ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 7
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
जा॒तो अ॒ग्नी रो॑चते॒ चेकि॑तानो वा॒जी विप्रः॑ कविश॒स्तः सु॒दानुः॑। यं दे॒वास॒ ईड्यं॑ विश्व॒विदं॑ हव्य॒वाह॒मद॑धुरध्व॒रेषु॑॥
स्वर सहित पद पाठजा॒तः । अ॒ग्निः । रो॒च॒ते॒ । चेकि॑तानः । वा॒जी । विप्रः॑ । क॒वि॒ऽश॒स्तः । सु॒ऽदानुः॑ । यम् । दे॒वासः॑ । ईड्य॑म् । वि॒श्व॒ऽविद॑म् । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । अद॑धुः । अ॒ध्व॒रेषु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जातो अग्नी रोचते चेकितानो वाजी विप्रः कविशस्तः सुदानुः। यं देवास ईड्यं विश्वविदं हव्यवाहमदधुरध्वरेषु॥
स्वर रहित पद पाठजातः। अग्निः। रोचते। चेकितानः। वाजी। विप्रः। कविऽशस्तः। सुऽदानुः। यम्। देवासः। ईड्यम्। विश्वऽविदम्। हव्यऽवाहम्। अदधुः। अध्वरेषु॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या देवासोऽध्वरेषु यमीड्यं विश्वविदं हव्यवाहमग्निमदधुः स चेकितानः सुदानुः कविशस्तो विप्र इव जातो वाज्यग्नी रोचते ॥७॥
पदार्थः
(जातः) प्रकटः सन् (अग्नि) पावकः (रोचते) प्रदीप्यते (चेकितानः) प्रज्ञापकः (वाजी) वेगवान् (विप्रः) मेधावी (कविशस्तः) कविभिः प्रशंसितः (सुदानुः) सुष्ठुदाता (यम्) (देवासः) विद्वांसः (ईड्यम्) स्तोतुं योग्यम् (विश्वविदम्) यः समग्रं विन्दति तम् (हव्यवाहम्) हव्यानां वोढारम् (अदधुः) दधीरन् (अध्वरेषु) सङ्गतिमयेषु व्यवहारेषु ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि विद्युद्विद्यां साध्नुयुस्तर्हीयमाप्तविद्वद्वत्सत्यानि योग्यानि कार्य्याणि साध्नुयात् ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (देवासः) विद्वान् लोग (अध्वरेषु) मेल करनेरूप व्यवहारों में (यम्) जिस (ईड्यम्) स्तुति करने योग्य (विश्वविदम्) सम्पूर्ण वस्तुओं के ज्ञाता (हव्यवाहम्) हवन करने योग्य पदार्थों के धारणकर्त्ता अग्नि को (अदधुः) धारण करें वह (चेकितानः) उत्तम कार्य्यों का जताने (सुदानुः) उत्तम प्रकार देनेवाला और (कविशस्तः) उत्तम पुरुषों से प्रशंसित हुए (विप्रः) बुद्धिमान् के सदृश (जातः) प्रकटता को प्राप्त (वाजी) वेगयुक्त (अग्निः) अग्नि (रोचते) प्रकाशित होता है ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो बिजुली संबन्धी विद्या को सिद्ध करें, तो यह विद्या यथार्थवक्ता विद्वान् पुरुष के तुल्य सत्य और योग्य कार्य्यों को सिद्ध करे ॥७॥
विषय
वाजी, सुदानु व हव्यवाट्
पदार्थ
[१] मन्थन द्वारा-मनन व चिन्तन द्वारा, (जातः) = प्रादुर्भूत हुए हुए (अग्निः) = वे प्रभु (रोचते) = हमारे हृदय देशों में दीप्त होते हैं।(चेकितानः) = वे हमें ज्ञान देते हैं। (वाजी) = प्रभु सर्वशक्तिमान् हैं। (विप्रः) = ज्ञानी हैं। (कविशस्त:) = ज्ञानी पुरुषों द्वारा स्तुत हुए हुए वे प्रभु (सुदानुः) = अच्छी प्रकार वासनाओं का खण्डन करनेवाले हैं [दाप् लवने] । [२] (यम्) = जिस प्रभु को (देवासः) = देववृत्ति के पुरुष (अध्वरेषु) = यज्ञात्मक जीवनों में (अदधुः) = स्थापित करते हैं। देव जीवन को यज्ञमय बनाते हैं और इस (यज्ञिय) = जीवन में प्रभु का प्रकाश देखते हैं। ये प्रभु ही (ईड्यम्) = स्तुति योग्य हैं। (विश्वविदम्) = सर्वज्ञ हैं। (हव्यवाहम्) = हव्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- देव बनकर हम यज्ञशील हों। यही प्रभुप्राप्ति का मार्ग है। ये प्रभु हमें शक्ति देते हमारी वासनाओं का विनाश करते हैं और सब हव्यपदार्थों को प्राप्त कराते हैं।
