ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 36/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
म॒हाँ अम॑त्रो वृ॒जने॑ विर॒प्श्यु१॒॑ग्रं शवः॑ पत्यते धृ॒ष्ण्वोजः॑। नाह॑ विव्याच पृथि॒वी च॒नैनं॒ यत्सोमा॑सो॒ हर्य॑श्व॒मम॑न्दन्॥
स्वर सहित पद पाठम॒हान् । अम॑त्रः । वृ॒जने॑ । वि॒ऽर॒प्शी । उ॒ग्रम् । शवः॑ । प॒त्य॒ते॒ । धृ॒ष्णु । ओजः॑ । न । अह॑ । वि॒व्या॒च॒ । पृ॒थि॒वी । च॒न । एन॑म् । यत् । सोमा॑सः । हरि॑ऽअश्वम् । अम॑न्दन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
महाँ अमत्रो वृजने विरप्श्यु१ग्रं शवः पत्यते धृष्ण्वोजः। नाह विव्याच पृथिवी चनैनं यत्सोमासो हर्यश्वममन्दन्॥
स्वर रहित पद पाठमहान्। अमत्रः। वृजने। विऽरप्शी। उग्रम्। शवः। पत्यते। धृष्णु। ओजः। न। अह। विव्याच। पृथिवी। चन। एनम्। यत्। सोमासः। हरिऽअश्वम्। अमन्दन्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 36; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
योऽमत्रो विरप्शी महान् वृजने उग्रं शवो धृष्ण्वोजः पत्यते। एनं कश्चन न विव्याचाह एनं पृथिवी प्राप्नुयात् यद्यं हर्यश्वं सोमासोऽमन्दन्त्स तान् सततं हर्षयेत् ॥४॥
पदार्थः
(महान्) (अमत्रः) ज्ञानवान् (वृजने) बले (विरप्शी) विविधा विरप्शा प्रसिद्धा उपदेशा विद्यन्ते यस्य सः (उग्रम्) कठिनं दृढम् (शवः) बलम् (पत्यते) प्राप्नोति (धृष्णु) प्रगल्भम् (ओजः) पराक्रमः (न) निषेधे (अह) विनिग्रहे (विव्याच) छलयति (पृथिवी) भूमिः (चन) (एनम्) (यत्) ये (सोमासः) ऐश्वर्य्ययुक्ताः (हर्यश्वम्) हरयो हरणशीला अश्वा यस्य तम् (अमन्दन्) आनन्देयुः ॥४॥
भावार्थः
मनुष्येषु स एव महान् भवति यः शरीरात्मसेनामित्रबलाऽरोग्यधर्मविद्या वर्धयति स छलादिदोषांस्त्यक्त्वा सर्वोपकारं करोति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
जो (अमत्रः) ज्ञानी (विरप्शी) अनेक प्रकार के प्रसिद्ध उपदेशों से पूर्ण (महान्) श्रेष्ठ (वृजने) बल में (उग्रम्) कठिन दृढ़ (शवः) बल और (धृष्णु) प्रचण्ड (ओजः) पराक्रम (पत्यते) प्राप्त होता है (एनम्) इसको कोई पुरुष (चन) कुछ (न) नहीं (विव्याच) छलता है (अह) हा ! इसको (पृथिवी) भूमि प्राप्त होवै (यत्) जिस (हर्यश्वम्) ले चलनेवाले घोड़ोंयुक्त जन को (सोमासः) ऐश्वर्य्य से युक्त पुरुष (अमन्दन्) पसन्द करैं वह उनको निरन्तर प्रसन्न करै ॥४॥
भावार्थ
मनुष्यों में वही पुरुष श्रेष्ठ होता है, जो शरीर आत्मा सेना मित्र बल आरोग्य धर्म विद्या की वृद्धि करता है, वह छल आदि दोषों का त्याग करके सबका उपकार करता है ॥४॥
विषय
सोमरक्षण-महिमा
पदार्थ
[१] (यत्) = जब (सोमासः) = शरीर में सुरक्षित सोम [वीर्य] कण (हर्यश्वम्) = गतिशील इन्द्रियाश्वोंवाले इस इन्द्र [जितेन्द्रिय पुरुष] को (अमन्दन्) = आनन्दित करते हैं, तो यह महान् बड़ा बनता है-महान् कर्मों को करनेवाला होता है। (वृजने अमत्र:) = [वृजनम्=battle, fight] संग्राम में शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाला होता है उनका पराभव करता है। शरीर में रोगकृमियों को विनष्ट करता है, मन में वासनाओं को। (विरप्शी) = यह प्रभु के नामों का उच्चारण करनेवाला बनता है और इस प्रकार (उग्रं शवः) = प्रबल शक्ति का (पत्यते) = स्वामी होता है, इस शक्ति द्वारा यह बाह्य शत्रुओं को जीतनेवाला होता है। (धृष्णु ओजः) = शत्रुओं के धर्षक ओज का यह [पत्यते-] स्वामी बनता है। इस ओज से यह काम-क्रोध-लोभ आदि वासनाओं को विनष्ट करता है । [२] (एनम्) = इस 'उग्र शवस्' व 'धृष्णु ओजस्' वाले पुरुष को (अह) = निश्चय से (पृथिवी चन) = सम्पूर्ण पृथिवी भी (न विव्याच) = व्याप्त करने में समर्थ नहीं होती। सारी पृथिवीं भी इसका पराभव नहीं कर सकती सारा संसार एक ओर हो, तो भी यह सोमरक्षक उससे घबराकर रणांगण से भाग खड़ा नहीं होता।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से वह शक्ति प्राप्त होती है, जिससे कि यह सोमरक्षक सारे संसार का भी सामना कर सकता है।
