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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 127 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 127/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कुशिकः सौभरो, रात्रिर्वा भारद्वाजी देवता - रात्रिस्तवः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    निरु॒ स्वसा॑रमस्कृतो॒षसं॑ दे॒व्या॑य॒ती । अपेदु॑ हासते॒ तम॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    निः । ऊँ॒ इति॑ । स्वसा॑रम् । अ॒कृ॒त॒ । उ॒षस॑म् । दे॒वी । आ॒ऽय॒ती । अप॑ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । हा॒स॒ते॒ । तमः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्यायती । अपेदु हासते तम: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    निः । ऊँ इति । स्वसारम् । अकृत । उषसम् । देवी । आऽयती । अप । इत् । ऊँ इति । हासते । तमः ॥ १०.१२७.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 127; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवी-आयती) रात्रि देवी आती हुई (उषसं स्वसारम्) रात्रि के पीछे आनेवाली उसकी सहयोगिनी उषा प्रभातवेला को (निर् अकृत) संस्कृत करती है-सुशोभित करती है (तमः-इत्-उ-अप हासते) अन्धकार भी हट जाता है उषाकाल में ॥३॥

    भावार्थ

    रात्रि आती है तो उसके पीछे चलती हुई भगिनी जैसी उषा के आने पर रात्रि का अन्धकार भाग जाता है, उषा की शोभा रात्रि के आश्रय पर है ॥३॥

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    विषय

    अन्धकार विनाश

    पदार्थ

    [१] यह (देवी) = हमारे स्वाप का हेतुभूत रात्री [ दिव् स्वप्ने] (आयती) = समन्तात् गति करती हुई, आगे और आगे बढ़ती हुई, (स्वसारं उषसम्) = अपनी बहिन के तुल्य उषा का लक्ष्य करके (उ) = निश्चय से (निः अस्कृत) = स्थान को खाली कर देती है। रात्रि समाप्त होती है और उषा आती है । [२] इस उषा के आने पर (इत् उ) = निश्चय से (तमः अवहासते) = अन्धकार विनष्ट हो जाता है। वस्तुतः जीवन में भ्रान्ति के कारण जो उत्साह का अभाव हो गया था, वह रात्रि में सोकर शक्ति प्राप्ति के द्वारा, फिर से प्राप्त हो जाता है । प्रातः हम उठते हैं और अपने में फिर से उस उत्साह का अनुभव करते हैं । यही अन्धकार विनाश का भाव है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - रात्रि धीमे-धीमे आगे बढ़ती हुई उषा के लिए स्थान खाली करती है, अन्धकार विनष्ट हो जाता है। इसी प्रकार हमारे जीवनों में अनुत्साह का अन्धकार समाप्त होता है और उत्साह का प्रकाश फिर से दीप्त हो उठता है ।

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    विषय

    रात्रि के दृष्टान्त से जगत्-शासिका प्रभुशक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    वह (आयती देवी) चारों ओर यत्न करने वाली, सर्वसञ्चालक सर्वप्रकाशक प्रभु शक्ति, (उषसम्) उषा के तुल्य, कान्ति वा कामना से युक्त जीव-शक्ति को (स्व-सारम् अकृत) स्वयं अपने बल से संसार मार्ग पर चलने में समर्थ बनाती है। और (तमः इत् उ अप हासते) अन्धकार को दूर करती है। जिस प्रकार गुजरती हुई रात उषा को अपनी बहिन के समान बना कर अन्धकार को दूर करती है उसी प्रकार प्रभु की शक्ति ज्ञानमयी देवी, इस कामनामयी, फलाकांक्षिणी जीव रूप चिन्मयी शक्ति को कर्म करने में स्वतन्त्र करती और वेद ज्ञान द्वारा उसका अज्ञान नाश करती है। तेज से उसके लिये जगत् को प्रकाशित करती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कुशिकः सौभरोः रात्रिर्वा भारद्वाजी। देवता—रात्रिस्तवः॥ छन्द:—१, ३, ६ विराड् गायत्री। पादनिचृद् गायत्री। ४, ५, ८ गायत्री। ७ निचृद् गायत्री॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवी-आयती) रात्रिर्देवी खल्वागच्छन्ती सती (उषसं स्वसारम्-निर्-अकृत) उषसं रात्रेः पश्चादागमनशीलामुषसं प्रभातवेलां निष्करोति-संस्करोति स्वाश्रये ह्युषसं सुशोभमानां करोति (तमः-इत्-उ-अप हासते) अन्धकारः खल्वपि-अपगच्छति दूरीभवति “ओहाङ्गतौ” लेट्लकारे सिप्; रात्रिरुषसं बलं प्रयच्छति प्रकाशनाय रात्रेरपरकाले ह्युषसः प्रशंसा भवति नान्यथा ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Coming and advancing, the night divine prepares the way for its sister dawn which then dispels the dark.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    रात्रीनंतर भगिनीप्रमाणे उषा अवतरल्यावर रात्रीचा अंधकार नाहीसा होतो. उषेची शोभा रात्रीच्या आश्रयावर आहे. ॥३॥

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