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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 90 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 90/ मन्त्र 4
    ऋषिः - नारायणः देवता - पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    त्रि॒पादू॒र्ध्व उदै॒त्पुरु॑ष॒: पादो॑ऽस्ये॒हाभ॑व॒त्पुन॑: । ततो॒ विष्व॒ङ्व्य॑क्रामत्साशनानश॒ने अ॒भि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रि॒ऽपात् । ऊ॒र्ध्व । उत् । ऐ॒त् । पुरु॑षः । पादः॑ । अ॒स्य॒ । इ॒ह । अ॒भ॒व॒त् । पुन॒रिति॑ । ततः॑ । विष्व॑ङ् । वि । अ॒क्रा॒म॒त् । सा॒श॒ना॒न॒श॒ने इति॑ । अ॒भि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष: पादोऽस्येहाभवत्पुन: । ततो विष्वङ्व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिऽपात् । ऊर्ध्व । उत् । ऐत् । पुरुषः । पादः । अस्य । इह । अभवत् । पुनरिति । ततः । विष्वङ् । वि । अक्रामत् । साशनानशने इति । अभि ॥ १०.९०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 90; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (त्रिपात् पुरुषः) पूर्वोक्त वह अमृतरूप तीन पादों से युक्त परमात्मा (ऊर्ध्वः-उदैत्) नश्वर संसार से ऊपर स्थित है (अस्य पादः) इसका पादमात्र संसार (इह पुनः-अभवत्) इधर नश्वररूप में पुनः-पुनः उत्पन्न होता है (ततः) पश्चात् (साशनानशने-अभि) भोगसेवित-भोगनेवाले जीवात्मा को तथा भोगरहित न भोगनेवाले जड़ के प्रति (विष्वक्-व्यक्रामत्) विविध गुणवत्ता से व्याप्त होता है ॥४॥

    भावार्थ

    पूर्ण पुरुष परमात्मा अमृतरूप त्रिपाद इस संसार से ऊपर है, यह संसाररूप पाद पुनः-पुनः उत्पन्न होता है। इसके अन्दर भोगनेवाले जीव और न भोगनेवाले जड़ के अन्दर परमात्मा व्याप रहा है ॥४॥

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    विषय

    'गति का आदि स्रोत प्रभु'

    पदार्थ

    [१] (त्रिपात् पुरुषः) = त्रिपात् पुरुष (ऊर्ध्व उदैत्) = इस चराचर जगत् से ऊपर उठा हुआ है। (अस्य) = इस पुरुष का (पादः) = एक अंश ही (पुनः) = तो (इह अभवत्) = यहाँ इस ब्रह्माण्ड में होता है । सम्पूर्ण संसार का व्यवहार इस एक अंश में ही चल रहा है, प्रभु के तीन अंश तो इस व्यावहारिक संसार से ऊपर ही हैं । [२] इस (साशनानशने) = अशन सहित और अशनरहित संसार दो भागों में बँटा हुआ है, यही चराचर कहलाता है। इस चराचर संसार में (ततः) = उस प्रभु से ही विष्वड् [विषु अञ्च्] विविध दिशाओं में गति करनेवाला या विविध योनियों में प्रविष्ट होकर गति करनेवाला यह सारा संसार (व्यक्रामत्) = विविध गतियोंवाला होता है । सम्पूर्ण संसार की गति के स्रोत वे प्रभु ही हैं। [३] (अभि) = ये सारे प्राणी अन्ततः उस प्रभु की ओर ही चल रहे हैं। सबका अन्तिम लक्ष्य वह प्रभु ही है। वहाँ पहुँचकर ही यात्रा का अन्त होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सम्पूर्ण संसार की गति के स्रोत वे प्रभु ही हैं। यह ब्रह्माण्ड उस प्रभु की ओर ही चल रहा है ।

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    विषय

    सर्वव्यापक, सर्वस्तंभक, धारक पुरुष।

    भावार्थ

    (त्रिपात् पुरुषः) तीन चरण वाला, जो पूर्व अमृत स्वरूप कहा है, वह (ऊर्ध्वः) सब से ऊपर (उत् ऐत्) सर्वोत्तम रूप से जाना जाता है, (अस्य पादः पुनः इह अभवत्) इसका व्यक्त स्वरूप एक चरणवत् यहां जगत रूप से प्रकट है। (ततः) वह व्यापक प्रभु ही (विश्वङ् वि अक्रमत्) सर्वत्र व्यापता है। (स अशन-अनशने अभि) जो ‘अशन’ अर्थात् भोजन व्यापार से युक्त प्राणिगण, चेतन और ‘अनशन’ अर्थात भोजन न करने वाले अचेतन, जड़ अथवा व्यापक और अध्यापक पदार्थ सब में वही विद्यमान है।

    टिप्पणी

    विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥ गीता॥ मैं जगत् भर को विशेष रूप से थाम कर बैठा हूं। मेरे एक अंश में जगत् स्थिर है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्नारायणः॥ पुरुषो देवता॥ छन्दः–१–३, ७, १०, १२, निचृदनुष्टुप्। ४–६, ९, १४, १५ अनुष्टुप्। ८, ११ विराडनुष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (त्रिपात्-पुरुषः) पूर्वोक्तः सोऽमृतरूपपादत्रययुक्तः पुरुषः परमात्मा (ऊर्ध्वः-उदैत्) नश्वर-संसारत उपरि स्थितः (अस्य पादः) अस्य पादः संसाररूपः (इह पुनः-अभवत्) ऐहिकः पुनः पुनः भवति (ततः) पश्चात् (साशनानशने अभि) सभोगं जीवात्मानं तथा खल्वभोगं जडं तदुभयं च (विष्वक्-व्यक्रामत्) विविधतया विविधगुणवत्तया व्याप्नोति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Three parts higher rises the Purusha above the universe in which only one measure of Its glory manifests again and again, pervading all the material and biological world and thence remains transcendent over the universe.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पूर्ण पुरुष परमात्मा अमृतरूप त्रिपाद या नश्वर जगापेक्षा वर आहे. हा संसाररूप पाद पुन्हा पुन्हा उत्पन्न होतो. यात भोगणारे जीव व न भोगणाऱ्या जडामध्येही परमात्मा व्याप्त आहे. ॥४॥

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