ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 13
ऋषिः - बभ्रु रात्रेयः
देवता - इन्द्र ऋणञ्चयश्च
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सु॒पेश॑सं॒ माव॑ सृज॒न्त्यस्तं॒ गवां॑ स॒हस्रै॑ रु॒शमा॑सो अग्ने। ती॒व्रा इन्द्र॑मममन्दुः सु॒तासो॒ऽक्तोर्व्यु॑ष्टौ॒ परि॑तक्म्यायाः ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽपेश॑सम् । मा॒ । अव॑ । सृ॒ज॒न्ति॒ । अस्त॑म् । गवा॑म् । स॒हस्रैः॑ । रु॒शमा॑सः । अ॒ग्ने॒ । ती॒व्राः । इन्द्र॑म् । अ॒म॒म॒न्दुः॒ । सु॒तासः॑ । अ॒क्तोः । विऽउ॑ष्टौ । परि॑ऽतक्म्यायाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुपेशसं माव सृजन्त्यस्तं गवां सहस्रै रुशमासो अग्ने। तीव्रा इन्द्रमममन्दुः सुतासोऽक्तोर्व्युष्टौ परितक्म्यायाः ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठसुऽपेशसम्। मा। अव। सृजन्ति। अस्तम्। गवाम्। सहस्रैः। रुशमासः। अग्ने। तीव्राः। इन्द्रम्। अममन्दुः। सुतासः। अक्तोः। विऽउष्टौ। परिऽतक्म्यायाः ॥१३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 13
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! ये गवां सहस्रै रुशमासस्तीव्राः सुतासः परितक्म्याया अक्तोर्व्युष्टौ सुपेशसं माऽस्तं गृहमिवाव सृजन्तीन्द्रमममन्दुस्ताँस्त्वं विज्ञाय यथावत् सेवस्व ॥१३॥
पदार्थः
(सुपेशसम्) अतीवसुन्दरूपम् (मा) माम् (अव) (सृजन्ति) (अस्तम्) गृहम् (गवाम्) किरणानाम् (सहस्रैः) (रुशमासः) हिंसकहिंसकाः (अग्ने) (तीव्राः) तीक्ष्णस्वभावाः (इन्द्रम्) सूर्यमिव राजानम् (अममन्दुः) आनन्दयेयुः (सुतासः) विद्यादिशुभगुणैर्निष्पन्नाः (अक्तोः) रात्रेः (व्युष्टौ) प्रभातवेलायाम् (परितक्म्यायाः) परितः सर्वतस्तकन्ति हसन्ति यैः कर्म्मभिस्तेषु भवायाः ॥१३॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यदि विद्युत्सूर्यरूपोऽग्निर्युक्त्या युष्माभिः सेव्येत तर्ह्यहर्निशं सुखेनैव गच्छेत् ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के सदृश वर्त्तमान राजन् ! जो (गवाम्) किरणों के (सहस्रैः) सहस्रों समूहों से (रुशमासः) हिंसकों के नाश करनेवाले (तीव्राः) तीक्ष्ण स्वभावयुक्त जो (सुतासः) विद्या आदि उत्तम गुणों से उत्पन्न हुए (परितक्म्यायाः) सब प्रकार हंसते हैं, जिन कर्म्मों से उनमें हुई (अक्तोः) रात्रि की (व्युष्टौ) प्रभातवेला में (सुपेशसम्) अत्यन्त सुन्दर रूपवाले (मा) मुझे को (अस्तम्) गृह के सदृश (अव, सृजन्ति) उत्पन्न करते हैं और (इन्द्रम्) सूर्य्य के सदृश तेजस्वी राजा को (अममन्दुः) आनन्दित करें, उनको आप जान के यथावत् सेवा करो ॥१३॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो बिजुली और सूर्यरूप अग्नि युक्तिपूर्वक आप लोगों से सेवन किया जाये तो दिन और रात्रि सुखपूर्वक व्यतीत होवे ॥१३॥
विषय
अधीनजनों का राजा से पुत्र पिता का सा सम्बन्ध ।
भावार्थ
भा०—लोग ( गवां सहस्रैः ) हज़ारों गौवों से ( अस्तं ) घर को जिस प्रकार ( सुपेशसम् ) उत्तम धनधान्य युक्त, सुरूप, सुन्दर बना लेते हैं उसी प्रकार हे (अग्ने) अग्रणी नायक ! ( रुशमासः ) तेजस्वी वीर पुरुष ( गवां सहस्रैः ) सहस्रों भूमियों से ( मा ) मुझ राष्ट्र वासी प्रजाजन को ( सुपेशसं ) उत्तम सुवर्णादि से सम्पन्न ( अव सृजन्ति ) करें । ( अक्तोः व्युष्टौ यथा सुतासः इन्द्रम् अममन्दुः ) रात्रि के अनन्तर प्रातः उषाकाल होने पर जिस प्रकार बच्चे पिता को प्रसन्न करते हैं उसी प्रकार ( परितक्म्यायाः व्युष्टौ ) सब तरफ़ आनन्द प्रसन्नता की वेला के आगमन पर (तीव्राः ) तीव्र ( सुतासः ) अभिषिक्त वीर पुरुष भी ( इन्द्रम् अममन्दुः ) अपने राजा को प्रसन्न करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बभ्रुरात्रेय ऋषिः ॥ इन्द्र ऋणञ्चयश्च देवता ॥ छन्दः–१,५, ८, ९ निचृत्त्रिटुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । ७, ११, १२ त्रिष्टुप् । ६, १३ पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । १५ भुरिक् पंक्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
