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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 90 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 90/ मन्त्र 6
    ऋषिः - नारायणः देवता - पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यत्पुरु॑षेण ह॒विषा॑ दे॒वा य॒ज्ञमत॑न्वत । व॒स॒न्तो अ॑स्यासी॒दाज्यं॑ ग्री॒ष्म इ॒ध्मः श॒रद्ध॒विः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । पुरु॑षेण । ह॒विषा॑ । दे॒वाः । य॒ज्ञम् । अत॑न्वत । व॒स॒न्तः । अ॒स्य॒ । आ॒सी॒त् । आज्य॑म् । ग्री॒ष्मः । इ॒द्मः । श॒रत् । ह॒विः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत । वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । पुरुषेण । हविषा । देवाः । यज्ञम् । अतन्वत । वसन्तः । अस्य । आसीत् । आज्यम् । ग्रीष्मः । इद्मः । शरत् । हविः ॥ १०.९०.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 90; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यत्) जब (देवाः) सृष्टि के आरम्भ में वेदप्रकाशक परमर्षि अग्न्यादि महानुभाव (पुरुषेण हविषा) अपने आत्मा में धारण करने योग्य परमात्मा द्वारा (यज्ञम्-अतन्वत) मानस यज्ञ को सेवन करते हैं (अस्य) तो इस यज्ञ का (वसन्तः-आज्यम्) वसन्त ऋतु घृत (आसीत्) होता है, वसन्त में ओषधियाँ उत्पन्न होती हैं, अतः अध्यात्मयज्ञ को प्रबोधित करने के लिये वह घृतसमान है (ग्रीष्मः-इध्मः) ग्रीष्म ऋतु इन्धन होता है, क्योंकि ग्रीष्म में वनस्पतियाँ बढ़ती हैं, अतः वह इन्धन के समान है (शरत्-हविः) शरद् ऋतु हव्य द्रव्य होता है, शरद्  ऋतु में वनस्पतियाँ समृद्ध पुष्ट होती हैं, इसलिए अध्यात्मयज्ञ की समृद्धि का कारण शरद् ऋतु है ॥६॥

    भावार्थ

    आदि सृष्टि में वेदप्रकाशक ऋषि अध्यात्मयज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। अपने आत्मा में धारण करने योग्य परमात्मा के द्वारा उसका रचा वसन्तऋतु घृतसमान होकर अध्यात्मयज्ञ को प्रबोधित करता है, भिन्न-भिन्न ओषधियों के उत्पन्न होने से परमात्मा है, इस भाव जागृत करता है, पुनः ग्रीष्म ऋतु इसकी समिधा इन्धन बन जाता है, क्योंकि ग्रीष्म ऋतु में ओषधियाँ बढ़ती हैं, तो परमात्मा की आस्तिकता में दृढ़ता आ जाती है, पुनः शरद् ऋतु उसका हव्यपदार्थ हो जाता है, क्योंकि शरद् ऋतु में ओषधियाँ पुष्ट होती हैं, अतः परमात्मा का साक्षात् होने का निमित्त बन जाता है ॥६॥

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    विषय

    प्रभु-भक्त व ऋतुओं का पाठ

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जब (हविषा) = [ हु दाने] हविरूप-त्याग के पुञ्ज (पुरुषेण) = ब्रह्माण्डरूप पुरी में निवास करनेवाले प्रभु से (देवा:) = देववृत्ति के व्यक्ति (यज्ञम्) = संगतिकरण व सम्बन्ध को (अतन्वत) = विस्तृत करते हैं, तो (अस्य) = इस प्रभु से मेलवाले व्यक्ति के लिये (वसन्तः आज्यम्) = वसन्त ऋतु आज्य (आसीत्) = हो जाती है, (ग्रीष्मः) = ग्रीष्म ऋतु (इध्मः) = इध्म होती है और (शरत् हविः) = शरद् ऋतु हवि हो जाती है। [२] वसन्त ऋतु इस व्यक्ति के लिये प्रभु की महिमा को व्यक्त करनेवाली बन जाती है [आज्य-अञ्ज्= व्यक्त करना] । चारों ओर वनस्पतियों के नवपल्लव पुष्प व फल इसके लिए प्रभु- दर्शन के द्वार बन जाते हैं। [३] ग्रीष्म ऋतु इसके लिए इध्म व दीप्ति का प्रतीक हो जाती है। जैसे ग्रीष्म में सूर्य प्रचण्डरूप में चमक रहा होता है, उसी प्रकार यह उपासक प्रभु की अत्यन्त ज्योतिर्मय ज्ञानदीप्ति की कल्पना करता है । [४] इस प्रभु-भक्त के लिए सब पत्तों व पुष्पों को शीर्ण करती हुई शरद् भी हवि का संकेत बन जाती है। शरद् से यह हविरूप बनना सीखता है । भावार्थ- प्रभु-भक्त के लिए वसन्त प्रभु महिमा को दर्शाती है, ग्रीष्म प्रभु की ज्ञानदीप्ति का संकेत करती है और शरत् इसे त्याग का पाठ पढ़ाती है ।

