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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 16/ मन्त्र 15
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    इन्द्रं॒ कामा॑ वसू॒यन्तो॑ अग्म॒न्त्स्व॑र्मीळ्हे॒ न सव॑ने चका॒नाः। श्र॒व॒स्यवः॑ शशमा॒नास॑ उ॒क्थैरोको॒ न र॒ण्वा सु॒दृशी॑व पु॒ष्टिः ॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म् । कामाः॑ । व॒सु॒ऽयन्तः॑ । अ॒ग्म॒न् । स्वः॑ । मीळ्हे॑ । न । सव॑ने । च॒का॒नाः । श्र॒व॒स्यवः॑ । श॒श॒मा॒नासः॑ । उ॒क्थैः । ओकः॑ । न । र॒ण्वा । सु॒दृशी॑ऽइव । पु॒ष्टिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रं कामा वसूयन्तो अग्मन्त्स्वर्मीळ्हे न सवने चकानाः। श्रवस्यवः शशमानास उक्थैरोको न रण्वा सुदृशीव पुष्टिः ॥१५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम्। कामाः। वसुऽयन्तः। अग्मन्। स्वःऽमीळ्हे। न। सवने। चकानाः। श्रवस्यवः। शशमानासः। उक्थैः। ओकः। न। रण्वा। सुदृशीऽइव। पुष्टिः ॥१५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 16; मन्त्र » 15
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजविषये सेनामात्यादियोग्यताविषयं चाह ॥

    अन्वयः

    हे राजन् ! ये वसूयन्तः कामाः सवने चकानाः श्रवस्यवः शशमानास उक्थैरोको न स्वर्मीळ्हे न या सुदृशीव रण्वा पुष्टिस्तामग्मन्। तां प्राप्येन्द्रं तांस्त्वं सेनाराज्यकर्माचारिणः कुरु ॥१५॥

    पदार्थः

    (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यम् (कामाः) ये कामयन्ते (वसूयन्तः) आत्मनो वसूनि धनानीच्छन्तः (अग्मन्) प्राप्नुवन्ति (स्वर्मीळ्हे) स्वः सुखेन युक्ते सङ्ग्रामे। मीळ्ह इति सङ्ग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (न) इव (सवने) प्रेरणे (चकानाः) देदीप्यमानाः (श्रवस्यवः) आत्मनः श्रवोऽन्नमिच्छन्तः (शशमानासः) शत्रुबलस्योल्लङ्घकाः (उक्थैः) प्रशंसितैर्गुणैः (ओकः) गृहम् (न) इव (रण्वा) रमणीया (सुदृशीव) सुष्ठु द्रष्टुं योग्येव (पुष्टिः) ॥१५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये धनकामाः स्युस्ते शरीरात्मबलं वर्धयित्वा युद्धस्य विद्यासामग्र्यौ पूर्णे कुर्वन्तु ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजविषय में सेना और अमात्य आदिकों की योग्यता के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजन् ! जो (वसूयन्तः) अपने को धनों की इच्छा करते हुए (कामाः) कामना करनेवाले (सवने) प्रेरणा करने में (चकानाः) प्रकाशमान (श्रवस्यवः) अपने को अन्न की इच्छा करते हुए (शशमानासः) शत्रुओं के बल का उल्लङ्घन करनेवाले (उक्थैः) प्रशंसित गुणों से (ओकः) गृह के (न) सदृश (स्वर्मीळ्हे) जैसे सुख से युक्त संग्राम में (न) वैसे जो (सुदृशीव) उत्तम प्रकार देखने के योग्य सी (रण्वा) सुन्दर (पुष्टिः) पुष्टि उसको (अग्मन्) प्राप्त होते हैं, उसको प्राप्त होकर (इन्द्रम्) अत्यन्त ऐश्वर्य्यवाले को और उन पूर्वोक्त जनों को आप सेना और राज्य के कर्मचारी करिये ॥१५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो धन की कामनावाले होवें, वे शरीर और आत्मा के बल को बढ़ाके युद्ध की विद्या और सामग्री पूर्ण करें ॥१५॥

