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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 11
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यासि॒ कुत्से॑न स॒रथ॑मव॒स्युस्तो॒दो वात॑स्य॒ हर्यो॒रीशा॑नः। ऋ॒ज्रा वाजं॒ न गध्यं॒ युयू॑षन्क॒विर्यदह॒न्पार्या॑य॒ भूषा॑त् ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यासि॑ । कुत्से॑न । स॒ऽरथ॑म् । अ॒व॒स्युः । तो॒दः । वात॑स्य । हर्योः॑ । ईशा॑नः । ऋ॒ज्रा । वाज॑म् । न । गध्य॑म् । युयू॑षन् । क॒विः । यत् । अह॑न् । पार्या॑य । भूषा॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यासि कुत्सेन सरथमवस्युस्तोदो वातस्य हर्योरीशानः। ऋज्रा वाजं न गध्यं युयूषन्कविर्यदहन्पार्याय भूषात् ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यासि। कुत्सेन। सऽरथम्। अवस्युः। तोदः। वातस्य। हर्योः। ईशानः। ऋज्रा। वाजम्। न। गध्यम्। युयूषन्। कविः। यत्। अहन्। पार्याय। भूषात् ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 11
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! यतस्त्वमवस्युस्तोदो वातस्य हर्योरीशानः सन् सरथं यासि ऋज्रा गध्यं वाजं न युयूषन् कविः सन् कुत्सेन सहितमहन् यद्यः पार्याय भूषात् तं प्राप्नोषि तस्माद्राज्यं कर्त्तुं शक्नोषि ॥११॥

    पदार्थः

    (यासि) गच्छसि (कुत्सेन) कुत्सितकर्मणा (सरथम्) रथादिभिः सहितं सैन्यम् (अवस्युः) आत्मनोऽवो रक्षणमिच्छुः (तोदः) शत्रूणां हन्ता (वातस्य) वायोः (हर्य्योः) अश्वयोः (ईशानः) स्वामी (ऋज्रा) ऋज्राणि (वाजम्) वेगम् (न) इव (गध्यम्) ग्रहीतव्यम्। अत्र वर्णव्यत्ययेन रेफलोपो हस्य धः। (युयूषन्) मिश्रयितुमिच्छन् (कविः) क्रान्तप्रज्ञः (यत्) यः (अहन्) हन्ति (पार्य्याय) पारभवाय (भूषात्) अलङ्कुर्यात् ॥११॥

    भावार्थः

    ये कुत्सितानि कर्माणि निन्दितजनसङ्गं च विहाय सत्येन न्यायेन प्रजाः पालयन्तः पुरुषार्थयेयुस्ते सर्वतोऽलङ्कृताः स्युः ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! जिससे आप (अवस्युः) अपनी रक्षा की इच्छा करते हुए (तोदः) शत्रुओं के नाशकर्त्ता (वातस्य) पवन और (हर्य्योः) घोड़ों के (ईशानः) स्वामी होते हुए (सरथम्) रथ आदिकों के सहित सेना को (यासि) प्राप्त होते हो (ऋज्रा) और सरल गमनों को (गध्यम्) ग्रहण करने योग्य (वाजम्) वेग के (न) सदृश (युयूषन्) मिलाने की इच्छा करते हुए (कविः) श्रेष्ठ बुद्धियुक्त (कुत्सेन) निकृष्ट कर्म के सहित वर्त्तमान का (अहन्) नाश करता है (यत्) जो (पार्याय) पार होने के लिये (भूषात्) शोभित करे उसको प्राप्त होते हो, इससे राज्य करने को समर्थ हो सकते हो ॥११॥

    भावार्थ

    जो लोग निन्दित कर्म्म और निन्दित जन के सङ्ग का त्याग करके सत्यन्याय से प्रजाओं का पालन करते हुए पुरुषार्थ करें, वे सब प्रकार से शोभित होवें ॥११॥

