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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 90 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 90/ मन्त्र 12
    ऋषिः - नारायणः देवता - पुरुषः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    ब्रा॒ह्म॒णो॑ऽस्य॒ मुख॑मासीद्बा॒हू रा॑ज॒न्य॑: कृ॒तः । ऊ॒रू तद॑स्य॒ यद्वैश्य॑: प॒द्भ्यां शू॒द्रो अ॑जायत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रा॒ह्म॒णः॑ । अ॒स्य॒ । मुख॑म् । आ॒सी॒त् बा॒हू इति॑ । रा॒ज॒न्यः॑ । कृ॒तः । ऊ॒रू इति॑ । तत् । अ॒स्य॒ । यत् । वैश्यः॑ । प॒त्ऽभ्याम् । शू॒द्रः । अ॒जा॒य॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्राह्मणः । अस्य । मुखम् । आसीत् बाहू इति । राजन्यः । कृतः । ऊरू इति । तत् । अस्य । यत् । वैश्यः । पत्ऽभ्याम् । शूद्रः । अजायत ॥ १०.९०.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 90; मन्त्र » 12
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अस्य) इस समष्टि पुरुष का (ब्राह्मणः) ब्राह्मण वर्ण (मुखम्-आसीत्) मुख है मुखस्थानीय है, जैसे मुख में गुण हैं, ऐसे सर्वकाल में नग्न रहना, तपस्वी होना, ज्ञानेन्द्रियों से युक्त होना, ज्ञानी होना तथा त्यागी होना, ऐसा ही ब्राह्मण को होना चाहिये (बाहू राजन्यः-कृतः) भुजाओं में शोधन, रक्षण व त्राण होते हैं, ऐसे क्षत्रिय में होने चाहिये (अस्य तत्-ऊरू) इस पुरुष की जङ्घाएँ वैश्य हैं अर्थात् वैश्य धन-धान्य-पशु का संग्रह करता है, यथापात्र विभाजन भी करता है (पद्भ्यां शूद्रः-अजायत) पैरों के तुल्य शूद्र होता है, पैरों के समान श्रमप्रवृत्तिवाला शूद्र है ॥१२॥

    भावार्थ

    मानवसमाज को देह के रूपक में देखना चाहिये। जैसे देह में मुख में गुण होते हैं, ज्ञान तपस्या त्याग ऐसे ब्राह्मण में होना चाहिये, जैसे भुजाओं में शोधन रक्षण त्राण गुण हैं, ऐसे क्षत्रिय में होने चाहिये, जैसे मध्य भाग उदर में अन्नादि का संग्रह और विभाजन होता है, ऐसे वैश्य में होने चाहिये, जैसे पैरों में दौड़ धूप श्रमशीलता होती है, ऐसी शूद्र में होनी चाहिये ॥१२॥

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    विषय

    ब्राह्मण-क्षत्रिय - वैश्य- - शूद्र

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि (अस्य) = इस प्रभु को धारण करनेवाले का (मुखम्) = मुख (ब्राह्मणः आसीत्) = ब्राह्मण हो जाता है, इसका मुख ब्रह्म, अर्थात् ज्ञान का प्रवचन करनेवाला बन जाता है यह मुख से ज्ञान का प्रसार करता है, अपशब्दों के बोलने का वहाँ प्रसंग ही कहाँ ? [२] इस प्रभु को धारण करनेवाले की (बाहू) = भुजाएँ (राजन्यः कृतः) = क्षत्रिय बन जाती हैं। लोक-रञ्जनात्मक कर्मों को करती हुई वे राजन्य हो जाती हैं 'सो ऽरज्यत ततो राजन्यो ऽजायत'। यह बाहुओं से औरों का रक्षण ही करता है नकि नाश। [३] (यत्) = जो (अस्य) = इसकी (ऊरू) = जाँघे हैं (तत्) = वे (वैश्यः) = वैश्य अजायत हो जाती हैं । यहाँ ऊरू 'मध्य भाग' का प्रतीक हैं। जैसे यह पेट रुधिरादि को उत्पन्न करके अंग-प्रत्यंग का पालन करता है इसी प्रकार यह धनार्जन करके सभी के हित में उसका विनियोग करता है। [४] (पद्भ्याम्) = पाँवों से यह (शूद्रः) = शूद्र अजायत हो जाता है। 'शु+उत्+र' यह शीघ्रता से उत्कृष्ट गतिवाला होता है। इसके सब कार्य शूद्र की तरह सेवात्मक होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु को धारण करनेवाला मुख से एक सच्चे ब्राह्मण की तरह ज्ञान देनेवाला होता है । बाहुओं से एक क्षत्रिय की तरह रक्षण करनेवाला बनता है । मध्य भाग से एक वैश्य की तरह धनार्जन करके सभी का पालन करता है । पाँवों से इसकी सब गतियाँ एक सच्चे शूद्र की तरह सेवात्मक होती हैं ।

