ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 8
ऋषिः - बभ्रु रात्रेयः
देवता - इन्द्र ऋणञ्चयश्च
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
युजं॒ हि मामकृ॑था॒ आदिदि॑न्द्र॒ शिरो॑ दा॒सस्य॒ नमु॑चेर्मथा॒यन्। अश्मा॑नं चित्स्व॒र्यं१॒॑ वर्त॑मानं॒ प्र च॒क्रिये॑व॒ रोद॑सी म॒रुद्भ्यः॑ ॥८॥
स्वर सहित पद पाठयुज॑म् । हि । माम् । अकृ॑थाः । आत् । इत् । इ॒न्द्र॒ । शिरः॑ । दा॒सस्य॑ । नमु॑चेः । म॒था॒यन् । अश्मा॑नम् । चित् । स्व॒र्य॑म् । वर्त॑मानम् । प्र । च॒क्रिया॑ऽइव । रोद॑सी॒ इति॑ । म॒रुत्ऽभ्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युजं हि मामकृथा आदिदिन्द्र शिरो दासस्य नमुचेर्मथायन्। अश्मानं चित्स्वर्यं१ वर्तमानं प्र चक्रियेव रोदसी मरुद्भ्यः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठयुजम्। हि। माम्। अकृथाः। आत्। इत्। इन्द्र। शिरः। दासस्य। नमुचेः। मथायन्। अश्मानम्। चित्। स्वर्यम्। वर्तमानम्। प्र। चक्रियाऽइव। रोदसी इति। मरुत्ऽभ्यः ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यथा सूर्यो नमुचेर्दासस्य शिरो मथायञ्चिदपि स्वर्यं वर्त्तमानमश्मानं पृथिव्या सह युनक्ति चक्रियेव मरुद्भ्यो रोदसी भ्रामयति तथादिन्मां हि युजं प्राकृथाः ॥८॥
पदार्थः
(युजम्) युक्तम् (हि) (माम्) (अकृथाः) कुर्याः (आत्) (इत्) (इन्द्र) राजन् (शिरः) शिरोवद्वर्त्तमानं धनम् (दासस्य) जलस्य दातुः (नमुचेः) प्रवाहरूपेणाऽविनाशिनो मेघस्य (मथायन्) मन्थनं कुर्वन् (अश्मानम्) अश्नुवन्तं मेघम् (चित्) अपि (स्वर्यम्) स्वरेषु शब्देषु साधुः (वर्त्तमानम्) (प्र) (चक्रियेव) यथा चक्राणि तथा (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (मरुद्भ्यः) वायुभ्यः ॥८॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे राजानो ! यूयं यथा सूर्यो मेघं वर्षयित्वा जगत्सुखं वायुना भूगोलान् भ्रामयित्वाऽहर्निशं च करोति तथैव विद्याविनयौ राज्ये प्रवर्ष्य स्वे स्वे कर्मणि सर्वांश्चालयित्वा सुखविजयौ तनयत ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) राजन् ! जैसे सूर्य्य (नमुचेः) प्रवाहरूप से नहीं नाश होने और (दासस्य) जल देनेवाले मेघ के (शिरः) शिर के सदृश वर्त्तमान कठिन अङ्ग का (मथायन्) मन्थन करता हुआ (चित्) भी (स्वर्यम्) शब्दों में श्रेष्ठ (वर्त्तमानम्) वर्त्तमान (अश्मानम्) व्याप्त होते हुए मेघ को पृथिवी के साथ युक्त करता और (चक्रियेव) जैसे चक्र वैसे (मरुद्भ्यः) पवनों से (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को घुमाता है, वैसे (आत्) अनन्तर (इत्) ही (माम्) मुझ को (हि) ही (युजम्) युक्त (प्र, अकृथाः) अच्छे प्रकार करिये ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे राजजनो ! आप लोग जैसे सूर्य्य मेघ को वर्षाय जगत् के सुख को और पवन से भूगोलों को घुमा के दिन रात्रि करता है, वैसे ही विद्या और विनय की राज्य में वृष्टि कर अपने-अपने कर्म में सब को चलाय के सुख और विजय को उत्पन्न करो ॥८॥
विषय
शत्रु नाशार्थं सैन्य सञ्चालन ।
भावार्थ
भा०—हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः राजन् ! सेनापते ! ( नमुचेः दासस्य शिरः मथायन् ) जिस प्रकार जल न त्यागने वाले मेघ के शिर, अर्थात् उत्तम भाग को छिन्न भिन्न करता हुआ सूर्य ( मरुद्भयः प्रवर्त्तमानं स्वयं अश्मानम् चक्रिया इव रोदसी प्रवर्त्तयति ) वायुओं के संघर्ष से उत्पन्न होने वाले अति शब्दकारी विद्युत् को दो चक्रों के बीच लगे धुरे के समान आकाश और भूमि के बीच घुमा देता है, उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) राजन् ! सेनापते ! तू ( माम् युजं हि अकृथाः ) मुझको अपना सहायक बना ले । ( आत् ) अनन्तर ( नमुचेः ) जीता न छोड़ने योग्य ( दासस्य शिरः मथान् ) नाशकारी शत्रु के शिर को कुचलता हुआ ( अश्मानं चित् ) विद्युत् के समान व्यापक ( स्वर्यं ) शत्रु को उपताप वा पीड़ा देने वाले और ( वर्त्तमानं ) आगे बढ़ते हुए सैन्यबल, आग्नेयास्त्रादि को ( मरुद्भयः) अपने वीरों के हितार्थ ( प्र वर्त्तयः ) आगे बढ़ा और ( रोदसी) एक दूसरे को रोकने वाली उभय पक्ष की सेनाओं को ( चक्रिया इव ) दो चक्रों के तुल्य चला ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बभ्रुरात्रेय ऋषिः ॥ इन्द्र ऋणञ्चयश्च देवता ॥ छन्दः–१,५, ८, ९ निचृत्त्रिटुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । ७, ११, १२ त्रिष्टुप् । ६, १३ पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । १५ भुरिक् पंक्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
मस्तिष्क व शरीर रूप दो चक्रोंवाला जीवनशकट
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (माम्) = मुझे (हि) = निश्चय से (युजम् अकृथा) = अपना साथी बनाते हो – मेरे लिए अपनी मित्रता का प्रदान करते हो। (आत् इत्) = और अब शीघ्र ही (दासस्य) = मेरे विनाशकारी [दसु उपक्षये] (नमुचे:) = अहंकार के (शिरः) = सिर को (मथायन्) = कुचल देते हो। २. (स्वर्यम्) = [स्वृ उपतापे] = अत्यन्त उपतप्त करनेवाले (वर्तमानम्) = मेरे जीवन में विद्यमान (अश्मानं चित्) = अविद्यापर्वत को भी आप विनष्ट करते हैं। और इन (मरुद्भ्यः) = प्राणसाधना करनेवाले पुरुषों के लिए (रोदसी) = द्यावापृथिवी को- मस्तिष्क व शरीर को- (चक्रिया इव) = जीवन शकट के दो चक्रों की तरह (प्र) = [अकृथाः] प्रकर्षेण कर देते हैं। मस्तिष्क की दीप्ति व शरीर की दृढ़ता से इनका जीवन शकट इन्हें लक्ष्य स्थान पर पहुँचानेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे अहंकार व अज्ञान को नष्ट करते हैं। हमारे जीवन शकट को ज्ञान व शक्ति के चक्रों से युक्त करके हमें लक्ष्यस्थान पर पहुँचने के योग्य करते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचलुप्तोपमालंकार आहेत. हे राजजनांनो! जसा सूर्य मेघांचा वर्षाव करून जगाला सुख देतो व वायुद्वारे चक्राप्रमाणे भूगोलाला भ्रमणशील करून दिवस व रात्र उत्पन्न करतो. तसेच विद्या व विनयाची वृष्टी करून सर्वांना कर्मशील बनवून सुख उत्पन्न करून विजय मिळवा. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Make me your friend and instrument since you break the top of the cloud, replete with vapours but resistant to release the rain, hold the firmament wheeling, circling and resounding, and divide space into earth and heaven and make them turn round and round like wheels for the winds to blow in the firmament and the humans to live on the earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of heroes are elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! the sun cuts off the head of the cloud which gives water and is eternal by the nature of the cycle of creation and joins the earth, through the wind, and sets in motion the heaven and the earth. In the same manner, make me your helpmate.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king the sun causes the happiness of the world through the rain, and by causing the rotation of the worlds by the wind creates day and night. In the same manner, increasing know- ledge and humility in your State and urging on all to discharge their duties, you spread happiness and victory.
Foot Notes
(दासस्य ) जलस्य दातुः । दास दानें । = Of the cloud giver of water. (नमुचेः) प्रवाह रूपेणा ऽविनाशिनो मेघस्य । = Of the cloud indestructible by the nature of the cycle of creation. (मरुदभ्यः) वायुभ्यः । गत इति पदनाम (NG 5, 5)। = Of the winds.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal