ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 109/ मन्त्र 6
ऋषिः - जुहूर्ब्रह्मजाया, ऊर्ध्वनाभा वा ब्राह्मः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
पुन॒र्वै दे॒वा अ॑ददु॒: पुन॑र्मनु॒ष्या॑ उ॒त । राजा॑नः स॒त्यं कृ॑ण्वा॒ना ब्र॑ह्मजा॒यां पुन॑र्ददुः ॥
स्वर सहित पद पाठपुनः॑ । वै । दे॒वाः । अ॒द॒दुः॒ । पुनः॑ । म॒नु॒ष्याः॑ । उ॒त । राजा॑नः । स॒त्यम् । कृ॒ण्वा॒नाः । ब्र॒ह्म॒ऽजा॒याम् । पुनः॑ । द॒दुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनर्वै देवा अददु: पुनर्मनुष्या उत । राजानः सत्यं कृण्वाना ब्रह्मजायां पुनर्ददुः ॥
स्वर रहित पद पाठपुनः । वै । देवाः । अददुः । पुनः । मनुष्याः । उत । राजानः । सत्यम् । कृण्वानाः । ब्रह्मऽजायाम् । पुनः । ददुः ॥ १०.१०९.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 109; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सत्यं कृण्वानाः) जीवन को सत्य सफल करते हुए (देवाः-वै) मुमुक्षु विद्वान् निश्चय से (ब्रह्मजायां पुनः-ददुः) वेदवाणी को स्वयं ग्रहण करके फिर अन्यों को देते हैं (उत) और (मनुष्याः) साधारण जन (पुनः-ददुः) वेदवाणी को स्वयं ग्रहण करके पुनः अन्यों को देते हैं (राजानः) राजा जन-शासक जन (पुनः-ददुः) वेदवाणी को स्वयं ग्रहण करके फिर अन्य को देते हैं ॥६॥
भावार्थ
मुमुक्षु विद्वज्जन दुसरे शासकजन तथा साधारण मनुष्यजन स्वयं वेदवाणी को ग्रहण करके अन्यों को देते हैं और देते रहना चाहिए, यह परम्परा जीवन को सफल बनाने के लिए आवश्यक है ॥६॥
विषय
वानप्रस्थ
पदार्थ
[१] (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष, गृहस्थ की समाप्ति पर (वै) = निश्चय से (पुनः) = फिर (अददुः) = इस ब्रह्मजाया को औरों के लिए देनेवाले होते हैं । इस प्रकार वानप्रस्थ अपने पाठनरूप नियत कर्म को करता है । (उत) = और (मनुष्याः) = ये विचारशील पुरुष (पुनः) = फिर इस वेदवाणी को देते हैं। 'मत्वाकर्माणि सीव्यति' विचार करके ही कर्मों को करनेवाले ये लोग गृहस्थ से ऊपर उठते हैं और वनस्थ होकर स्वयं स्वाध्याय करते हुए औरों को ज्ञान देते हैं। [२] (राजानः) = बड़े व्यवस्थित [ = regulated] जीवनवाले ये लोग (सत्यम्) = सत्य को (कृण्वानाः) = करते हुए, अर्थात् अपने जीवनों में सत्याचरणवाले होते हुए और सत्य प्रभु को प्रकट करते हुए (ब्रह्मजायाम्) = इस वेदवाणी को (पुनः ददुः) = फिर से औरों के लिए देने लगते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- वानप्रस्थ का मुख्य कार्य इस ज्ञान को औरों के लिए देना है। इस कार्य के लिए इन्हें 'देव, मनुष्य व राजा' बनना है। देववृत्ति का बनकर ये अपने को ज्ञान ज्योति से दीप्त करते हैं। मनुष्य बनकर विचारपूर्वक कर्म करते हैं और राजा बनकर ये अपने जीवन को बड़ा नियन्त्रित करनेवाले होते हैं।
विषय
प्रकृति का विद्वानों द्वारा पुनः पुनः त्याग। पुनः पुनः आत्मा की मुक्ति और बन्ध।
भावार्थ
(सत्यं कृण्वानाः) सत्य का उपदेश वा सत्य ब्रह्म का ज्ञान करते हुए (देवाः) विद्वान् मनुष्य (उत मनुष्याः) और मननशील विद्वान् जन (उत राजानः) और तेजस्वी पुरुष (ब्रह्मजायां) परमेश्वर की सर्वोत्पादक प्रकृति को (पुनः पुनः पुनः ददुः) बार बार त्यागते हैं। वे सत्य ज्ञान प्राप्त करके इस प्रकृति-बन्धन से पुनः २ मुक्त होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्जुहूर्ब्रह्मजायोर्ध्वनाभा वा ब्राह्मः। विश्वेदेवा देवताः। छन्दः-१ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४, ५ त्रिष्टुप्। ६, ७ अनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सत्यं कृण्वानाः) जीवनं सत्यं सफलं कुर्वाणाः (देवाः-वै ब्रह्मजायां पुनः-ददुः) मुमुक्षवो विद्वांसो निश्चयेनेमां वेदवाचं स्वयं गृहीत्वा पुनरन्येभ्यः प्रयच्छन्ति (उत) अपि (मनुष्याः-पुनः-ददुः) मनुष्याः संसारे प्रवर्तमाना जना वेदवाचं स्वयं गृहीत्वा पुनरन्येभ्यः प्रयच्छन्ति (राजानः-पुनः-ददुः) राजानो वेदवाचं स्वयं गृहीत्वा पुनरन्येभ्यः प्रयच्छन्ति ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Noble teachers and scholars continuously go on teaching the Vedic voice and noble people conduct the yajnic programmes of education. Rulers and brilliant men of knowledge and generous disposition serving the divine truth carry on the propagation of the holy Word and its extension in practice and application.
मराठी (1)
भावार्थ
मुमुक्षू विद्वान लोक, दुसरे शासक व साधारण लोक स्वत: वेदवाणीला ग्रहण करून इतरांना देत असतात, त्यांनी देत राहावे. ही परंपरा जीवन सफल बनविण्यासाठी आवश्यक आहे. ॥६॥
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