ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 11
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
तनू॒नपा॑दुच्यते॒ गर्भ॑ आसु॒रो नरा॒शंसो॑ भवति॒ यद्वि॒जाय॑ते। मा॒त॒रिश्वा॒ यदमि॑मीत मा॒तरि॒ वात॑स्य॒ सर्गो॑ अभव॒त्सरी॑मणि॥
स्वर सहित पद पाठतनू॒ऽनपा॑त् । उ॒च्य॒ते॒ । गर्भः॑ । आ॒सु॒रः । नरा॒शंसः॑ । भ॒व॒ति॒ । यत् । वि॒ऽजाय॑ते । मा॒त॒रिश्वा॑ । यत् । अमि॑मीत । मा॒तरि॑ । वात॑स्य । सर्गः॑ । अ॒भ॒व॒त् । सरी॑मणि ॥
स्वर रहित मन्त्र
तनूनपादुच्यते गर्भ आसुरो नराशंसो भवति यद्विजायते। मातरिश्वा यदमिमीत मातरि वातस्य सर्गो अभवत्सरीमणि॥
स्वर रहित पद पाठतनू३ऽनपात्। उच्यते। गर्भः। आसुरः। नराशंसः। भवति। यत्। विऽजायते। मातरिश्वा। यत्। अमिमीत। मातरि। वातस्य। सर्गः। अभवत्। सरीमणि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 11
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या यद्यस्तनूनपादुच्यते आसुरो गर्भो नराशंसो भवति मातरिश्वा विजायते यद्यो वातस्य मातरि सर्गोऽमिमीत सरीमण्यभवत्सोऽग्निस्सर्वैर्वेदितव्यः ॥११॥
पदार्थः
(तनूनपात्) यस्य तनूर्व्याप्तिर्न पतति (उच्यते) (गर्भः) अन्तःस्थः (आसुरः) असुरे प्रकाशरूपरहिते वायौ भवः (नराशंसः) यं नरा आशंसन्ति (भवति) (यत्) यः (विजायते) विशेषेणोत्पद्यते (मातरिश्वा) यो वायौ श्वसिति स (यत्) यः (अमिमीत) निर्मीयते (मातरि) आकाशे (वातस्य) वायोः (सर्गः) उत्पत्तिः (अभवत्) भवेत् (सरीमणि) गमनाख्ये व्यवहारे ॥११॥
भावार्थः
ये मनुष्या वाय्वग्नीभ्यां कार्य्याणि सृजन्ति ते सुखैः संसृष्टा भवन्ति ॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यत्) जो (तनूनपात्) सर्वत्र व्यापक (उच्यते) कहा जाता है (आसुरः) प्रकटरूप से रहित वायु से उत्पन्न (गर्भः) मध्य में वर्त्तमान (नराशंसः) मनुष्यों से प्रशंसित (भवति) होता है (मातरिश्वा) वायु में श्वास लेनेवाला (विजायते) विशेषभाव से उत्पन्न होता है और (यत्) जो (वातस्य) वायु सम्बन्धी (मातरि) आकाश में (सर्गः) उत्पत्ति (अमिमीत) रची जाती है (सरीमणि) गमनरूप व्यवहार में (अभवत्) होवे, वह अग्नि सम्पूर्ण जनों से जानने योग्य है ॥११॥
भावार्थ
जो मनुष्य वायु और अग्नि से कार्य्यों को सिद्ध करते हैं, वे सुखों से संयुक्त होते हैं ॥११॥
विषय
तनूनपात्
पदार्थ
[१] वह प्रभु 'तनूनपात्' हमारे शरीरों को न नष्ट होने देनेवाले (उच्यते) = कहे जाते हैं, अर्थात् मैं अपने को, गतमन्त्र के अनुसार, प्रभु का निवास स्थान बनाता हूँ, तो प्रभु मेरा रक्षण करते हैं। (गर्भः) = वे सबके अन्दर गर्भरूप से रह रहे हैं 'प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तः' । (आसुरः) = 'असुराणां हन्ता सा०' वे हमारे पर आक्रमण करनेवाले आसुर भावों को विनष्ट करनेवाले हैं। [२] (यद्विजायते) = जब प्रभु अपनी विभूतियों में विविधरूप से प्रकट होते हैं, तो (नराशंसः भवति) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले पुरुषों से शंसनीय होते हैं। ज्ञानीपुरुष सर्वत्र प्रभु की महिमा देखते हैं और प्रभु