विषय
महान् का अपार सामर्थ्य।
भावार्थ
(अमत्रः) सबका सहायक, शत्रुओं पर चढ़ाई करने वाला और शत्रुओं को पीड़ित करने वाला, (महान्) गुणों में महान्, (वृजने) दूर बल में और (वृजने) दुःखदायी संकटों और अविद्यादि दोषों को करने में (विरप्शी) अधीनों को विविध रूप से आज्ञा और उपदेश करने वाला पुरुष, (उग्रं) बहुत उग्र, भयंकर (शबः) बल और (धृष्णुः) शत्रुपराजयकारी (ओजः) पराक्रम (पत्यते) प्राप्त होता है। (यत्) जब (हर्यश्वम्) वेगवान् अश्वों के स्वामी को (सोमासः) ऐश्वर्य समूह और अभिषिक्त नायकगण (अमन्दन्) हर्षित करते हैं (एनं पृथिवी चन) समस्त पृथिवी, उसके निवासी भी (न अह विव्याच) उस तक नहीं पहुंचते, उसकी शक्तियों को सीमित नहीं कर सकते। (२) परमेश्वर महान्, सर्वव्यापक, विविध ज्ञानोपदेष्टा है। उसका ज्ञान, बल सबसे उन्नत सर्वातिशायी है। ज्ञानी जीव, योगीजन उसकी स्तुति करते हैं, पृथिवी भी उसको माप नहीं सकती। वह पृथिवी से भी महान् है। वह सर्व दुःखहारी होने से स्वयं ‘हरि’ और व्यापक होने से ‘अश्व’ है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्रः। १० घोर आङ्गिरस ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ७, १०, ११ त्रिष्टुप्। २, ३, ६, ८ निचृत्त्रिष्टुप्। विराट् विष्टुप्। ४ भुरिक् पङ्क्तिः। ५ स्वराट् पङ्क्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांमध्ये तोच पुरुष महान असतो जो शरीर, आत्मा, सेना, मित्र, बल, आरोग्य, धर्म व विद्येची वृद्धी करतो. तो छळ इत्यादी दोषांचा त्याग करून सर्वांवर उपकार करतो. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Great, master of knowledge and power, overwhelming in the battle of life and lord of terrible splendour, Indra possesses and commands informidable prowess and heroism. Even the whole humanity on earth does not comprehend the grandeur of this wondrous power commanding the winds whom the creators of soma, light of the sun, beauty of the moon and fragrances of yajna inspire and enlighten.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The ideal conduct is admired.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The teachings of the great and wise Indra's are well-known. He is the victorious in the battles and defeats the foes. He can not be deceived by any one and he becomes the lord of the earth. The king whom wealthy and meritorious men please, should also make them always happy in return.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That man is great who develops the power of his body, soul, army, and friend' strength, Dharma (righteousness) and of knowledge. He gives up deception and other evils and does good to all.
Foot Notes
(अमन्त्रः ) ज्ञानवान् । = A wise man endowed with know- ledge. (विव्याच) छलयति । = Deceivers, cheats (विरप्सी) विविधा विरप्शा प्रसिद्धा उपदेशा विद्यन्ते यस्य सः । = He who gives many good teachings.
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