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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 18
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    भुवो॑ऽवि॒ता वा॒मदे॑वस्य धी॒नां भुवः॒ सखा॑वृ॒को वाज॑सातौ। त्वामनु॒ प्रम॑ति॒मा ज॑गन्मोरु॒शंसो॑ जरि॒त्रे वि॒श्वध॑ स्याः ॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भुवः॑ । अ॒वि॒ता । वा॒मऽदे॑वस्य । धी॒नाम् । भुवः॑ । सखा॑ । अ॒वृ॒कः । वाज॑ऽसातौ । त्वाम् । अनु॑ । प्रऽम॑तिम् । आ । ज॒ग॒न्म॒ । उ॒रु॒ऽशंसः॑ । ज॒रि॒त्रे । वि॒श्वध॑ । स्याः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भुवोऽविता वामदेवस्य धीनां भुवः सखावृको वाजसातौ। त्वामनु प्रमतिमा जगन्मोरुशंसो जरित्रे विश्वध स्याः ॥१८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भुवः। अविता। वामऽदेवस्य। धीनाम्। भुवः। सखा। अवृकः। वाजऽसातौ। त्वाम्। अनु। प्रऽमतिम्। आ। जगन्म। उरुऽशंसः। जरित्रे। विश्वध। स्याः ॥१८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 18
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कीदृशं राजानं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे विश्वध राजंस्त्वं वाजसातौ वामदेवस्य धीनामविता भुवोऽवृकः सखा भुव उरुशंसो जरित्रे सुखदः स्या यतस्त्वामनु प्रमतिमाजगन्म ॥१८॥

    पदार्थः

    (भुवः) भव (अविता) (वामदेवस्य) सुरूपयुक्तस्य विदुषः (धीनाम्) प्रज्ञानाम् (भुवः) भव (सखा) सुहृत् (अवृकः) अस्तेनः (वाजसातौ) सङ्ग्रामे (त्वाम्) (अनु) (प्रमतिम्) प्रकृष्टां प्रज्ञाम् (आ) (जगन्म) (उरुशंसः) बहुप्रशंसः (जरित्रे) स्तुत्याय (विश्वध) यो विश्वं दधाति तत्सम्बुद्धौ (स्याः) भवेत् ॥१८॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यः सर्वाधीशो वीराणां युद्धकुशलानामुपदेशकानां प्रज्ञानां रक्षको भवेत् तमेव राजानं कुरुत ॥१८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब कैसे को राजा करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (विश्वध) संसार के धारण करनेवाले राजन् ! आप (वाजसातौ) संग्राम में (वामदेवस्य) उत्तमरूप से युक्त विद्वान् और (धीनाम्) बुद्धियों के (अविता) रक्षा करनेवाले (भुवः) हूजिये (अवृकः) चोरीरहित (सखा) मित्र (भुवः) हूजिये और (उरुशंसः) बहुत प्रशंसायुक्त होते हुए (जरित्रे) स्तुति करने योग्य के लिये सुखदायक (स्याः) हूजिये जिससे (त्वाम्) आपके (अनु) पश्चात् (प्रमतिम्) उत्तम बुद्धि को (आ, जगन्म) प्राप्त होवें ॥१८॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो सब का स्वामी और वीरपुरुष युद्ध में चतुर उपदेश देनेवाले और बुद्धिमानों का रक्षक होवे, उसी को राजा करो ॥१८॥

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    विषय

    अवृकः सखा [निरीह मित्र]

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! आप (वामदेवस्य) = सुन्दर दिव्य गुणों को प्राप्त करनेवाले पुरुष के (धीनाम्) = ज्ञानपूर्वक किये जानेवाले कर्मों के (अविता भुवः) = रक्षक होते हैं । वस्तुतः प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न होकर ही ये अपने कार्यों को कर पाते हैं। आप (वाजसातौ) = इस जीवन-संग्राम में हमारे (अवृकः) = किसी भी प्रकार के लोभ से रहित (सखा भुवः) = मित्र होते हैं। आपकी मित्रता ही हमें इस संग्राम में विजयी बनाती है। [२] (त्वाम् अनु) = आपकी उपासना के अनुपात में ही (प्रमतिम्) = प्रकृष्ट बुद्धि को (आजगन्म) = प्राप्त हों। इस बुद्धि के अनुसार कार्य करते हुए ही हम विजयी होंगे। हे प्रभो! आप (जरित्रे) = स्तोता के लिए (विश्वध) = सदा (उरु शंसः स्या:) = अत्यन्त कर्त्तव्यों का शंसनवाले होइये । आप से ही कर्त्तव्य ज्ञान को प्राप्त करके हम भटकने से बच पायेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारी बुद्धियों के रक्षक हैं। संग्राम में हमारे सच्चे साथी हैं। प्रभु की उपासना से ही शुद्धबुद्धि प्राप्त होती है और प्रभु ही उपासक के लिए कर्त्तव्य का ज्ञान प्राप्त कराते हैं ।

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    विषय

    सर्वोपरि राजा और प्रभु । प

    भावार्थ

    हे (विश्वध) समस्त राष्ट्र वा विश्व को धारण करने हारे राजन् ! प्रभो ! विद्वन् ! तू (वामदेवस्य) उत्तम रीति से सेवन करने योग्य पदार्थों के दाता और उत्तम ज्ञानों के प्रकाशक दानी वा विद्वान प्रजाजन की (धीनां) बुद्धियों और सत्कर्मों का (अविता) रक्षक और प्रेरक (भुवः) हो । तू (वाजसातौ) ऐश्वर्य को प्राप्त करने और दान करने के काल में वा युद्धादि में, उसका (अवृकः) चोर के छल कपटादि से रहित सच्चा (सखा) मित्र (भुवः) हो । हम (त्वाम् प्रमतिम् अनु आ जगन्म) तुझ उत्तम ज्ञानवान् का अनुसरण करें । तू (जरित्रे) स्तुतिकर्त्ता वा अध्येता शिष्य को (ऊरुशंसः स्याः) बहुत सी विद्याओं का उपदेश करने वाला हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ६, ८, ९, १२, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप् । ७, १६, १७ विराट् त्रिष्टुप् । २, २१ निचृत् पंक्तिः। ५, १३, १४, १५ स्वराट् पंक्तिः। १०, ११, १८,२० २० भुरिक् पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जो सर्वाधीश, वीर पुरुष, युद्धात चतुर, उपदेशक व बुद्धिमानांचा रक्षक असेल त्यालाच राजा करा. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, ruler of the world, be protector of the holy and graceful scholar and promoter of arts and sciences. Be our friend and supporter, free from greed and violence in the battles of life for victory so that, O lord universally celebrated, we may follow our good sense and your guidance. Be the bearer and giver of the world’s wealth for the faithful celebrant.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The pre-requistes of a king is described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! upholder of all, you protect the intellect of a beautiful learned person. Be his honest or sincere friend in all battles and disputes. Much praised everywhere, you be giver of happiness to an admirable person, so that we may get good intellect flowing from you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! make him only a king, who is master of all and the guardian of the intellect of the heroes and experts in the battles who know the warfare and are ideal preachers.

    Foot Notes

    (वामदेवस्य ) सुरूपयुक्तस्य विदुषः । वाम इति प्रशस्यनाम (NG 3, 8) = Of a learned and beautiful person. (वाजसातो) सङ्ग्रामे | वाजसातौ इति संग्रामनाम (NG 2, 17 ) = In the battle. (अवृकः) अस्तेन:। वृक इति स्तेननाम (NG 3, 24 ) = Not a thief, honest or sincere. (जरित्रे ) स्तुत्याय | = For an admirable man. Here Vamadeva is not a particular person by name, as it is against the fundamental principle of the Vedic terminology and परन्तु श्रुति सामान्यम् referred to in the Meemansa (a branch of Indian system of philosophy). It means an admirable highly learned person who is beautiful because of knowledge, wisdom, truthfulness and other virtues. Ed.)

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