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    विषय

    महान् पुरुष का यज्ञ।

    भावार्थ

    (देवाः) विद्वान् मनुष्य (यद् यज्ञं) जिस यज्ञ को (हविषा पुरुषेण) पुरुष रूप साधन से (अतन्वत) प्रकट करते हैं। (अस्य) उस यज्ञ का (वसन्तः आज्यम् आसीत्) वसन्त घृत के तुल्य रहा, (ग्रीष्मः इध्मः) ग्रीष्म ऋतु इंधन अर्थात् जलती लकड़ी के तुल्य रहा, और (शरत हविः) शरद् ऋतु हवि के तुल्य था। ऋतुओं से ब्रह्माण्ड में संवत्सर यज्ञ हो रहें हैं। जैसे घृत से अग्नि अधिक दीप्त होता है इसी प्रकार वसन्त के अनन्तर ग्रीष्म अधिक तीव्र हो जाता है। शरत् फलप्रद होने से हविरूप है। सूर्य की रश्मियां ‘देव’ हैं जो सवंत्सर यज्ञ को करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्नारायणः॥ पुरुषो देवता॥ छन्दः–१–३, ७, १०, १२, निचृदनुष्टुप्। ४–६, ९, १४, १५ अनुष्टुप्। ८, ११ विराडनुष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यत्) यदा (देवाः) सृष्टेरारम्भे वेदप्रकाशकाः परमर्षयोऽग्निप्रभृतयः (पुरुषेण हविषा यज्ञम्-अतन्वत) निजात्मनि धारयितुं योग्येन परमात्मना मानसं यज्ञमन्वतिष्ठन् (अस्य) एतस्य यज्ञस्य (वसन्तः-आज्यम्-आसीत्) वसन्तर्तुर्धृतमासीत्-वसन्ते खल्वोषधय उत्पद्यन्तेऽतोऽध्यात्मयज्ञं प्रबोधयन्ति (ग्रीष्मः-इध्मः) ग्रीष्मर्तुरिन्धनमासीत्-यतो ग्रीष्मे वनस्पतयो वर्धन्ते (शरत्-हविः) शरदृतुर्हव्यद्रव्यमासीत्-शरदि वनस्पतयः समृध्यन्ते तस्मादध्यात्म-यज्ञस्य समृद्धिकारणं भवति शरत् ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When the sages visualise the universal yajna of creation and enact it in communion with the Purusha in meditation, then the spring season is the ghrta, summer is the fuel, and winter is the havi. (This meditative enactment is in terms of nature. In fact, the creation of the universe is an evolutionary process beginning with Prakrti evolving into material, biological and psychic forms as follows in this very hymn.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सृष्टीच्या आरंभी वेदप्रकाशक ऋषी अध्यात्मयज्ञाचे अनुष्ठान करतात. आपल्या आत्म्यात धारण करण्यायोग्य परमात्म्याद्वारे त्याने रचलेला वसंतऋतू घृताप्रमाणे असून, अध्यात्मयज्ञाला प्रबोधित करतो. भिन्न-भिन्न औषधी उत्पन्न झाल्यामुळे परमात्म्याच्या अस्तित्वाची जाणीव होते. पुन्हा ग्रीष्म ऋतू त्याची समिधा इंधन बनते. कारण ग्रीष्म ऋतूत औषधी वाढते. तेव्हा परमात्म्याच्या आस्तिकतेबद्दल दृढता उत्पन्न होते. पुन्हा शरद ऋतू त्याचे हव्य पदार्थ बनतात. कारण शरद ऋतूत औषधी पुष्ट होते. त्यामुळे परमात्म्याचा साक्षात् होण्याचे निमित्त बनते. ॥६॥

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