समावर्तन
पदार्थ
१. आचार्य व उपाध्याय विद्यार्थी को ज्ञान देकर सुन्दर जीवनवाला [= सुपेशस्] बनाकर घर में वापिस भेजते हैं। यही समावर्तन है। समावृत्त होता हुआ विद्यार्थी कहता है कि हे (अग्ने) = प्रभो ! (रुशमासः) = ये वासनाओं का संहार करनेवाले उपाध्याय (गवां सहस्त्रैः) = हजारों ज्ञान वाणियों के द्वारा (सुपेशसम्) = उत्तम रूपवाला [उत्तम जीवनवाला] बनाकर (मा) = मुझे (अस्तम् अवसृजन्ति) = घर को प्राप्त करते हैं। आज मुझे सुपेशस् [पेश= Shape] बनाकर घर पर लौटने की अनुमति देते हैं। २. वस्तुतः (परितक्म्यायाः) = [परितः तमसा तकति] चारों ओर से अन्धकार से व्याप्त करनेवाली (अक्तोः व्युष्टौ) = अज्ञान रात्रि के समाप्त होने पर - ज्ञान प्रभात के रूप में परिवर्तित हो जाने पर - (इन्द्रम्) = मुझ जितेन्द्रिय पुरुष को (सुतासः) = उत्पन्न हुए (तीव्रा:) = प्रबल शक्तिवाले ये सोमकण (अममन्दुः) = आनन्द को देनेवाले हुए हैं। इनके द्वारा ही ज्ञानाग्नि की प्रचण्डता से मेरे लिए ज्ञानग्रहण का भी सम्भव हुआ है और उन्होंने ही मेरे गृहस्थ को सुसन्तति वाला बनाया है।
भावार्थ
भावार्थ- आचार्यों व उपाध्यायों ने ज्ञान देकर मेरे अज्ञानान्धकारवाली रात्रि को समाप्त किया है। मुझे सोमरक्षक बनाकर आनन्दित किया है।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जो विद्युत सूर्यरूपी अग्नी तुमच्याकडून युक्तीने ग्रहण केला गेला तर दिवस व रात्री सुखपूर्वक व्यतीत होतात. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, refulgent ruler, brilliant forces, destroyers of evil and darkness, create and give me a beautiful home with a thousand bright rays of light, and at the end of the departing night in the light of the dawn, blazing fires bear distilled soma oblations and rise to Indra, the sun, and give him delight.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of Agni (king) goes on.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned king ! purifier like the fire, you should know the person's and duly serve them, who are the destroyers of the violent by the use of thousands of rays-of the sun, and possessor of sharp knowledge and other noble virtues, when the night is turned into the dawn create in me the lovely form, so that gladden the ruler who is like the sun.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! if you serve Agni (electricity and sun) methodically, you may spend day and night very happily.
Foot Notes
(रूशमासः ) हिंसकहिंसका: तके-हंसने । = Annihilators of the violent persons. (इन्द्रम् ) सूर्यमिव राजानम् । यो वै इन्द्रः स सूर्य:, यः सूर्यः स इन्द्र:, (Stph) = The king who is like the sun. (परितवम्यायाः ) परितः सर्वतस्तकन्ति हसन्ति ये: कर्मभिस्तेषु भवा याः । परितक्म्या इति रात्रिनाम (NG 4, 1 ) तके-हसने । = Of the night in which men perform of acts causing laughter and joy. (अक्तोः) रात्रे: । अक्तुः इति रात्रिनाम (NG 1, 7) = Of the night.
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