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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 78 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 78/ मन्त्र 8
    ऋषिः - स्यूमरश्मिर्भार्गवः देवता - मरूतः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सु॒भा॒गान्नो॑ देवाः कृणुता सु॒रत्ना॑न॒स्मान्त्स्तो॒तॄन्म॑रुतो वावृधा॒नाः । अधि॑ स्तो॒त्रस्य॑ स॒ख्यस्य॑ गात स॒नाद्धि वो॑ रत्न॒धेया॑नि॒ सन्ति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽभा॒गान् । नः॒ । दे॒वाः॒ । कृ॒णु॒त॒ । सु॒ऽरत्ना॑न् । अ॒स्मान् । स्तो॒तॄन् । म॒रु॒तः॒ । व॒वृ॒धा॒नाः । अधि॑ । स्तो॒त्रस्य॑ । स॒ख्यस्य॑ । गा॒त॒ । स॒नात् । हि । वः॒ । र॒त्न॒ऽधेया॑नि । सन्ति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुभागान्नो देवाः कृणुता सुरत्नानस्मान्त्स्तोतॄन्मरुतो वावृधानाः । अधि स्तोत्रस्य सख्यस्य गात सनाद्धि वो रत्नधेयानि सन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽभागान् । नः । देवाः । कृणुत । सुऽरत्नान् । अस्मान् । स्तोतॄन् । मरुतः । ववृधानाः । अधि । स्तोत्रस्य । सख्यस्य । गात । सनात् । हि । वः । रत्नऽधेयानि । सन्ति ॥ १०.७८.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 78; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (2)

    पदार्थ

    (मरुतः-देवाः) हे जीवन्मुक्त विद्वानों ! तुम (नः) हमें (सुभागान्-कृणुत) अपने ज्ञान में सुभागवाले-उत्तमभागीदार करो (अस्मात् स्तोतॄन्) हम स्तुति करनेवालों को (वावृधानः) बढ़ाते हुए (सुरत्नान्) अध्यात्मरमणीय सुखवाले करो (स्तोत्रस्य-सख्यस्य अधिगात) स्तुति करने योग्य परमात्मा के साथ सखिभाव के साधन का उपदेश करो (वः-रत्नधे-यानि) तुम्हारे रत्नों के धातव्य-अन्दर प्रवेष्टव्य-स्थापनीय हैं ॥८॥

    भावार्थ

    जीवन्मुक्त विद्वानों का सङ्ग कर उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि अपने ज्ञान में भागवाले बनावें, परमात्मा के साथ मित्र-भाव हो जावे, ऐसा उपदेश करें और अध्यात्मरत्न हमारे अन्दर प्रविष्ट हो जावें ॥८॥

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    विषय

    सुभाग-सुरत्न

    पदार्थ

    [१] हे (देवाः) = प्राणसाधना से उत्पन्न सब दिव्य गुणो ! (नः) = हमें (सुभागान्) = उत्तम सेवनीय धनोंवाला तथा (सुरत्वान्) = उत्तम शरीरस्थ 'रस, रुधिर, मांस, अस्थि, मज्जा, मेदस् व वीर्य' रूप सप्त रत्नोंवाला (कृणुता) = करिये । [२] हे (वावृधानाः) = वृद्धि को प्राप्त होते हुए (मरुतः) = प्राणो ! (अस्मान् स्तोतॄन् कृणुता) = हमें आप स्तुति की वृत्तिवाला बनाइये। [२] हे मरुतो ! आप (स्तोत्रस्य) = हमारे से किये जाते हुए स्तोत्रों को तथा (सख्यस्य) = मित्रता को (अधिगात) = प्राप्त होवो । हम प्राणों का स्तवन करें और प्राणों की मित्रता को प्राप्त करें। हे प्राणो ! (वः) = आपके (रत्नधेयानि) = हमारे शरीरों में रत्नों की स्थापना रूप कार्य (सनात् हि) = चिरकाल से निश्चयपूर्वक (सन्ति) = हैं । सदा से आप हमारे में रस आदि रत्नों की स्थापना करते हो। आपकी ही कृपा से हमारे जीवनों में इन रत्नों का स्थापन होता है और हम 'सुभाग व सुरत्न' बन पाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना हमें सुभाग व सुरत्न बनाती है । गत सूक्त की तरह यह सूक्त भी प्राणसाधना के महत्त्व का सुन्दर प्रतिपादन करता है । अब प्राणसाधना के द्वारा यह 'सौचीक अग्नि वैश्वानर' बनता है, 'सूची शिल्पं अस्य' सूई जिस तरह सी देती है उसी प्रकार मिलानेवाला न कि फाड़नेवाला, प्रगतिशील, विश्वनर हितकारी । 'वैश्वानर' बनने के लिये ही यह 'सप्तिवाजम्भर' बनता है, उपासक [सप् tohonour] व उपासना द्वारा अपने में शक्ति को भरनेवाला । यह सर्वत्र प्रभु की महिमा को देखता है-

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मरुतः-देवाः) हे जीवन्मुक्ता विद्वांसः यूयम् (नः) अस्मान् (सुभागान् कृणुत) स्वज्ञाने सुभागवन्तः कुरुत (अस्मान् स्तोतॄन् वावृधानाः-सुरत्नान्) अस्मान् परमात्मस्तुतिकर्तॄन् वर्धयमाना अध्यात्मरमणीयसुखवतः कुरुत (स्तोत्रस्य सख्यस्य-अधिगात) स्तुतियोग्यस्य परमात्मना सह सखित्वसम्पादकस्य साधनस्य गातमस्मान् गायत-उपदिशत (वः-रत्नधेयानि सनात्-हि सन्ति) युष्माकम् अस्मदर्थं रत्नानां धातव्यानि-अन्तः प्रवेष्टव्यानि स्थापनीयानि हि सन्ति ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O noble and divine Maruts, vibrant scholars and sages, blazing warriors, benevolent philanthropists and relentless seekers and creators, let us be sharers with you, blest with noble jewel wealth of existence. Yourselves exalted by our adorations, exalt us, the celebrants. Come and acknowledge our song of praise, appreciation and friendship. Liberal you are, and immense are the gifts of your generosity for all time past, present and future.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवनमुक्त विद्वानांचा संग करून त्यांना प्रार्थना केली पाहिजे, की आपल्या ज्ञानात आम्हाला सहभागी करा. परमेश्वराशी मित्रभाव व्हावा, असा उपदेश करावा व अध्यात्मरत्न आमच्यामध्ये प्रविष्ट व्हावे. ॥८॥

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