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    विषय

    वर्णमय पुरुष की कल्पना।

    भावार्थ

    (ब्राह्मणः अस्य मुखम्) ब्राह्मण इसका मुख (आसीत्) है। (राजन्यः बाहूकृतः) राजन्य इसके दोनों बाहू हैं। (यद् वैश्यः) जो वैश्य है (तत्)(अस्य ऊरू) इसकी जांघें और वह पुरुष (पद्भ्यां) पैरों के भाग से (शूद्रः अजायत) शूद्र बना। अर्थात् जिस प्रकार समाज में ब्राह्मण प्रमुख, क्षत्रिय बलशाला और वैश्य संग्रही और शुद्र मेहनत करने वाले होते हैं उसी प्रकार शरीर में भी देहवान् आत्मा के भिन्न २ भागों की कल्पना विद्वानों ने की है। उसमें शिर भाग गले तक ब्राह्मण के तुल्य ज्ञान संग्रह करने वाला और अन्यों को ज्ञान मार्ग से लेजाने वाला है। बाहुएं, और छाती, शत्रु को मारने, शरीर को बचाने और वीर कर्म करने के लिये हैं और पेट और जांघ का भाग अन्न-भोजन का संग्रह वैश्य के समान करता और शरीर के अन्य अंगों को उचित रूप में पहुंचाता है, इसी प्रकार पैर शरीर को अपने ऊपर मज़दूर वा सेवकों के समान ढोते और उनकी आज्ञा पालन करते हैं। इस व्याख्यान से जन समुदाय और शरीर में अंग-समुदाय की तुलना करके चारों वर्णों के कर्त्तव्य भी वेद ने कहे हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्नारायणः॥ पुरुषो देवता॥ छन्दः–१–३, ७, १०, १२, निचृदनुष्टुप्। ४–६, ९, १४, १५ अनुष्टुप्। ८, ११ विराडनुष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अस्य) समष्टिपुरुषस्य (ब्राह्मणः मुखम्-आसीत्) ब्राह्मणो वर्णो मुखमस्ति मुखस्थानीयोऽस्ति, यथा मुखे गुणास्तथा तत्र दृश्येरन् यथा मुखं सर्वकाले नग्नं तपःशीलं सज्ञानेन्द्रियं त्यागवृत्तिं च तथा ब्राह्मणेन भवितव्यं (बाहू-राजन्यः कृतः) भुजयोः शोधनरक्षण-त्राणानि भवन्ति तथा क्षत्रियेऽपि स्युः (अस्य तत्-ऊरू यद् वैश्यः) अस्य पुरुषस्य जङ्घे मध्यवर्त्तिनी तथा वैश्यो मध्यवर्त्ती भवेत् धनधान्यपशुसंग्रहो यथापात्रं च विभजनं यत्र स वैश्यः (पद्भ्यां शूद्रः-अजायत) पद्भ्यां तुल्यः शूद्रो जातः यः पादसदृशः श्रमप्रकृतिकः स शूद्रः ॥१२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The Brahmana, man of divine vision and the Vedic Word, is the mouth of the Samrat Purusha, the human community. Kshatriya, man of justice and polity, is created as the arms of defence. The Vaishya, who produces food and wealth for the society, is the thighs. And the man of sustenance and ancillary support with labour is the Shudra who bears the burden of the human family as the legs bear the burden of the body.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मानव समाजाला देहाच्या रूपकाद्वारे पाहिजे असता देहात जसे मुखामध्ये गुण असतात तसे ज्ञान, तप, त्याग ब्राह्मणात असले पाहिजेत. भुजांमध्ये शोधन, रक्षण, त्राण गुण असतात, तसे क्षत्रियात असणे आवश्यक आहेत. जसे मध्यभागी उदरात अन्न इत्यादीचा संग्रह व विभाजन होते, तसे वैश्यामध्ये असले पाहिजे. जशी पायात श्रमशीलता असते अशी शूद्रात असली पाहिजे. ॥१२॥

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