ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 78/ मन्त्र 4
ऋषिः - स्यूमरश्मिर्भार्गवः
देवता - मरूतः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
रथा॑नां॒ न ये॒३॒॑ऽराः सना॑भयो जिगी॒वांसो॒ न शूरा॑ अ॒भिद्य॑वः । व॒रे॒यवो॒ न मर्या॑ घृत॒प्रुषो॑ऽभिस्व॒र्तारो॑ अ॒र्कं न सु॒ष्टुभ॑: ॥
स्वर सहित पद पाठरथा॑नाम् । न । ये । अ॒राः । सऽना॑भयः । जि॒गी॒वांसः॑ । न । शूराः॑ । अ॒भिऽद्य॑वः । व॒रे॒ऽयवः॑ । न । मर्याः॑ । घृ॒त॒ऽप्रुषः॑ । अ॒भि॒ऽस्व॒र्तारः॑ । अ॒र्कम् । न । सु॒ऽस्तुभः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
रथानां न ये३ऽराः सनाभयो जिगीवांसो न शूरा अभिद्यवः । वरेयवो न मर्या घृतप्रुषोऽभिस्वर्तारो अर्कं न सुष्टुभ: ॥
स्वर रहित पद पाठरथानाम् । न । ये । अराः । सऽनाभयः । जिगीवांसः । न । शूराः । अभिऽद्यवः । वरेऽयवः । न । मर्याः । घृतऽप्रुषः । अभिऽस्वर्तारः । अर्कम् । न । सुऽस्तुभः ॥ १०.७८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 78; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ये) जो जीवन्मुक्त विद्वान् (रथानाम्-अराः-न) रथ के चक्रों की शलाकाओं के समान (सनाभयः) एक बन्धनवाले एक उपास्यवाले (जिगीवांसः) जयशील (शूराः-न) शूरवीरों जैसे (अभिद्यवः) तेजस्वी (वरेयवः-न मर्याः) वरणीय परमात्मा में मिलनेवालों के समान सज्जन (घृतप्रुषः) तेज के प्रेरक (अभिस्वर्तारः) वक्ता जन (अर्कं न-सुष्टुभः) अर्चनीय परमात्मा की स्तुति करनेवालों के समान हैं, उनकी सङ्गति करनी चाहिए ॥४॥
भावार्थ
जो जीवन्मुक्त एक उपास्यवाले, पापों पर विजय पानेवाले, तेजस्वी वक्ता हैं, उनकी सङ्गति करनी चाहिए ॥४॥
विषय
चक्र के अरों के समान परस्पर बन्धु, ईश्वरोपासक हों
भावार्थ
(ये) जो (रथानां अराः न) रथों में लगे चक्र के अरों के समान (स-नाभयः) एक नाभि वा एक समान बन्धुता में बंधे हों। (जिगीवांसः शूराः न) विजयशील शूरवीरों के समान (अभि-द्यवः) सब ओर विजय करने वाले, तेजस्वी हों वे (वरे-यवः) सत् कार्य में योग देने वाले (मर्याः न) मनुष्यों के समान (घृत-प्रुषः) जलों का सेचन करने वाले (अभि स्वर्त्तारः अर्कम्) अर्चनीय परमेश्वर की साक्षात् स्तुति करने वाले (न) और (सु-स्तुभः) उत्तम उपदेष्टा, वेदज्ञ हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
स्यूमरश्मिर्भार्गवः॥ मरुतो देवता॥ छन्दः– आर्ची त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ८ त्रिष्टुप्। २, ५, ६ विराड् जगती। ७ पादनिचृज्जगती॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
मिलकर कार्य करनेवाले
पदार्थ
[१] प्राणसाधक व्यक्ति वे हैं (ये) = जो (रथानां अराः न) = रथों के अरों के समान (सनाभयः) = समान नाभि व बन्धनवाले होते हैं। जैसे रथचक्र के ओर एक नाभि में ही केन्द्रित होते हैं, उसी प्रकार ये प्राणसाधक पुरुष एक ही कार्य में अपने को केन्द्रित करके चलते हैं 'सम्यञ्चः सव्रता भूत्वा' । एक परिवार में पति-पत्नी दोनों प्राणसाधक होते हैं तो घर को मिलकर बड़ा सुन्दर बना पाते हैं । इसी प्रकार प्राणसाधकों का समाज सदा श्रेष्ठ समाज बनता है। राष्ट्र का शासकवर्ग भी इस प्राणसाधना को अपनाने से राष्ट्र को बड़ी उन्नत स्थिति में प्राप्त करानेवाला होता है । [२] ये प्राणसाधक पुरुष (जिगीवांसः सूराः न) = सदा जीतनेवाले शूरों के समान (अभिद्यवः) = अभिगत दीप्तिवाले होते हैं। इनके शरीर तेजस्विता से चमकते हैं तो इनके मस्तिष्क ज्ञान ज्योति से दीप्त होते हैं । [३] ये प्राणसाधक (वरेयवः) = वरणीय उत्तम वस्तुओं को ही अपने साथ जोड़नेवाले (मर्याः न) = मनुष्यों के समान (घृत-प्रुषः) = मलों के क्षरण व दीप्ति को अपने में पूरित करते हैं [प्रुष पूरणे] मलों के क्षरण से इनका शरीर पूर्ण स्वस्थ रहता है और ज्ञान की दीप्ति से इनका मस्तिष्क जगमगा उठता है। [४] (अर्क अभिस्वर्तारः न) = पूजनीय प्रभु का स्तवन करनेवालों के समान ये साधक (सुष्टुभः) = सदा उत्तम शब्दोंवाले होते हैं । ये सदा स्तुत्यात्मक शब्दों का ही उच्चारण करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधक मिलकर कार्य करनेवाले, शूर, स्वस्थ व दीप्त जीवनवाले होते हैं तथा स्तुत्यात्मक शब्दों का ही उच्चारण करते हैं ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ये रथानां न-अराः सनाभयः) ये जीवन्मुक्ता विद्वांसो रथस्य चक्राणामरा इव समानबन्धनाः-एकोपास्यवन्तः (जिगीवांसः शूराः न अभिद्यवः) जयशीलाः शूरा इव तेजस्विनः (वरेयवः-न मर्याः-घृतप्रुषः) वरणीये परमात्मनि मिश्रयितारस्सज्जनास्तेजः-प्रेरकाः (अभिस्वर्तारः-अर्कं न सुष्टुभः) अर्चनीयं परमात्मानं वक्तुमुपदेष्टुं शीलं येषां ते तथाभूता इव सुष्ठुस्तोतारः “सुष्टुभः शोभनस्तोता” [ऋ० ५।७५।४ दयानन्दः] ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
United in common with the centre as spokes of the wheel with the nave, lustrous like warriors thirsting for victory, liberal givers of the showers of prosperity, and soothing of speech like the holy chant of Rks, such are the Maruts for humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
जे जीवनमुक्त एक उपास्य असणारे, पापांवर विजय प्राप्त करणारे तेजस्वी वक्ते आहेत. त्यांची संगती केली पाहिजे. ॥४॥
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