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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 39/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अत्रिः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यत्ते॑ दि॒त्सु प्र॒राध्यं॒ मनो॒ अस्ति॑ श्रु॒तं बृ॒हत्। तेन॑ दृ॒ळ्हा चि॑दद्रिव॒ आ वाजं॑ दर्षि सा॒तये॑ ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ते॒ । दि॒त्सु । प्र॒ऽराध्य॑म् । मनः॑ । अस्ति॑ । श्रु॒तम् । बृ॒हत् । तेन॑ । दृ॒ळ्हा । चि॒त् । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । आ । वाज॑म् । द॒र्षि॒ । सा॒तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते दित्सु प्रराध्यं मनो अस्ति श्रुतं बृहत्। तेन दृळ्हा चिदद्रिव आ वाजं दर्षि सातये ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। ते। दित्सु। प्रऽराध्यम्। मनः। अस्ति। श्रुतम्। बृहत्। तेन। दृळ्हा। चित्। अद्रिऽवः। आ। वाजम्। दर्षि। सातये ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 39; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अद्रिवो विद्वंस्ते यद्दित्सु प्रराध्यं श्रुतं बृहन्मनोऽस्ति तेन चित्त्वं दृळ्हा रक्षसि सातये वाजमा दर्षि ॥३॥

    पदार्थः

    (यत्) (ते) तव (दित्सु) दातुमिच्छु (प्रराध्यम्) प्रकर्षेण साद्धुं योग्यम् (मनः) चित्तम् (अस्ति) (श्रुतम्) (बृहत्) महत् (तेन) (दृळ्हा) दृढानि (चित्) (अद्रिवः) सुशोभितशैलयुक्त (आ) (वाजम्) सङ्ग्रामम् (दर्षि) विदृणासि (सातये) धर्म्माधर्म्मविभागाय ॥३॥

    भावार्थः

    यतो मनुष्यो ब्रह्मचर्य्यविद्यायोगाभ्याससत्यभाषणाद्याचरणेन सर्वविद्यायुक्तं मनः सम्पाद्य धर्मेण सार्वजनिकहिताय दुष्टान् दण्डयति तस्मात् सोऽत्युत्तमोऽस्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अद्रिवः) उत्तम प्रकार शोभित पर्वत से युक्त विद्वन् ! (ते) आपके (यत्) जो (दित्सु) देने की इच्छा करनेवाला (प्रराध्यम्) अत्यन्त साधने योग्य (श्रुतम्) श्रवण और (बृहत्) बड़ा (मनः) चित्त (अस्ति) है (तेन) इससे (चित्) भी आप (दृळ्हा) दृढ़ वस्तुओं की रक्षा करते हो और (सातये) धर्म और अधर्म के विभाग के लिये (वाजम्) संग्राम का (आ, दर्षि) भङ्ग करते हो ॥३॥

    भावार्थ

    जिससे मनुष्य ब्रह्मचर्य्य, विद्या, योगाभ्यास और सत्यभाषण आदि के आचरण से सम्पूर्ण विद्याओं से युक्त मन को सिद्ध कर धर्म से सम्पूर्ण जनों के हित के लिये दुष्टों को दण्ड देता है, इससे वह अति उत्तम है ॥३॥

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    विषय

    राजा के प्रजा को समृद्ध करने के कर्तव्य । दानशील को उपदेश । सर्वदाता प्रभु । उसकी स्तुति ।

    भावार्थ

    भा०-हे (अद्रिवः ) सूर्यवत् मेघ तुल्य शस्त्रधरों वा दानशीलों के स्वामिन् ! ( यत् ) जो (ते) तेरा ( दित्सु ) दान करने का इच्छुक ( प्र-राध्यं ) अति स्तुत्य एवं कार्यसाधक ( श्रुतं ) विख्यात और बहुश्रुत ( बृहत् ) बहुत बड़ा ( मनः अस्ति ) मन और ज्ञान है, ( तेन ) उससे तू ( दृढ़ा चित् ) दृढ़ से दृढ़ दुर्गों को (आदर्षि ) तोड़ सकता है और (सातये ) सत्यासत्य, वा धर्माधर्म के विवेक के लिये ( दृढा चित् आ दर्षि ) दृढ़ संग्रामों को भी जीतता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १ विराडनुष्टुप् । २, ३ निचृदनुष्टुप् । ४ स्वराडुष्णिक् । ५ बृहती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'दित्सु - प्रराध्य - बृहत् श्रुत' मन

    पदार्थ

    [१] हे (अद्रिवः) = वज्रवन् व आदरणीय प्रभो ! (यत्) = जो (ते) = आपका (दित्सु) = सदा दान देने की कामनावाला, (प्रराध्यम्) = प्रकृष्ट आराधना में उत्तम (मनः) = मन (अस्ति) = है, जो मन (बृहत् श्रुते) = खूब ही ज्ञानवाला है (तेन) = उस मन के द्वारा (दृढा चित्) = काम-क्रोध-लोभ के दृढ़ दुर्गों को भी (आदर्षि) = विदीर्ण कर देते हैं। दान देने की कामनावाला मन [दित्सु] 'लोभ' के दुर्ग को विनष्ट करता है। प्रभु की आराधनावाला मन 'काम' के दुर्ग को समाप्त करता है तथा श्रुत मन [ खूब ज्ञानवाला मन] क्रोध के दुर्ग को विनष्ट करता है । [२] इन दुर्गों को विदीर्ण करके आप वाजं सातये= शक्ति को प्राप्त कराने के लिये होते हैं। काम-क्रोध-लोभ ही तो हमारी शक्तियों को विनष्ट करते हैं। इनको विनष्ट करके हम शक्ति सम्पन्न बनते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारा मन 'दित्सु- प्रराध्य व बृहत् श्रुत' हो । इस मन से लोभ, काम व क्रोध को नष्ट करके हम शक्ति सम्पन्न बनें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो माणूस ब्रह्मचर्य, विद्या योगाभ्यास व सत्य भाषण इत्यादींच्या आचरणाने मनाला संपूर्ण विद्यांनी युक्त करतो व धर्मयुक्त बनून सर्व लोकांच्या हितासाठी दुष्टांना दंड देतो. तो अत्यंत उत्तम असतो. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Adriva, wielder of thunder arms and ruler of clouds and mountains, with that mind and courage of yours which is great, renowned and magnanimous leading to sure success, break down the strongholds of darkness and scatter the forces of negativity to reveal the light of rectitude for success and victory.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of Indra (king) is described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned king! turning the mountains beautiful in your famous and vast kingdom with your mind and knowledge (under your planning. Ed.) You are eager and willing to give this knowledge to others, worthy of being accomplished or trained well. You protect (retain) thereby firm virtues and objects, and wage war (when necessary) to distinguish between Dharma and Adharma (righteousness and unrighteousness) and establish the Dharma.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That man is the best, who by the observance of Brahmacharya and Vidya, practice of Yoga and truthful conduct etc., makes his mind full of the knowledge of all sciences and applies the same for the good of the public, and punishes the wicked.

    Foot Notes

    (दित्सु) दातुमिच्छुः । = Willing or eager to give. (सातये) धर्म्माधर्मविभागाय । (सातये) पण संभक्तौ (भ्वा० )। = For distinguishing between Dharma (righteousness) and Adharma (unrighteousness) (वाजम् ) सङ्ग्रामम् । वाज इति बलनाम (NG2, 9) अन्न बलसाध्य संग्रामार्थे तस्य प्रयोगः । वाजसातौ इति संग्रामनाम (NG 2, 17 ) = War, battle.

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