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    विषय

    प्रभुरूप धन

    पदार्थ

    [१] (कामाः) = प्रभुप्राप्ति की प्रबल कामनावाले (वसूयन्त:) = सब वसुओं को अपनाने की कामना करते हुए उपासक (इन्द्रं अग्मन्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को प्राप्त होते हैं। ये लोग (न) = जैसे (स्वर्मीढे) = संग्राम में काम-क्रोध आदि शत्रुओं के साथ अध्यात्म संग्राम में उसी प्रकार सवने यज्ञों में (चकाना:) = [कन् दीप्तौ] उस प्रभु की याचना करते हैं। [२] (श्रवस्यवः) = ज्ञान प्राप्ति की कामनावाले होते हैं। (उक्थैः) = स्तोत्रों से (शशमानासः) = प्रभु का शंसन करनेवाले होते हैं। वे प्रभु इनके लिए (ओकः न) = निवास स्थान की तरह (रण्वा) = रमणीय होते हैं। प्रभु-निवास में ही ये आनन्द का अनुभव करते हैं और (सुदृशी इव पुष्टि:) = शोभन दर्शना लक्ष्मी के समान होते हैं प्रभु ही इनके धन होते हैं। ये प्रभुभक्त प्रवास व भटकने व भूखे मरने आदि कष्टों को नहीं प्राप्त होते।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अध्यात्म-संग्रामों व यज्ञों द्वारा प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमारे रमणीय गृह व शोभनदर्शना लक्ष्मी होंगे।

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    विषय

    प्रजाओं का राजा को, गुरु को शिष्य और पति को स्त्रीवत् वरण द्वारा प्राप्त होना ।

    भावार्थ

    (कामाः) ऐश्वर्यादि कामनाओं को करने वाले (वसूयन्तः) धनादि चाहने वाले (स्वर्मीळहे) सुख और तेज से युक्त संग्राम के तुल्य (सवने) शासन में (चकानाः) कान्तियुक्त, तेजस्वी पुरुष (इन्द्रम्) ऐश्वर्ययुक्त वे (उक्थैः) उत्तम वचनों से (शशमानासः) स्तुति करते हुए (श्रवस्यवः) के श्रवण करने योग्य ज्ञान के अभिलाषी शिष्य के तुल्य स्वयं अन्न, यश की इच्छा करते हुए राजा को गुरुवत् (अग्मन्) प्राप्त हों वह राजा वा प्रजा परस्पर (ओकः न) गुरु गृह के समान हों और (रण्वा) रमणीय, रौनकदार (सुदृशी इव) उत्तम दर्शनीय एक सुलोचना स्त्री के तुल्य (पुष्टिः) पोषक सम्पदा के तुल्य हों । इत्येकोनविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ४, ६, ८, ९, १२, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप् । ७, १६, १७ विराट् त्रिष्टुप् । २, २१ निचृत् पंक्तिः। ५, १३, १४, १५ स्वराट् पंक्तिः। १०, ११, १८,२० २० भुरिक् पंक्तिः॥ विंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे धनाची इच्छा करणारे असतात त्यांनी शरीर व आत्मा यांचे बल वाढवून युद्धविद्या व सामग्री तयार ठेवावी. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Those who love life, wish for the wealth of life, strive for the bliss of heaven on earth through yajnic action, desire for food, energy and victory in the battle of living, and with songs of praise and faith wish to achieve delightful health and nourishment in a paradisal home, all should go and join Indra, brilliant and potent ruler of the world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The criteria and qualities of the army and ministers etc. are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! make those persons in charge of the army and in civil administration, who desire wealth, food and good reputation simultaneously with the prosperity of the State. They are resplendent when prompted, surpass the enemies in their strength, such people attain happiness on account of victory in the battle. They are indeed charming, lovely, inspiring, virtuous, and treating the welfare of the State as that of their homes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The desirous of wealth should develop the physical and spiritual strength and should be proficient in the science of warfare and collect all requisites.

    Foot Notes

    (इन्द्रम् ) परमैश्वर्य्यम् = Prosperity. (स्वमीहल) स्वः सुखेन युक्तळे सङ्ग्रामे । मीहल इति सङ्ग्रामनाम (NG 2, 17) = In the battle which leads to happiness. (शशमानासः) शत्रुबलस्योल्लङ्घका: | Surpassing the strength of the enemies. (ओक:) गृहम् । ओक इति निवासनामोच्यते (NG 3, 1, 3) = Home, (चकानाः ) देदीप्यमानाः = Shining. (श्रवस्यवः ) आत्मनः श्रवोऽन्नमिच्छन्तः । श्रव इत्यन्ननाम (NKT 10, 1, 5) श्रव इति अन्तनाम (NG 2, 7) श्रव इति धननाम (NG 2, 1 ) श्रयते इति निरुक्तया यशसोपि ग्रहणम् । = With plenty of food grains.

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