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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गौरिवीतिः शाक्त्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अवा॑चचक्षं प॒दम॑स्य स॒स्वरु॒ग्रं नि॑धा॒तुरन्वा॑यमि॒च्छन्। अपृ॑च्छम॒न्याँ उ॒त ते म॑ आहु॒रिन्द्रं॒ नरो॑ बुबुधा॒ना अ॑शेम ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । अ॒च॒च॒क्ष॒म् । प॒दम् । अ॒स्य॒ । स॒स्वः । उ॒ग्रम् । नि॒ऽधा॒तुः । अनु॑ । आ॒य॒म् । इ॒च्छन् । अपृ॑च्छम् । अ॒न्यान् । उ॒त । ते । मे॒ । आ॒हुः॒ । इन्द्र॑म् । नरः॑ । बु॒बु॒धा॒नाः । अ॒शे॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवाचचक्षं पदमस्य सस्वरुग्रं निधातुरन्वायमिच्छन्। अपृच्छमन्याँ उत ते म आहुरिन्द्रं नरो बुबुधाना अशेम ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव। अचचक्षम्। पदम्। अस्य। सस्वः। उग्रम्। निऽधातुः। अनु। आयम्। इच्छन्। अपृच्छम्। अन्यान्। उत। ते। मे। आहुः। इन्द्रम्। नरः। बुबुधानाः। अशेम ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    शिल्पविद्यामिच्छन्नहं यावन्यान् विदुषोऽपृच्छं ते बुबुधाना नरो म इन्द्रमाहुस्तमस्य निधातुः सस्वरुग्रं पदमन्वायमन्यान् प्रत्यवाचचक्षमेवमुत मित्रवद्वर्त्तमाना वयं साङ्गोपाङ्गाः शिल्पविद्या अशेम ॥२॥

    पदार्थः

    (अव) (अचचक्षम्) कथयेयम् (पदम्) प्रापणीयं विज्ञानम् (अस्य) शिल्पस्य (सस्वः) गुप्तम् (उग्रम्) उग्रगुणकर्मस्वभावम् (निधातुः) धरतुः (अनु) (आयम्) प्राप्नुयाम् (इच्छन्) (अपृच्छम्) पृच्छेयम् (अन्यान्) विदुषः (उत) (ते) विद्वांसः (मे) मह्यम् (आहुः) कथयन्तु (इन्द्रम्) विद्युतम् (नरः) नायकाः (बुबुधानाः) सम्बोधयुक्ताः (अशेम) प्राप्नुयाम ॥२॥

    भावार्थः

    यदा जिज्ञासवो विदुषः प्रति पृच्छेयुस्तदा तान् प्रति यथार्थमुत्तरं प्रदद्युरेवं सखायः सन्तो विद्युदादिविद्यामुन्नयेयुः ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    शिल्पविद्या की (इच्छन्) इच्छा करता हुआ मैं जिन (अन्यान्) अन्य विद्वानों को (अपृच्छम्) पूछूँ (ते) वे (बुबुधानाः) सम्बोधयुक्त (नरः) नायक जन विद्वान् (मे) मेरे लिये (इन्द्रम्) बिजुली को (आहुः) कहें, उसको (अस्य) इस शिल्पविद्या के (निधातुः) धारण करनेवाले के (सस्वः) गुप्त (उग्रम्) उग्र गुण, कर्म्म और स्वभाववाले (पदम्) प्राप्त होने योग्य विज्ञान को (अनु, आयम्) अनुकूल प्राप्त होऊँ और अन्यों के प्रति (अव, अचचक्षम्) निश्शेष कहूँ, इस प्रकार (उत) भी मित्र के सदृश वर्त्तमान हम लोग अङ्ग और उपाङ्गों के सहित शिल्पविद्याओं को (अशेम) प्राप्त होवें ॥२॥

    भावार्थ

    जब शिल्प आदि के जानने की इच्छा करनेवाले जन विद्वानों के प्रति पूछें, तब उनके प्रति यथार्थ उत्तर देवें, इस प्रकार परस्पर मित्र हुए बिजुली आदि की विद्या की उन्नति करें ॥२॥

