । बृह॒स्पतिः॑ । सोमे॑न । नी॒ताम् । जु॒ह्व॑म् । न । दे॒वाः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मचारी चरति वेविषद्विष: स देवानां भवत्येकमङ्गम् । तेन जायामन्वविन्दद्बृहस्पति: सोमेन नीतां जुह्वं१ न देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मऽचारी । चरति । वेविषत् । विषः । सः । देवानाम् । भवति । एकम् । अङ्गम् । तेन । जायाम् । अनु । अविन्दत् । बृहस्पतिः । सोमेन । नीताम् । जुह्वम् । न । देवाः ॥ १०.१०९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 109; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवाः) हे विद्वानों ! (ब्रह्मचारी विषः) ब्रह्मचारी ब्रह्मयज्ञ में व्याप्त होकर (वेविषत्) परमात्मा की अर्चना करता हुआ (चरति) विचरता है (सः-देवानाम्) वह विद्वानों के मध्य में (एकम्-अङ्गं भवति) केवल एक अङ्ग होता है (तेन बृहस्पतिः) इस हेतु वेदवाणी का स्वामी होता हुआ (न) और-अब (सोमेन नीतां जुह्वम्) ब्राह्मण वेदाचार्य से प्राप्त कराई वेदवाणीरूप (जायाम्-अनु अविन्दत्) जाया-पत्नी को प्राप्त करता है, यज्ञ बिना पत्नी के सफल नहीं होता है, ऐसे ब्रह्मयज्ञ भी वेदवाणीरूप पत्नी के बिना सफल नहीं होता है, इसलिए यज्ञ का दो अङ्गों द्वारा होना बन जाता है ॥५॥
भावार्थ
ब्रह्मचारी ब्रह्मयज्ञ में प्रविष्ट होने को परमात्मा की स्तुति करता हुआ विद्वानों की दृष्टि में एकाङ्ग होता है, पुनः गुरु से अध्ययन करके वेदवाणीरूप जाया को प्राप्त करता है, पुनः ब्रह्मयज्ञ करने में सफल हो जाता है, जैसे होमयज्ञ करने में पत्नी के साथ सफल हो जाता है ॥५॥
विषय
ब्रह्मचारी व गृहस्थ
पदार्थ
[१] (ब्रह्मचारी) = ज्ञान में विचरण करनेवाला, ब्रह्मचर्याश्रम का पालन करनेवाला, (विषः) = व्यापक विज्ञानों को [विष व्याप्तौ ] (वेविषत्)= व्याप्त करता हुआ चरति गति करता है। इस आश्रम में वह अधिक-से-अधिक ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। इस ज्ञान प्राप्ति के लिए ही (सः) = वह (देवानाम्) = देवों का (एकं अंगम्) = एक अंग भवति हो जाता है। देव अंगी हैं, तो यह उनका अंग होता है। उनके प्रति अपने को गौण कर देता है, उनके कहने के अनुसार चलता है । 'मातृदेवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव' = माता, पिता व आचार्य उसके देव होते हैं। उनके आज्ञापालन में चलता हुआ यह उत्कृष्ट ज्ञानी बनता है । [२] (तेन) = उस देवताओं के अंग बनने से यह (जायाम्) = ब्रह्मजाया को, वेदवाणी को (अन्वविन्दत्) = प्राप्त करता है। वेदवाणी को प्राप्त करने के कारण ही यह 'बृहस्पतिः' [बृहत्याः पतिः ] = बृहती वेदवाणी का पति बनता है। [३] यह उस ब्रह्मजाया को प्राप्त करता है, जो (सोमेन नीताम्) = [स+ उमा - ब्रह्मविद्या] ब्रह्मविद्या से युक्त सौम्य स्वभाववाले आचार्य से प्राप्त करायी गयी है। उस प्रकार प्राप्त करायी गई है, (न) = जैसे (देवा:) = देव (जुह्वम्) = जुहू, अर्थात् यज्ञ - चमस को प्राप्त कराते हैं। देव यज्ञों की प्रेरणा को देते हुए जैसे हाथों में चम्मच का ग्रहण करते हैं, अर्थात् कर्मेन्द्रियों से यज्ञादि उत्तम कर्मों को कराते हैं, उसी प्रकार सोम ब्रह्मजाया को प्राप्त कराके ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान- प्रवण करते हैं । [४] प्रस्तुत मन्त्र में प्रसंगवश ब्रह्मचर्याश्रम व गृहस्थाश्रम का सुन्दर संकेत हुआ है । ब्रह्मचारी माता आदि देवों की अधीनता में चलता हुआ ऊँचे से ऊँचा ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान प्राप्त करके बृहस्पति बनकर यह गृहस्थ बनता है और वेद के स्वाध्याय को न छोड़ता हुआ यज्ञशील बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम ब्रह्मचर्याश्रम में खूब ज्ञान प्राप्त करें और गृहस्थ में यज्ञशील हों ।
