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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - अग्निः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒यं ते॒ योनि॑र्ऋ॒त्वियो॒ यतो॑ जा॒तो अरो॑चथाः। तं जा॒नन्न॑ग्न॒ आ सी॒दाथा॑ नो वर्धया॒ गिरः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । ते॒ । योनिः॑ । ऋ॒त्वियः॑ । यतः॑ । जा॒तः । अरो॑चथाः । तम् । जा॒नन् । अ॒ग्ने॒ । आ । सी॒द॒ । अथ॑ । नः॒ । व॒र्ध॒य॒ । गिरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं ते योनिर्ऋत्वियो यतो जातो अरोचथाः। तं जानन्नग्न आ सीदाथा नो वर्धया गिरः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। ते। योनिः। ऋत्वियः। यतः। जातः। अरोचथाः। तम्। जानन्। अग्ने। आ। सीद। अथ। नः। वर्धय। गिरः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 10
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने विद्वन् यस्तेऽयमृत्वियो योनिरस्ति यतो जातः सन्नरोचथास्तं जानन्नत्राऽऽसीद। अथ नो गिरो वर्धय ॥१०॥

    पदार्थः

    (अयम्) अग्न्यादिपदार्थविद्याविज्ञानाधिष्ठानम् (ते) तव (योनिः) सुखगृहम् (ऋत्वियः) य ऋतूनर्हति सः (यतः) (जातः) प्रकटः सन् (अरोचथाः) रोचस्व (तम्) (जानन्) (अग्ने) पावक इव (आ) (सीद) स्थिरो भव (अथ) आनन्तर्य्ये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (वर्धय) उन्नय। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (गिरः) विद्यासुशिक्षायुक्ता वाचः ॥१०॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्येन येन कर्मणा शरीरात्मैश्वर्य्याणां वृद्धिः स्यात्तत्तत्कर्म सदाचरणीयम् ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी विद्वान् पुरुष ! जो (ते) आप का (अयम्) यह अग्नि आदि पदार्थ विद्या के ज्ञान का आधार (ऋत्वियः) समयों के योग्य (योनिः) सुख का घर है (यतः) जहाँ से (जातः) प्रकट हुआ (अरोचथाः) प्रकाशित हो (तम्) उसको (जानन्) जानते हुए यहाँ (आ) (सीद) स्थिर होइये और (अथ) इसके अनन्तर (नः) हम लोगों की (गिरः) विद्या और उत्तम शिक्षायुक्त वाणियों की (वर्धय) उन्नति कीजिये ॥१०॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को उचित है कि जिस-जिस कर्म से शरीर आत्मा और ऐश्वर्य्यों की वृद्धि हो, वह-वह कर्म सब काल में करें ॥१०॥

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    विषय

    प्रभु का निवास स्थानभूत 'हृदय'

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (अयम्) = यह मेरा शरीर व हृदय (ते योनिः) = आपका घर हो आपका यहाँ निवास हो। यह (ऋत्वियः) = प्रत्येक ऋतु में आपका हो, अर्थात् मैं सदा आपका स्मरण करूँ । यह मेरा हृदय ऐसा हो कि (यतः) = जिससे (जात:) = प्रादुर्भूत हुए हुए आप (अरोचथाः) = देदीप्यमान हों। आपकी ज्योति से यह मेरा हृदय चमक उठे। [२] हे (जानन्) = सर्वज्ञ (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (तं आसीद) = उस हृदय में आप आसीन होइये अथा और (अवन:) = हमारे लिए (गिरः) = इन ज्ञानवाणियों का (वर्धया) = वर्धन करिए। हृदयस्थ प्रभु हमारा ज्ञानवर्धन करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- मेरा हृदय प्रभु का निवास स्थान बने। प्रभु इसे ज्ञानदीप्त करने का अनुग्रह करें।

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    विषय

    अग्नि के ऋत्विय योनि की व्याख्या।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! विद्वन् ! (ते) तेरा (अयं) यह (योनिः) घर (ऋत्वियः) सब ऋतुओं के अनुकूल सुखदायी हो। (यतः) जिसमें प्रकट होकर तू (अरोचथाः) सबका प्रेमभाजन हो। हे विद्वन् विनीत ! शिष्य (अयं) यह आचार्य या गुरुगृह ही (ते ऋत्वियः योनिः) तेरे लिये सत्यज्ञान प्राप्त करने योग्य वा प्राणों के बल वृद्धि योग्य (योनिः) निवासस्थान है (यतः जातः) जिसमें से तू विद्यासम्पन्न होकर (अरोचथाः) सूर्य के समान ज्ञानप्रकाश से चमक। हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! तू यहां (तम्) उस परमेश्वर को (जानन्) जानता हुआ (आसीद) यहां उत्तमासन पर आदर पूर्वक विराज (अथ) और (नः) हमारी (गिरः) उत्तम वेद-वाणियों की वृद्धि कर। (२) आत्मारूप अग्नि के लिये यह देह (ऋत्विया) प्राणों के निवास योग्य उत्तम गृह है। आत्मा इसमें प्रकट होकर नाना रुचि प्रकट करता है । परम प्रभु को जानता हुआ वह उत्तम लोक में विराजे और हम स्तावकों की स्तुतियों की वृद्धि करता है। (३) राजा के लिये यह सभाभवन (ऋत्वियः) ऋतु अर्थात् राजसदस्योचित घर है। जिसमें वह तेजस्वी होकर विराजता है। वह उस पद का विशेष रूप से ज्ञान करके आसन पर विराजे और हमारी उत्तम वाणियों या प्रार्थनाओं को अधिक समृद्ध करे। इत्येकत्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ १–४, ६–१६ अग्नि। ५ ऋत्विजोग्निर्वा देवता॥ छन्दः—१ निचृदनुष्टुप्। ४ विराडनुष्टुप्। १०, १२ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः। ३, ५, ६ त्रिष्टुप्। ७, ९, १६ निचृत् त्रिष्टुप्। ११, १४, १५ जगती ॥ षडदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या ज्या कर्माने शरीर, आत्मा व ऐश्वर्याची वृद्धी होईल ते ते कर्म माणसांनी सदैव करावे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, master of knowledge, light and fire, and energy, this vedi, this fire, this arani wood, the deep dense earth, the laboratory, seat and source of energy, is your home and identity from where, according to the seasons, you arise and shine. Knowing that, come, sit on the vedi, and then let our hymns of divine adoration rise to the heights of heaven.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More details about the fire.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! you purify like the fire, and your house bestows happiness and is the abode of the fire (Yajna) and other articles and their scientific knowledge and rational understanding, which suits all the time. You shine well being endowed with true knowledge. Knowing it, be firm and spread our words of wisdom and good education.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A man should always perform that action which vitalizes the body soul and wealth.

    Foot Notes

    (योनिः ) सुखगृहम् | योनिरिति गृहनाम (N.G.. 3, 4) = Pleasant house which provides happiness. (आ) (सोद) स्थिरो भव = Be firmly established. (अग्ने) पावक इव | अग्नि: कस्मदग्रणीभवति (N.R.T. 7, 4, 15) आर्य ज्ञानवत्पुरुष अग्निसदृश। = O learned person ! purifier like the fire. The adjective जानन् is used for Agni in this mantra. Prof. Wilson translated it "knowing that to be ", while Griffith renders as “knowing this " Obviously, it can not be applicable to the fire kindled under the altar. Rishi Dayananda translated fire as learned person, who is this purifier like the fire.

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