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    विषय

    बीज निधाता प्रभु और कोशसञ्चयी राजा का वर्णन । विद्यादाता गुरु का वर्णन ।

    भावार्थ

    भा०- मैं (अस्य) इस ( निधातुः ) समस्त संसार को नियम में धारण करने वाले और प्रकृति के भीतर बीज निधान करने या उत्पन्न करने वाले परमेश्वर का ( स-स्वः ) परम सुख युक्त तेजोमय और वाङ्मय ( उग्रम् ) दुष्टों के लिये अति भयप्रद ( पदम् ) स्वरूप को मैं ( अव चचक्षम् ) निरन्तर विनयपूर्वक दर्शन करूं । और उसी को (इच्छन्) चाहता हुआ ( अनु आयम् ) निरन्तर प्राप्त होऊं । अथवा ( तस्य आयम् अनु इच्छन्) उस प्रभु को प्राप्त करने की नित्य अभिलाषा करता हुआ ( अन्यान् अपृच्छम् ) मैं और विद्वानों से प्रश्न करूं । ( उत ) और ( ते ) वे (मेआहुः ) मुझे उपदेश करे कि ( बुबुधानाः नरः ) ज्ञान करते हुए हम ज्ञानी, प्रबुद्ध लोग ही ( इन्द्रं अशेम ) 'इन्द्र' परमेश्वर को प्राप्त कर सकते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बभ्रुरात्रेय ऋषिः ॥ इन्द्र ऋणञ्चयश्च देवता ॥ छन्दः–१,५, ८, ९ निचृत्त्रिटुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । ७, ११, १२ त्रिष्टुप् । ६, १३ पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । १५ भुरिक् पंक्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    नर+बुबुधान

    पदार्थ

    १. (अस्य) = इस प्रभु के (सस्वः) = [गुप्तं द०, अन्तर्हित सा०] अन्तर्हित अथवा (स-स्वः) = प्रकाशमय (उग्रम्) = तेजस्वी (पदम्) = रूप को (अवाचचक्षम्) = विषयों से हटकर हृदय के अन्दर देखता हूँ। (निधातुः) = इस संसार के धारण करनेवाले के (अयम्) = आगमन व प्राप्ति को (अनु इच्छन्) = चाहता हुआ मैं (अन्यान् अपृच्छम्) = अन्य विद्वानों से भी जानने का प्रयत्न करता हूँ । (उत) = और (ते) = वे (विद्वान् मे) = मेरे लिए (आहुः) = कहते हैं कि (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (नरः) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले तथा (बुबुधाना:) = ज्ञानवाले होते हुए (अशेम) = प्राप्त करें । अर्थात् प्रभु-प्राप्ति का मार्ग यही है कि 'नर' बनें – बुबुधान बनें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे हृदयों में ही विद्यमान है। उन्हें देखने के लिए आवश्यक है कि [क] हम उन्नति पथ पर चलनेवाले 'नर' बनें । तथा [ख] निरन्तर ज्ञानज्योति को प्राप्त करनेवाले 'बुबुधान' हों।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शिल्प इत्यादी विद्येबाबत जिज्ञासू लोकांनी प्रश्न विचारले तर विद्वानांनी त्याचे योग्य उत्तर द्यावे व परस्पर मित्र बनून विद्युत इत्यादी विद्या वाढवावी. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    With the desire to pursue and achieve success, I have discovered and described the science of this mighty source of immanent energy. Let me consult and ask others too who would speak of Indra, the energy, to me. And the best of men and leading scholars among men, enlightened all, we would realise and achieve it in full.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of Indra is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Whomsoever scholars desirous of acquiring the knowledge of the technology, I asked, all those enlightened me acquire the men told me about the Indra (electricity). Let secret and effective knowledge of this science of upholding of noble achievements, and tell it to others. In this manner, being friendly to one another, let us learn this technology with all its branches.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When persons desirous to acquire some knowledge put questions, proper answer must be given to them. In this way, all should advance the cause of the science of electricity etc. together.

    Foot Notes

    (सस्वः) गुप्तम् । = Secret (पदम् ) प्रापणीयं विज्ञानम् । = The knowledge of science which should be acquired.

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