का गायन करते हैं। [३] (यत्) = चूँकि (मातरि) = निर्माणात्मक कार्यों में प्रवृत्त पुरुष में (अभिमीत) = प्रभु सब सद्गुणों का निर्माण करते हैं, अतः वे 'मातरिश्वा' निर्माता में स्थित होकर उसका वर्धन करनेवाले कहलाते हैं। [४] (सरीमणि) = हृदय में प्रभु की गति होने पर (वातस्य) = जीवात्मा का प्राणधारी जीव का [वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्] (सर्गः) = दृढ़ निश्चय (अभवत्) = होता है। हृदय में प्रभु की स्थिति को अनुभव करनेवाला पुरुष बड़ा दृढ़ निश्चयी होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- मैं प्रभु का निवास स्थान बनूँ । प्रभु मेरे शरीर को नष्ट न होने देंगे- मेरे पर होनेवाले आसुरभावों के आक्रमण से मेरा रक्षण करेंगे, मेरा वर्धन करेंगे, मुझे दृढ़ निश्चयी बनायेंगे ।
विषय
तनूनपात् जीव । विद्युत्वत् आत्मा की उत्पत्ति का रहस्य। पक्षान्तर में ब्रह्मचारी का जन्म।
भावार्थ
यह अग्नि (तनूनपात्) जिसका व्यापक रूप कभी नाश को प्राप्त नहीं होता है इसीलिये ‘तनूनपात्’ कहा जाता है। अथवा वह सब प्राणियों के भीतर प्राण रूप से रहकर देहों को गिरने नहीं देता इसलिये ‘तनूनपात्’ कहाता है। वही (गर्भः) सबके भीतर गर्भ में बालक के समान प्रसुप्तवत् रहने से ‘गर्भ’ कहाता है। वही (आसुरः) असुर अर्थात् प्रकाश से रहित वायु के आश्रय उत्पन्न होने से ‘आसुर’ कहाता है। वह ही (नराशंसः) बहुत से विद्वान् पुरुषों से शिष्यों के प्रति विद्युत् आदि रूप में उपदेश करने योग्य होने से ‘नराशंस’ हो जाता है। (यत्) जो (विजायते) इस प्रकार से नाना रूपों में प्रकट होता है। और (यत्) जो (मातरि) अपने ही निर्माण करने या उत्पन्न करने वाले में या आकाश में (अमिमीत) विद्युत् रूप से शब्द करता है इसलिये वह (मातरिश्वा) ‘मातरिश्वा’ कहाता है। और इस अग्नि के (सरीमणि) वेग से चलने पर (वातस्य सर्गः) वायु की उत्पत्ति (अभवत्) होती है अथवा (वातस्य सरीमणि सर्गः अभवत्) वायु के वेग से चलने पर इस अग्नि की उत्पत्ति होती है। अथवा यह विद्युत् रूप अग्नि (आसुरः गर्भः) जब मेघ के गर्भ में विद्यमान रहता है तब वह (तनूनपात् उच्यते) व्यापक जलों को भी नीचे न गिरने देने से या जलों के बीच में स्वयं न गिरने से ‘तनूनपात्’ कहाता है (यद्) जब वह (विजायते) विशेष दीप्ति से प्रकट होता है। (नराशंसः भवति) मनुष्य भी उसका वर्णन करते हैं इसलिये वह ‘नराशंस’ कहाता है। और (यत्) जब (मातरिश्वा) अन्तरिक्ष में श्वास के समान वेग से चलने वाला वायु (मातरि) अन्तरिक्ष में (अमिमीत) इस अग्नि- विद्युत् को उत्पन्न करता है तब (वातस्य सरीमणि) प्रबल वायु के चलने पर ही (सर्गः अभवत्) जल वृष्टि होती है। (३) विद्वान् के पक्ष में—असुर अर्थात् मेघ के समान दोषों को दूर करने वाले आचार्य के अधीन जब (गर्भः) गृहीत गर्भ के समान सुरक्षित ब्रह्मचारी होता है तब वह ‘तनु’ अर्थात् शरीर से वीर्य क्षरित या स्खलित न होने देने वाला ब्रह्मचारी ‘तनूनपात्’ कहाता है। और जब (विजायते) विशेष रूप से विद्यावान् होकर आचार्य-कुल में