ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 36/ मन्त्र 10
अ॒स्मे प्र य॑न्धि मघवन्नृजीषि॒न्निन्द्र॑ रा॒यो वि॒श्ववा॑रस्य॒ भूरेः॑। अ॒स्मे श॒तं श॒रदो॑ जी॒वसे॑ धा अ॒स्मे वी॒राञ्छश्व॑त इन्द्र शिप्रिन्॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मे इति॑ । प्र । य॒न्धि॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । ऋ॒जी॒षि॒न् । इन्द्र॑ । रा॒यः । वि॒श्वऽवा॑रस्य । भूरेः॑ । अ॒स्मे इति॑ । श॒तम् । श॒रदः॑ । जी॒वसे॑ । धाः॒ । अ॒स्मे इति॑ । वी॒रान् । शश्व॑तः । इ॒न्द्र॒ । शि॒प्रि॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मे प्र यन्धि मघवन्नृजीषिन्निन्द्र रायो विश्ववारस्य भूरेः। अस्मे शतं शरदो जीवसे धा अस्मे वीराञ्छश्वत इन्द्र शिप्रिन्॥
स्वर रहित पद पाठअस्मे इति। प्र। यन्धि। मघऽवन्। ऋजीषिन्। इन्द्र। रायः। विश्वऽवारस्य। भूरेः। अस्मे इति। शतम्। शरदः। जीवसे। धाः। अस्मे इति। वीरान्। शश्वतः। इन्द्र। शिप्रिन्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 36; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे शिप्रिन्निन्द्र ! त्वमस्मे शश्वतो वीरान् धाः। हे मघवन्नृजीषिन्निन्द्र त्वमस्मे विश्ववारस्य भूरे रायो भागं प्रयन्धि। अस्मे जीवसे शतं शरदो धाः ॥१०॥
पदार्थः
(अस्मे) अस्मभ्यम् (प्र) (यन्धि) प्रयच्छ (मघवन्) बहुसत्कृतधनयुक्त (ऋजीषिन्) सरलस्वभाव (इन्द्र) सुखदातः (रायः) धनस्य (विश्ववारस्य) समग्रं सुखं स्वीकृतं यस्मात्तस्य (भूरेः) बहुविधस्य (अस्मे) अस्मान् (शतम्) (शरदः) शतं वर्षाणि (जीवसे) जीवितुम् (धाः) धेहि (अस्मे) अस्माकम् (वीरान्) विक्रान्तान् जनान् (शश्वतः) निरन्तरान् (इन्द्र) सूर्य इव प्रभावयुक्त (शिप्रिन्) शोभनहनुनासिक ॥१०॥
भावार्थः
त एव सरलस्वभावा आप्ता विद्वांसः सन्ति ये श्रियं विभज्य भुञ्जते ब्रह्मचर्य्योपदेशेन शतायुषः कृत्वा सर्वेषु कर्म्मसूत्साहितान्निर्भयान् पुरुषार्थिनः कुर्वन्ति ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (शिप्रिन्) सुन्दर नासिका और ठोढ़ीवाले (इन्द्र) सुख के दाता ! आप (अस्मे) हम लोगों के लिये (शश्वतः) निरन्तर वर्त्तमान (वीरान्) पराक्रमी मनुष्यों को धारण करो हे (मघवन्) बहुत सत्कारयुक्त धन से परिपूर्ण (ऋजीषिन्) सरल स्वभाववाले (इन्द्र) सूर्य के सदृश प्रतापी आप (अस्मे) हम लोगों का (विश्ववारस्य) सम्पूर्ण सुख स्वीकार किया जाता है जिससे उस (भूरेः) अनेक प्रकार (रायः) धन के भाग को (प्र, यन्धि) दीजिये (अस्मे) हम लोगों को (जीवसे) जीवने के लिये (शतम्, शरदः) सौ वर्षों को (धाः) धारण कीजिये ॥१०॥
भावार्थ
वे ही उत्तम स्वभाववाले यथार्थवक्ता विद्वान् लोग हैं कि जो लक्ष्मी का विभाग करके अर्थात् अन्य जनों को बाँट के फिर आप भोजन करते हैं और मनुष्यों को ब्रह्मचर्य्य के उपदेश से सौ वर्ष की अवस्थावाले करके सम्पूर्ण कर्मों में उत्साही भयरहित और पुरुषार्थी करते हैं ॥१०॥
विषय
उत्तम धन, दीर्घजीवन व वीर सन्तान
पदार्थ
[१] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् ! (ऋजीषिन्) = ऋजुमार्ग की प्रेरणा देनेवाले [ऋजु + इष] (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (अस्मे) = हमारे लिए (विश्ववारस्य) = सब से वरणीय (भूरे:) = हमारा पालनपोषण करनेवाले (रायः) = धन को (प्रयन्धि) = दीजिये । हमें प्रभु कृपा से वह धन प्राप्त हो, जो कि सदा उत्तम मार्ग से कमाया जाता है जो पापी लक्ष्मी नहीं है। उतना धन प्राप्त हो, जो कि हमारा पालन व पोषण करने के लिए पर्याप्त हो । [२] (अस्मे) = हमारे लिए जीवसे उत्कृष्ट जीवन को से (शतायु) = बनें । प्राप्त करने के लिए (शतं शरदः धाः) = सौ वर्षों को धारण करिए। हम प्रभु कृपा [३] हे (शिप्रिन्) = शोभन शिरस्त्राणवाले (इन्द्र) = शक्तिमान् प्रभो ! (अस्मे) = हमारे लिए (शश्वतः) = प्लुतगतिवाले [चुस्त] (वीरान्) = वीर सन्तानों को (धाः) = धारण करिए। हमारे सन्तान प्लुत-गतिवाले व वीर हों। वे भी आपकी कृपा से शोभन-शिरस्त्राण [ज्ञान] वाले हों और शक्तिमान् हों।
