Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 127 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 127/ मन्त्र 8
    ऋषिः - कुशिकः सौभरो, रात्रिर्वा भारद्वाजी देवता - रात्रिस्तवः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    उप॑ ते॒ गा इ॒वाक॑रं वृणी॒ष्व दु॑हितर्दिवः । रात्रि॒ स्तोमं॒ न जि॒ग्युषे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । ते॒ । गाःऽइ॒व । अ॒क॒र॒म् । वृ॒णी॒ष्व । दु॒हि॒तः॒ । दि॒वः॒ । रात्रि॑ । स्तोम॑म् । न । जि॒ग्युषे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिवः । रात्रि स्तोमं न जिग्युषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । ते । गाःऽइव । अकरम् । वृणीष्व । दुहितः । दिवः । रात्रि । स्तोमम् । न । जिग्युषे ॥ १०.१२७.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 127; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (रात्रि) हे रात्रि ! (ते) तेरे लिये (गाः इव) दूध देनेवाली गौ की भाँति-जैसे घास आदि दिया जाता है, वैसे (उप आ अकरम्) होम से उपचार करता हूँ (वृणीष्व) तू इसे अनुकूल बना, हमारे लिये उससे सुखकरी हो (दिवः-दुहितः) सूर्य की कन्या (जिग्युषे) विरोधी को जीतने के इच्छुक के लिये (स्तोमम्-इव) स्तुतिसमूह के समान हव्य देता हूँ, जैसे इष्टदेव को स्तुतिसमूह को अर्पित किया जाता है, वैसे तुझे हव्य पदार्थ देता हूँ, उससे सुवासित हो ॥८॥

    भावार्थ

    रात्रि सूर्य की पुत्री के समान है उसका स्वागत करना चाहिए, होम द्वारा सायं होम करके, रोगादि विरोध पर विजय पाने के लिये ॥८॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    स्वाध्याय व स्तवन

    पदार्थ

    [१] हे (रात्रि) = मेरी रमयित्रि ! (ते उप) = तेरे समीप प्राप्त होकर (गाः इव) = इन रश्मियों की तरह [गा:] (अकरम्) = ज्ञान की वाणियों को अपने अन्दर प्राप्त करता हूँ । रात्रि का अन्तिम सिरा उषाकाल है । इस उषाकाल में जैसे प्रकाश की किरणों का प्रारम्भ होता है, इसी प्रकार मैं भी इस समय नींद को समाप्त करके ज्ञान की वाणियों का ग्रहण करनेवाला होता हूँ। [२] हे (दिवः दुहितः) = [दुह प्रपूरणे] प्रकाश का पूरण करनेवाली! हम तेरे लिए (स्तोमम्) = स्तुतिसमूह का उच्चारण करते हैं । उसी तरह उच्चारण करते हैं (न) = जैसे कि (जिग्युषे) = एक विजयशील पुरुष के लिए स्तोम को कहते हैं । तू (वृणीष्व) = उस स्तोम का सम्भजन करनेवाली हो। इस प्रातः के समय हम स्तुति - वचनों का उच्चारण करें।

    भावार्थ

    भावार्थ - रात्रि की समाप्ति पर, प्रबुद्ध होकर, हम स्तवन को करनेवाले हों और ज्ञान की वाणियों का अध्ययन करें। सूक्त का भाव यह है कि दिनभर की थकावट के बाद यदि हम घरों में निर्भय निद्रा के सुख का अनुभव कर सकें तो सब इन्द्रियों को फिर से शक्ति सम्पन्न करके हम प्रातः प्रबुद्ध होकर स्वाध्याय व स्तवन से दिन को प्रारम्भ कर सकेंगे। यदि हमारा दिन इसी प्रकार प्रारम्भ होगा तो हम 'विहव्य' होंगे, विशिष्ट आराधनावाले, विशिष्ट पुकारवाले, इस 'विहव्य' का ही अगला सूक्त है । यह विहव्य प्रार्थना करता है कि-

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रभुशक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (दिवः दुहितः) सूर्य की पुत्री उषा के समान तेज ज्ञान को देने वाली ! (ते) तेरी (गाः इव) रश्मियों के तुल्य नाना वाणियों को मैं (आ अकरम्) प्राप्त करूं। हे (रात्रि) सुख और ज्ञान देने वाली ! रात्रिवत् सुखप्रद ! मैं (जिग्युषे सोमं न) विजयशील के स्तुति वचन के समान (ते स्तोमं आ अकरम्) तेरी स्तुति करूं। इति चतुर्दशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कुशिकः सौभरोः रात्रिर्वा भारद्वाजी। देवता—रात्रिस्तवः॥ छन्द:—१, ३, ६ विराड् गायत्री। पादनिचृद् गायत्री। ४, ५, ८ गायत्री। ७ निचृद् गायत्री॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (रात्रि) हे रात्रे ! (ते गाः-इव-उप आ अकरम्) तुभ्यं दोग्ध्री गो इव घासादिना यथोपकुरुते गोस्वामी तद्वदुपचारं करोमि होमेन (वृणीष्व) त्वमनुकूलं सम्पादयास्मदर्थं तेन ससुखा भव (दिवः दुहितः) सूर्यस्य दुहितः (स्तोमं न जिग्युषे) विरोधिनं जेतुमिच्छुकाय स्तुतिसमूहमिव हव्यं प्रयच्छामि ॥८॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O night, daughter of heaven, I present this song of adoration like a gift of milch cows. Pray accept it as homage for the sake of the supplicant who is keen for victory of rest and light over the wolf and the darkness of life.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    रात्र सूर्याच्या पुत्रीप्रमाणे आहे. होमाद्वारे रोग इत्यादी विरोधावर विजय प्राप्त करण्यासाठी तिचे स्वागत केले पाहिजे. ॥८॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top