ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 127/ मन्त्र 4
ऋषिः - कुशिकः सौभरो, रात्रिर्वा भारद्वाजी
देवता - रात्रिस्तवः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
सा नो॑ अ॒द्य यस्या॑ व॒यं नि ते॒ याम॒न्नवि॑क्ष्महि । वृ॒क्षे न व॑स॒तिं वय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसा । नः॒ । अ॒द्य । यस्याः॑ । व॒यम् । नि । ते॒ । याम॑न् । अवि॑क्ष्महि । वृ॒क्षे । न । व॒स॒तिम् । वयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नविक्ष्महि । वृक्षे न वसतिं वय: ॥
स्वर रहित पद पाठसा । नः । अद्य । यस्याः । वयम् । नि । ते । यामन् । अविक्ष्महि । वृक्षे । न । वसतिम् । वयः ॥ १०.१२७.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 127; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सा) वह रात्रि (नः) हमारे लिए (अद्य) आज-प्रतिदिन कल्याणकारी हो (यस्याः-ते) जिस तेरे (यामन्) प्राप्त करने में (वयम्) हम (नि-अविक्ष्महि) सुखपूर्वक रहें (वृक्षे न) जैसे वृक्ष पर (वसतिं वयः) वास घौंसले पर निवेश करता है-रहता है, वैसे ही रात्रि सुख से सुलानेवाली हो ॥४॥
भावार्थ
रात्रि मनुष्यों के लिए कल्याणकारी आती है, जिसके आने पर मनुष्य निविष्ट हो जाते हैं, जैसे पक्षी अपने घौंसले में निविष्ट हो जाता है ॥४॥
विषय
घरों में
पदार्थ
[१] हे रात्रि ! (सा) = वह तू (अद्य) = आज (नः) = हमारी हो, (यस्याः ते) = जिस तेरे (यामन्) = आने पर (वयम्) = हम (नि अविक्ष्महि) = निश्चय से अपने घरों में प्रवेश करनेवाले होते हैं। उसी प्रकार प्रवेश करनेवाले होते हैं, (न) = जैसे कि (वयः) = पक्षी (वृक्षे) = वृक्षों पर (वसतिम्) = अपने घोंसलों में प्रवेशवाले होते हैं। [२] रात्रि आती है, और हमें कार्य से विश्राम मिलता है। अचानक रात्रि की व्यवस्था न होती तो हम कर्म करते-करते ही थककर समाप्त हो जाते। एवं रात्रि वस्तुतः हमारे लिए रमयित्री है ।
भावार्थ
भावार्थ-रात्रि आती है और विश्राम देकर हमें फिर से शक्ति सम्पन्न करनेवाली होती है ।
विषय
रात्रि के दृष्टान्त से जगत्-शासिका प्रभुशक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(यस्याः ते) जिस तेरे (यामन्) सर्वानियामक शासन या प्रबन्ध वा स्नेह-बन्धन में (नि विक्ष्महि) हम आश्रय किये हुए हैं और जिसपर (वृक्षे वयः वसतिं न) वृक्ष पर पक्षियों के तुल्य, निवास करते हैं (सा) वह तू (नः) हमें (अद्य) आज (सुतरा भव) सुख से संकट से पार उतारने वाली हो।
टिप्पणी
‘सुतरा भव’ इति पद्वयं उत्तरात षष्ठान्मन्त्रा दुत्कृष्यते।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कुशिकः सौभरोः रात्रिर्वा भारद्वाजी। देवता—रात्रिस्तवः॥ छन्द:—१, ३, ६ विराड् गायत्री। पादनिचृद् गायत्री। ४, ५, ८ गायत्री। ७ निचृद् गायत्री॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सा नः-अद्य) सा त्वं रात्रिरस्मभ्यमद्य प्रतिदिनं कल्याणकारिणी भव (यस्याः-ते-यामन् वयं नि-अविक्ष्महि) यस्यास्तव यामनि प्रापणे वयं सुखं निविशेमहि अत्र “बहुलं छन्दसि” [अष्टा० २।४।७३] इति शपो लुक् (वृक्षे न वसतिं वयः) वृक्षे वासं नीडं प्रति यथा पक्षी निविशते तथैव रात्रिरस्मदर्थं सुखशायिका भवेत् ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That night divine, on whose arrival we rest in the home like birds asleep in their nest, may, we pray, be restful and auspicious for us now.
मराठी (1)
भावार्थ
रात्र माणसाच्या कल्याणासाठी येते. जसे पक्षी आपल्या घरट्यात स्थिर होतात. तसे रात्रीमुळे माणसे स्थिर होतात. ॥४॥
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