विषय
व्यापक, परमेश्वर प्रकृति में उसका स्वामी है।
भावार्थ
(ब्रह्मचारी) महान् ब्रह्माण्ड में व्यापक वह परमेश्वर (विषः वेविषत्) व्याप्त होने योग्य समस्त प्रकृति के परमाणुओं में व्यापक होता हुआ (चरति) सर्वत्र विद्यमान रहता है। (सः) वह (देवानां) प्रकाश से युक्त समस्त सूर्य, जल, पृथिवी आदि तत्वों का (एकम्) एक अद्वितीय (अङ्गम् भवति) प्रकाशक होता है। (तेन) इसी कारण से वह (बृहस्पतिः) बड़े ब्रह्माण्ड, वा महती शक्ति का पालक प्रभु ही (जायाम्) स्त्री को ब्रह्मचारी के तुल्य, प्रकृति को (अनु अविन्दत्) अपने अनुकूल रूप से प्राप्त करता है। (न) और उस (जुह्वं) अग्नि, जल, पृथिवी, वायु आदि तत्व रूप से ग्रहण की हुई (सोमेन) उस जगद्-उत्पादक प्रभु से (नीतां) वश की हुई को हे (देवाः) विद्वान् जनो ! आप लोग (अनु अविन्दत) ध्यान योग से, ज्ञान से साक्षात् कर उसका उपदेश करो। वा उस प्रभु का अनुकरण कर के पत्नी आदि का ग्रहण करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्जुहूर्ब्रह्मजायोर्ध्वनाभा वा ब्राह्मः। विश्वेदेवा देवताः। छन्दः-१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४, ५ त्रिष्टुप्। ६, ७ अनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवाः) हे विद्वांसः ! (ब्रह्मचारी-विषः-वेविषत्-चरति) ब्रह्मचारी ब्रह्मयज्ञे विषः-व्याप्तः-सन् परमात्मानं स्तुवन् “वेवेष्टि-अर्चतिकर्मा” [निघ० २।८] विचरति (सः-देवानाम्-एकम्-अङ्गम्-भवति) स देवानां विदुषां मध्ये केवलमेकमङ्गं भवति (तेन-बृहस्पतिः) तेन हेतुना स बृहती वाक् तस्याः पतिर्भवन् (न) अथ च “न सम्प्रत्यर्थे” [निरु० ६।८] (सोमेन नीतां जुह्वं जायाम्-अन्वविन्दत्) ब्राह्मणेन वेदाचार्येण गुरुणा “सोमो ब्राह्मणः” [तां० २३।१६।५] प्रापितां वेदवाचम् “वाग्जुहूः” [तै० आ० २।१७।२] जायां पत्नीं लभते यज्ञो न पत्न्या विना सफलो भवति ब्रह्मयज्ञोऽपि वेदवाचा पत्न्या विना न सफलो भवतीति द्व्यङ्गता यज्ञस्य भवति ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The Brahmachari, dedicated to this sublime subject, goes on pursuing the discpline of the divine voice and, internalising it, becomes one of, and with, the nature and presence of the Devas. And thereby, O sages, the scholar obtains the Word and the wedded wife escorted to him by the blissful somaic preceptor like the ghrta ladle for yajnic offering and achievement.
मराठी (1)
भावार्थ
ब्रह्मचारी ब्रह्मयज्ञात प्रविष्ट होतो व परमेश्वराची स्तुती करतो; परंतु विद्वानांच्या दृष्टीने एकांगी असतो. गुरूकडून अध्ययन करून वेदवाणीरूपी जाया प्राप्त करतो व नंतर ब्रह्मयज्ञ करण्यात सफल होतो, जसा पत्नीबरोबर होमयज्ञ करून सफल होतो. ॥५॥
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