उत्पन्न हो जाता है तब (नराशंसः) उत्तम पुरुषों द्वारा उपदेश योग्य होने से ‘नराशंस’ कहाता है। जब वह (मातरि) माता के समान उत्पादक ज्ञानदाता विद्वान् आचार्य के अधीन (अमिमीत) विशेष रूप से विद्या का अभ्यास करता, अपने में ज्ञान प्राप्त करता है तब वह (मातरिश्वा) ज्ञानी आचार्य के अधीन अपने आपको समर्पण करने से ‘मातरिश्वा’ कहाता है। यह शिष्य की इस प्रकार की (सर्गः) सृष्टि या उत्पत्ति (वातस्य) ज्ञानवान् पुरुष के (सरीमणि) संगति लाभ करने पर ही (अभवत्) होती है, अन्यथा नहीं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ १–४, ६–१६ अग्नि। ५ ऋत्विजोग्निर्वा देवता॥ छन्दः—१ निचृदनुष्टुप्। ४ विराडनुष्टुप्। १०, १२ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः। ३, ५, ६ त्रिष्टुप्। ७, ९, १६ निचृत् त्रिष्टुप्। ११, १४, १५ जगती ॥ षडदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे वायू, अग्नीने कार्य सिद्ध करतात ती सुखयुक्त होतात. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When Agni is pervasive and immanent in space, it is called ‘garbha’, the foetus in the womb of space. When it pervades and energises the wind, it is called ‘Narashansa’ which rises as the object of admiration by the people. When it expands its power and presence in the sky, it is called ‘matarishva’, lying and breathing in the lap of the mother. And when it moves in fast motion, then it means ‘the blowing of the storm’.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of fire further moves.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! when fire is in the embryo (invisible in the form of wood, coal etc.), it is called TANŪNAPĀT (not decaying) when the fire is generated and supported by the wind, it is called NĀRĀSHANSA. Both these forms are praised by all owing to its attributes. When this is in the sky, it is called by the name of MATARISHVAN? In its movements, the wind spreads out and becomes hot.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The persons enjoy much happiness who accomplish many works by the proper utilization of the fire and wind, and in their combination. A great natural phenomenon is mentioned here, Ed.
Foot Notes
(तनूनपात्) यस्य तनूर्व्याप्तिर्न पतति। = Whose extension does not decay (lit fall down). (आसुर:) असुरे प्रकाशरूपरहिते वायो भवः । असुषु प्राणेषु रमते इति असुरो वायुः । प्राणो वा असुः ( Shtp. 6, 2, 6) = Born in the wind. (मातरि) आकाशे। = In the sky. Shri Sayanacharya takes आसुर: to mean आसुररस्यायमासुर: अहितकारित्वेन सम्बन्धी । तस्येदमित्यण् (सायणाचार्य:) । (सरीमणि) गमनाख्ये व्यवहारे । (सरीमणि ) सृ-गतौ। = In the dealing or movement.
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