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    विषय

    वातस्य तोदः

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! आप (कुत्सेन) = वासनाओं का संहार करनेवाले पुरुष के साथ (सरथं यासि) = समान रथ में गतिवाले होते हैं, अर्थात् इसके शरीर-रथ में स्थित होते हुए आप इसके सारथि होते हैं। (अवस्युः) = इस कुत्स के रक्षण की आप कामनावाले होते हैं, जो भी वासनाओं का संहार करनेवाला होता है, उसके आप रक्षक होते ही हैं। (वातस्य) = इस गति द्वारा बुराइयों का गन्धन [हिंसन] करनेवाले के आप (तोद:) = [guiding, urging, driving] प्रेरक हैं। (हर्यो:) = इसकी ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियोंरूप अश्वों के आप ईशा स्वामी होते हैं। इसकी इन्द्रियों को आप ही ऐश्वर्य प्राप्त कराते हैं। [२] इस कुत्स के साथ (गध्यं वाजं न) = ग्रहण के योग्य बल की तरह (ऋज्रा) = ऋजुगामी इन्द्रियाश्वों को आप (युयूषन्) = जोड़ने की कामनावाले होते हैं इसे उत्तम इन्द्रियाश्व व ग्रहणीय बल आप प्राप्त कराते हैं। इनको प्राप्त करके (यद् अहन्) = जिस दिन यह कुत्स (कविः) = क्रान्तदर्शी ज्ञानी बनता है, तो यह उस समय पार्याय इस भवसागर को पार करने के लिए (भूषात्) = [प्रभवति]

    भावार्थ

    भावार्थ- हम वासनाओं के संहार की वृत्तिवाले बनें। प्रभु हमें उत्तम प्रेरणा देंगे- इन्द्रियों को ऐश्वर्य युक्त करेंगे। ऋजुगामी इन्द्रियों को व ग्रहणीय बल को प्राप्त करके हम ज्ञानी बनेंगे और भवसागर को पार कर सकेंगे।

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    विषय

    प्रयाण का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! तू (अवस्युः) प्रजा की रक्षा करना चाहता हुआ, (वातस्य) प्रचण्ड वायु के तुल्य बलशाली शत्रु को मूल से उखाड़ देने और कंपा देने में समर्थ स्व सैन्य का (तोदः) सञ्चालक और पर-सैन्य का नाशक और (हर्योः) वेगवान् अश्वों के तुल्य स्व और पर राष्ट्र के नायकों का (ईशानः) स्वामी वा (वातस्य हर्यो : ईशानः) वायु वेग से जाने वाले रथ के अश्वों का स्वामी होकर (कुत्सेन) वज्र वा शस्त्रास्त्र बल को लेकर (सरथम्) अपने रथ सैन्यों सहित (यासि) प्रयाण कर (न) जिस प्रकार (गध्यं युयूषन् वाजं अहन् पार्याय भवति) ग्रहण करने योग्य पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा वाला पुरुष वेगवान् रथ को प्राप्त करता है और दूर स्थित मार्ग को पार करने में समर्थ होता है उसी प्रकार तू (कविः) क्रान्तदर्शी होकर (ऋज्रा) ऋजु, सरल, धर्मयुक्त कार्यों को (वाजं) संग्राम, बल, वेग वा ऐश्वर्य और (गध्यं) ग्रहण करने योग्य पदार्थ को (युयूषन्) प्रात करना चाहता हुआ, (अहन्) प्राप्य उद्देश्य तक पहुंच और (पार्याय भूषात्) प्रजा पालन योग्य पद, ऐश्वर्य को प्राप्त करने और शत्रु संकट को पार करने में समर्थ हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ६, ८, ९, १२, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप् । ७, १६, १७ विराट् त्रिष्टुप् । २, २१ निचृत् पंक्तिः। ५, १३, १४, १५ स्वराट् पंक्तिः। १०, ११, १८,२० २० भुरिक् पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक निन्दित कर्म व निन्दित लोकांचा संग सोडून सत्य न्यायाने प्रजेचे पालन करत पुरुषार्थ करतात, ते सर्व प्रकारे सुशोभित होतात. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    You advance with the thunderbolt, O protector of the people, destroyer of enemies, riding the chariot, commanding the house like currents of the winds, a very team of energy and velocity in hand, the lord of vision and creation who destroys the wicked and wins the glory of victory.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Again the duties of a king are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! you desire to protect others, and destroy the enemies. The master of wind-like speedy horses, you go to the army with your chariot (transport), desiring to coordinate and guide movement and speed. Being a man of surpassing wisdom, you finish all the contemptible wicked persons. Approach him who crowns himself with noble virtues and banishes all the evils and miseries. Only then you are fit to rule.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons are fully revered, who always to guard the people with truth and justice. They give up all contemptible acts and the association with mean and wicked persons.

    Foot Notes

    (गध्यम् ) ग्रहीतव्यम् । अत्र वर्णव्यत्ययेन रेफलोपो हस्य घः । गध्यं गृह्णाते: (NKT 5,' 3, 15 ) = Worth taking, good. (तोदः) शत्रूणां हन्ता । = Destroyer of enemies. (हर्योः) अश्वयोः । हरी-इन्द्रस्य (NKT 1,15) = Of the horses.

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