भावार्थ
भावार्थ- हमें प्रभु उत्तम धन, दीर्घजीवन व वीर सन्तान प्राप्त कराएँ ।
विषय
उसके कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (मघवन्) ऐश्वर्य के स्वामिन् (ऋजीषिन्) सरल मानस प्रवृत्ति वाले धार्मिक पुरुष ! हे (शिप्रिन्) सुन्दर मुख नासिका वाले सौम्य पुरुष वा हे तेजस्विन् ! बलवन् ! हे (इन्द्र) शत्रुहन्तः ! आप (भूरेः) बहुत से (विश्ववारस्य) सबसे वरण करने योग्य, सब संकटों के वारक (रायः) ऐश्वर्य का (अस्मे प्रयन्धि) हमें अच्छी प्रकार दान और विभाग करो। और (अस्मे) हमें (शतं शरदः) सौ वरसों तक (जीवसे) जीवन धारण के लिये (धाः) धारण पोषण कर। या (अस्मे जीवसे शतं शरदः धाः) हमें जीने के लिये सौ बरस की आयु दे, हमें सौ बरस तक जीने दे। और (अस्मे) हमें (शश्वतः वीरान्) चिरस्थायी वीर पुरुष और वीर्यवान् पुत्र (धाः) प्रदान कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रः। १० घोर आङ्गिरस ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ७, १०, ११ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। विराट् विष्टुप्। ४ भुरिक् पङ्क्तिः। ५ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
तेच उत्तम स्वभावाचे यथार्थ वक्ते विद्वान लोक असतात जे संपत्तीचे विभाजन करतात व नंतर भोजन करतात व माणसांना ब्रह्मचर्याच्या उपदेशाने शतायुषी करून सर्वांना उत्साही भयरहित व पुरुषार्थी करतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of honour and excellence of prosperity, lover of purity and excellence of naturalness, ruler and protector of the world, give us abundance of the wealth of universal character and value. O lord of grandeur and handsomeness, bear and bring for us a full life of hundred years, and bless us with an unbroken line of brave progeny.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of ruler and ruled continues.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra! you are influential or resplendent or glorious like the sun. You have handsome jaws and nose, possess much admirable wealth, and always support our heroes. O pulent person of upright nature! free from all deception or giver of much happiness, give us various riches, which are source of alt happiness. Grant us life of hundred years.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those only are absolutely truthful and enlightened persons of upright nature who enjoy wealth, distributing it and sharing it with others. They make all fearless, industrious, living up to hundred years and zealot in doing all noble deeds by teaching Brahmacharya (perfect purity and self control etc.)
Foot Notes
(विश्ववारस्य) समग्रं सुखं स्वीकृतं यस्मात्तस्य = That which causes all happiness. (इन्द) सूर्य इव प्रभावयुक्त = Influential or glorious like the sun. (ऋजीषिन् ) सरलस्वभाव = Man of upright nature.
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