विषय
विद्वान् अग्नि
भावार्थ
(जातः अग्निः रोचते) उत्पन्न होकर अग्नि जिस प्रकार प्रकाशित होता है और (हव्यवाहम् अध्वरेषु अदधुः) चरु को ग्रहण करने में समर्थ प्रज्वलित अग्नि को यज्ञों में आधान करते हैं। उसी प्रकार (जातः) प्रकट होकर (अग्निः) अग्रणी, नायक विनयशील ज्ञानी पुरुष (चेकितानः) अन्यों को ज्ञान देता और स्वयं ज्ञानवान् होता हुआ (वाजी) ऐश्वर्य और ज्ञान से सम्पन्न होकर, (विप्रः) मेधावी (कविशस्तः) क्रान्तदर्शी, विद्वानों द्वारा शिक्षित और उत्तम प्रकाशित (सुदानुः) ज्ञान और धन का दाता होकर (रोचते) सब को प्रिय लगता है। (देवासः) विद्वान् और उसकी कामना करनेहारे मित्र राजा जन (यं) जिस (विश्वविदं) सर्वज्ञ, सर्ववेत्ता (ईड्यं) स्तुतियोग्य, पृथ्वी राज्य के योग्य (हव्यवाहम्) ऐश्वर्य के धारक श्रेष्ठ पुरुष को (अध्वरेषु) यज्ञों और संग्रामों तथा अन्य उत्तम कार्यों पर (अदधुः) अध्यक्ष रूप से स्थापित करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ १–४, ६–१६ अग्नि। ५ ऋत्विजोग्निर्वा देवता॥ छन्दः—१ निचृदनुष्टुप्। ४ विराडनुष्टुप्। १०, १२ भुरिगनुष्टुप्। २ भुरिक् पङ्क्तिः। १३ स्वराट् पङ्क्तिः। ३, ५, ६ त्रिष्टुप्। ७, ९, १६ निचृत् त्रिष्टुप्। ११, १४, १५ जगती ॥ षडदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जर विद्युत विद्या सिद्ध झाली तर ती विद्या यथार्थवक्ता विद्वान पुरुषाप्रमाणे सत्य व योग्य कार्य सिद्ध करते. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Arisen, Agni shines, warm and soothing and beautiful as flames of fire, illuminating as light, energy and strong horse power, travelling, reaching vibrant, sensitive and even bearing intelligence, rich with lovely gifts, sung and celebrated by wise visionaries: which sacred and universal power, carrier and creator of life’s fragrance, brilliant people serve, create and use in yajnic programmes of love and non-violence for the general good.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of fire (learned persons) is said.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! the Agni (fire) has been placed in the non-violent sacrifices (Yajna) by the enlightened persons. It shines like a very wise man, praised by the poets and sages, giving knowledge to all liberal donors and active persons. It (fire) is the bearer of oblations, to be researched into and is the source of much wealth when properly utilized.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If men knew the science of Agni (electricity and fire), it can accomplish many desirable good works like an absolutely truthful wise and learned man.
Foot Notes
Giving knowledge or instruction. (विप्रः) मेधावी । विप्र इति मेधाविनाम (N.G. 3, 15 ) = A very wise man. Here the epithets used for Agni in the mantra like विप्रः, चेकितानः कविशस्तः mean intelligent, praised by the wise and all-knowing (Wilson), observant and knowing all things (Griffith). These epithets can not be applicable to the fire of the sacrifice placed at the altar. Yet the translators erroneously linked it with the material fire.
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